कविता ::
अजंता देव

अजंता देव

अपभ्रंश का क़बीला—एक असमाप्त कविता

एक

गिरी पड़ी रहती थी बेचारी
अपने घर में सुस्त
देखती रहती गली में खेलते
अप नाम के बिगड़े लड़के को
अप ने भी कई बार उसे देखते हुए देखा
दो तुच्छ प्रेम न करते तो जीते कैसे
दुकानों, चायघरों और सस्ती सरायों में परवान चढ़ा यह प्रेम
अब उनकी भी पहचान थी
व्याकरण था
साहित्य था विपुल
शिशुओं के जैसे खेलती थीं किताबें आँगन में
तब भी संस्कृत के मोहल्ले में हेय दृष्टि से देखी गई
लम्पट के साथ भागी लड़की की तरह
धीरे-धीरे उसके घर चक्कर काटने लगे नवयुग के युवा
उनके प्रेम ने एक कर दिया नाम अपभ्रंश
विद्वान लोग यहाँ-वहाँ अब भी कहते हैं
भ्रष्ट हो गई हमारे गाँव की बेटी
कितने चाव से रखा था जिसका नाम भ्रंश।

दो

कितनी ऋतुएँ बीत गईं
अप के लक्षण नहीं बदले
भ्रंश रोते-रोते गिरती रही
कितने जतन किए अप को बदलने के
खींच लाई नेक लड़कों को अप के सामने
पर हाय मान जैसा सुंदर युवा बन गया अपमान
अप नहीं बदला।

तीन

ऐसा नहीं कि अप काम नहीं करता
निकलता है घर से ठान कर मन में
गली के मोड़ तक जाते जाते
टकरा जाता है धुले-पुँछे लोगों से
गालियाँ खाता हुआ भर जाता है ग़ुस्से से
विद्वान थूकते हैं उस पर
कहते हैं यह जब भी करेगा
अपकार ही करेगा
उपकार की औक़ात नहीं इसकी
देखा नहीं क्या हाल बना दिया
ऊँचे घर की बिटिया का
अप नहीं बदलेगा
बदल गई हमारी बेटी
इतनी-सी थी
खेलती थी जब आँगन में
घूमती रहती पूरे संस्कृत मोहल्ले में
छुपम-छुपाई की उस्ताद
बोली नाम की सहेली के पीछे दुबकी
पकड़ नहीं पाती थी माँ
बस खेल-खेल में ही सीखती गई सब कुछ
किसी आश्रम में तो वैसे भी प्रवेश निषिद्ध था
पर किसे पता था यह दिन दिखाएगी
कहाँ सोचा था चुप-चुप रहने वाली
ये गुल खिलाएगी
अब नाम भी लेंगे तो अपशब्द होगा
ये अप मर क्यों नहीं जाता
विद्वान पुरुष माथा पकड़े निकल गया।

चार

भ्रंश ने दिल से कभी नहीं चाहा
शिष्ट बने अप
शिष्टता का कुटिल चेहरा
अपने मोहल्ले में ख़ूब देखा है
बहनों सहेलियों को शिष्ट बनकर देखा है झुकते
उर्दू तो नज़रें तक नहीं मिलाती थी
रेख़्ता फिर भी कुछ ज़बान चलाती थी
कहा गया नए ज़माने की बिगड़ी औलाद है
उपहास किया गया जब रेख़्ती जन्मी
औरतों ने ही पाला जतन से
पर गली से बाहर पाँव न धरा कभी
वह कैसे कहे कि अप बन जाए अपशिष्ट।

पाँच

अप कैसे बना इतना अप
विद्वानों के मोहल्ले का कूड़ा
जैसे छने हुए पानी का बचा हुआ बहाव
अर्थ पर सिर धुनते हुए गिरी मृत कोशिका-सा अनर्थ
भ्रंश नहीं तो कौन साफ़ करता यह कचरा
कौन बनाता खाद मोहल्ले के ऊँचे-लंबे पेड़ों का
यह लगातार काम था भ्रंश का
जिसे बिना वाद-विवाद के कह दिया गया अपवाद

छह

वह स्वयं चली गई थी अप के साथ
उसे स्वीकार न था उसका वरण करना
जो समान कुल का होता
वही वचन
वही दर्प
वही अकड़ जो बचपन से देखती आई थी
इस मोहल्ले में हर दिन होता था हरण
पहली बार हुआ अपहरण

सात

भ्रंश का हृदय टूक-टूक हो जाता है
अप के व्यर्थ प्रयास से
लड़ता-झगड़ता लेकिन मोहल्ला नहीं छोड़ता
यहीं पैदा हुआ
यहीं मरेगा
लाख कोसते रहें विद्वान
बना रहेगा दिनचर्या के बीच अपचारी

आठ

क्या होगा पूजापाठ से
श्लोक मंत्र की समझ किसे है
ताना मारते हुए कहते हैं
विद्वान आहुति देते
एक अनुचित उच्चारण से बिदक जाते हैं देवता
सुगंध से निकट आ जाते हैं प्रेत
और तूने तो सुलगा रखी है अगरबत्ती
दीप के स्थान पर मोमबत्ती
ये क्या बत्ती बत्ती लगा रखी है मूर्खा
पता था यही करेगी
अप से विवाह
धूलि से चाह
ऐसे ही तो नहीं नाम रखा था भ्रंश
भविष्यद्रष्टा थे पूर्ववर्ती
करती रह आराधना
संगदोष से राध ही बन जाएगा अपराध।

नौ

कैसे इनकार करे अप के आकर्षण को
कितना फीका है
अनुशासनबद्ध आचरण
रोज़-रोज़ वही रूप वही छंद
ऊब गई थी भ्रंश इकतारे की टन्न-टन्न से
एक सर्वमान्य शांति में सिर झुकाए
अहोभाव भरे लोगों से
सबसे ऊँचे शिखर पर बैठे शिकारी बाज़ को देखकर
थक गई थी प्रशस्तिगायन से
तभी नज़र आया था चोटी से लुढ़कता
नीचे की ओर लपकता
नदी की तरह बहता अप
फिर रुकने का मन नहीं हुआ भ्रंश का
कूद पड़ी धारा में धारा बनने
पीछे रह गए लोग कहते रहे—
अपसरण-अपसरण

दस

यह कुटिलता इस मोहल्ले की पहचान थी
उनके कोश के पिछले पन्ने अभी ख़ाली थे
किसी को कुछ भी बना देने की स्वच्छंदता कितनी बदशक्ल होती है
रूप को कुरूप बना देने की चालाकी अब भी काम आई
अत्यंत सुंदर का अर्थ लिखा अपरूप
और विचित्र ढंग से हँसे
हमारे ग्रंथ हमारे हथियार हैं
हमने लिख दिया रूप के साथ अप
विकृति-सुकृति का विवाद करते रहो
कुछ कहेंगे अपरूप का अर्थ अत्यंत सुंदर
मगर कुछ यह भी तो कहेंगे—
कुरूप होता है अपरूप।

ग्यारह

धन नहीं
यश ही सफलता है इस मोहल्ले में
सबसे बड़ी शत्रुता मोहल्ले में बदनाम करना है
सबसे बड़ा शाप है जा तुझे यश प्राप्त न हो
अप को परवाह नहीं थी
भ्रंश को थी
अपने नाम से शर्मिंदा थी छुटपन से ही
मोहल्ले के हर घर में बेटियों का ऐसा ही नाम था
डिंगल
पिंगल
ढूंढाणी
बघेली
मगही
सिरमौर तो एक ही थी
बस वही भाषा थी
हम तो बुलाने भर की बोलियाँ थीं
यश तो क्या ही आता हिस्से
ऊपर से अप के साथ का अपयश और हो लिया
ऐसे फेंका गया अप और भ्रंश को
जैसे कीड़ा लगा बैंगन

बारह

कब तक रोती भ्रंश
कब तक गिरती आँसुओं के साथ
कब तक चेहरा देखती दूसरे के आईने में
अब तो आ गया था समय
उठने का
बहनों को घर बुलाने का
उपहास पर अपहास करने का
एक साँझ चिल्ला उठी भ्रंश
आओ रे आज मिल कर गीत गाएँगे
श्लोक सुनते-सुनते थक नहीं गईं क्या
आज मेरे यहाँ होगा रतजगा
क्या बात नहीं आती हमें
या कहानी

तेरह

वह रतजगा अनूठा था
मोहल्ले के विद्वान हैरान थे
नवयुवा पहले ही बँधे थे इस घर से
अब घिर आए थे जल भरे मेघ की तरह
यह कैसी रचना थी
जहाँ पोथी बिना सब सामने था
जिसे समझने के लिए सिर झुकाना नहीं था
शोकमग्न मोहल्ले में क्रोध था
उल्लास सिर्फ़ एक घर में था

चौदह

यश से बड़ी है कीर्ति
रचना से बड़ी कृति
अब इसी का इंतिज़ार था
भारी था यह समय काटना
किंतु भोर होने को थी
एक युवा ने अचानक तोड़ी
उल्लास के बाद की स्तब्धता
उसने कहा मैं तुमसे नहीं हूँ
मैं मुझसे हूँ
मोहल्ले ने अंतिम प्रयास किया
कहा देखो यह एक स्वयंभू है
इसे मत मानना
यह ठेले वालों की बोली कहाँ तक पहुँचेगी
फिर भी आधी रात
झोंपड़ियों में दीपक की लौ बढ़ाकर
पढ़ते रहे लोग—
पउम चरियु
रिट्ठ णेमी चरियु
स्वयंभू छंद
ऊँचे घरों के चबूतरों पर सिर हिलाकर कहा गया
कीर्ति कहाँ अपकीर्ति कहो इसे

पंद्रह

ऐसे ही बीत गया समय
मोहल्ले के बूढ़े चले गए
युवा हतप्रभ देखते रहे
अपभ्रंश का क़बीला
सुंदर-सजीला युवक
पेशियाँ फड़काता
घूमता है गली में
कामगार पुकारते हैं
अवहट्ट
ऊँची अटारी से गरजता है एक कंठ
अबे हट्ट
हँस ता है अवहट्ट तिरछा
अपभ्रंश गर्व से देखते हैं
पुत्र को
जो बेटा कहलाना पसंद करता है

सोलह

अपभ्रंश का प्यार
कम नहीं हुआ
अपमान और अपशब्द से
मोहल्ले की स्मृति में बस गया था यह युग्म
जो अब संज्ञा था
यही वह समय था जब
बूढ़े विद्वान अपनी पोथी में लिख रहे थे
एक नया रोग
अपस्मार

सत्रह

स्मृति पर किसी का नियंत्रण नहीं
याद करते हुए मनुष्य से ताक़तवर कौन
यही बात डरा रही थी पोथीवान् को
रत जगे के गीत गूँज नहीं रहे थे
अटके थे उँगलियों के पोर से
इसी से बुनी जा रही थी रंगीन चादर
जो एक विशाल भू-भाग को बचाएगी
दर्प और अन्याय के प्रचंड ताप से
कमतरी के छेद नहीं होंगे इस चादर में
तरह तरह के फूल काढ़े जा रहे थे इस पर
पूर्व-पश्चिम और उत्तर के पुष्प
गंगा किनारे कादे पर खिले जंगली फूल
पोखर की हैला
रेत के रोहिड़े
पर्बतों के नरगिस
हरसिंगार, गेंदा, गुड़हल और सदाबहार जैसे नाम से पुकारा गया आँगन में लगे पौधों को
पारिजात को छोड़ दिया गया देव-उद्यान के लिए
ब्रज के ग्वाले धोती की खूँट में बाँध लाए कदम्ब नमूने को

अठारह

यह समूह था
भीड़ कहा गया जिसे सोच-समझकर
इनकी हँसी
इनकी बातचीत
मोहल्ले में कोलाहल बढ़ाती थीं
असहनीय थी इनकी सरलता की इच्छा
गरिमाहीन लगती थी इनकी प्रार्थना
जिसे ये लहककर भजन कहते थे
दो पंक्तियों को दोहा
चार को चौपाई
छह को छप्पय
ये नाम नहीं अपनाम हैं
अलिंद पर बैठे विद्वान ने घोषणा की
नीचे इकतारे पर कोई गा रहा था
कोई नाच रहा था

उन्नीस

अवहट्ट समझ गया था
विजय पराजय से नहीं
काम करने से होगा निर्णय
फूल खिलते रहेंगे तो जयमालाएँ बनती रहेंगी
उसने समूह को ललकारा
छैनी-हथौड़ा, मिट्टी, चमड़ा, सूई-धागा, करनी-बसूला…
सब बोल पड़े
यह समवेत की धमक नहीं
दमक थी
सुनाने की इच्छा
बताने की ललक
तरुणों का उल्लास था
इस जुटान से शंकित था मोहल्ला
भीतर-भीतर एकत्र हुए कुल
अब युद्ध दूर नहीं था
यह कुल और क़बीले के बीच घमासान था
संसाधन और श्रम के बीच
दर्प और नम्रता के बीच
शुद्ध और मिश्रित के बीच
युद्ध कभी समाप्त नहीं होता
कभी बाहर तो कभी अंदर जारी रहता है
असमान को समान करने की निरंतरता में बचा रहता है युद्ध
जीतने के बाद भी
हारने के बाद भी

बीस

हर प्रेम-कहानी युद्ध होती है
हर युद्ध निरंतर करता है प्रेम को
यह कथा अपभ्रंश अवहट्ट से चलकर
हिंदी तक आई
पर क्या युद्ध समाप्त हुआ
नहीं श्रोताओ,
यह युद्ध अब भी लड़ा जा रहा है
कुलीन और क़बीले के बीच की
पुरानी प्रेमकथा का डंक निकला नहीं
चिलकता है बारम्बार।


अजंता देव से परिचय के लिए यहाँ देखिए : अब हमें बंद करना चाहिए स्त्री को पृथ्वी कहना

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