कविताएँ ::
अजय नेगी

अजय नेगी

मनःस्थिति

जब जीवन है निरर्थक
सब रास्ते हैं अंधकारमय
फिर क्यों बैठा हूँ
इन मुर्दा दीवारों के बीच—जीवित
क्यों न कर ही लूँ
इसी कमरे में—जीवन का अंत
लेकिन यह क्या
कि पलटता जा रहा हूँ पृष्ठ
शायद मैं जानता हूँ
कोई एक कविता बचा लेगी मुझे।

रिश्ता

मैं कुछ नहीं कह सकता था
वे क्षण अवर्णनीय थे
मैं आगे बढ़ रहा था
सहसा मुझे ध्यान आया
प्रकृति से मनुष्य का संबंध
मैंने ज़रा रुककर
थाम लिया तुम्हारा हाथ।

प्रतिमा

यूँ ही रहेंगी उसकी टाँगें
किसी मुर्दा शव की तरह अकड़ी हुईं
उसकी परछाईं में भी कोई हलचल न होगी…

स्वीकृति

ख़त्म हो गईं सब संभावनाएँ
और—और अब कुछ नहीं
मृत्यु मेरे सिर पर है
खींचने को प्राण
मैंने ही इसे चुना है
अपने लिए—सिर्फ़ अपने लिए
मैं नहीं चाहता
कि मनुष्य मेरी मृत्यु का साक्षी बने!

स्वर्गलोक

वह व्यक्ति जिसके सिर पर ज़िम्मेदारियाँ थीं
जेब में एक टिकट और तीन सौ रुपए थे
जो शायद घर से गाँव जाने के लिए निकला था
ख़ुदा जाने किस तरह आ गया ट्रेन के नीचे

दो हिस्सों में बँटा हुआ है अब उसका शरीर
पटरी के इस तरफ़—उस तरफ़।

कहानी

मैंने जब पहली बार उसे देखा
मुझे कहानी का वह पात्र याद आया
जिसने अपनी बेटी की हत्या कर दी थी
उसके भैंगा होने की वजह से!

वह आदतों में अपने बाप पर गई है
मैं उसके साथ कभी ऐसा नहीं करूँगा
जैसा मैंने कहानी में पढ़ा था

वह मेरी बेटी नहीं, फिर भी
मेरे दिल में उसके लिए प्रेम है—
हमेशा रहेगा
मैं उसके बाप की भी इज़्ज़त करता हूँ
आख़िर वह मेरा मालिक है।

अनुपस्थिति

आज उस रंडी की लाश मिली है
जिसकी कल हत्या कर दी गई थी
फ़र्श पर जमे बलग़म के दाग़ों पर
ख़ून के छींटे बिखरे हुए हैं

लाश अब यहाँ से जा चुकी है
मगर सब इस बात से अनजान हैं
कि इसी बदनुमा कमरे में
भटकता रहेगा उस रंडी का भूत
यहाँ से वहाँ
अपने ग्राहकों के इंतिज़ार में।

उकताहट

तुमने मेरे आँसू टपकते देखे
तुमने मेरी चीख़ों को बर्दाश्त किया
तुमने रात भर मेरी सिसकियाँ सुनीं
तुमने मेरी बातों को ख़ुद तक सीमित रखा
ऐ मुर्दा दीवारो,
तुमने वह सब किया
जिसकी उम्मीद मुझे मनुष्य से थी!

अंततः

सारे काम-काज छोड़कर
मौन को बदलकर चीख़ में
मैंने शुरू कर दी जंग
बिना किसी आग़ाज़ और अंत के
लड़ रहा हूँ

मुझे अपनी जीत पर यक़ीन है—
इतना यक़ीन
कि कुछ देर लड़ते हुए
वह आ गई मेरी मुट्ठी में
और इस तरह
उसके समूचे अस्तित्व को
मसल दिया मैंने उँगलियों पर
ख़ून की एक बूँद बनकर रह गई मक्खी।

घृणास्पद

वह ख़ुद को सँभालती हुई बाथरूम में पहुँची
फ़र्श पर पानी डालकर वह उकड़ूँ बैठ गई
किसी घिनौनी घटना को याद करते हुए
एक फ़व्वारा-सा उसके भीतर से फूटा
उसकी परछाईं सन गई
उल्टी और ख़ून के रेशों से।

गुनहगार

मेरी स्मृतियों में गुनाह हैं
मेरी आँखों के आगे मृत्यु के दृश्य
मेरे गले पर उँगलियों के निशान हैं
मेरे अंदर दबी हुई हैं चीख़ें

मेरे हाथों कहीं मारा न जाऊँ मैं!

संध्याकाल

हाथ-पैर बुरी तरह झटपटाने लगेंगे
छूटने लगेगी साँस
सब दृश्य आँखों से धुँधला जाएँगे
कुछ भी न सूझेगा
शक्ति क्षीण होती चली जाएगी
अंततः
डूब जाऊँगा नदी में
बिना यह सोचे
कि मेरे डूबने से भर जाएँगे इसमें नए अर्थ
मेरी मृत्यु का प्रमाण बन जाएगी यह नदी।

उम्रदराज़

आदतन उसने टिका दिया है माथा
पीपल के एक दरख़्त पर
और बुदबुदाने लगा है कुछ

रोज़ की इस प्रक्रिया में
थक चुकी हैं उसकी आँखें
फट चुके हैं उसके होंठ

वह नहीं जानता
कितनी बूढ़ी हो चली हैं
उसकी प्रार्थनाएँ।

तलाश

उतना ही समझो मुझे
जितना नज़र आ रहा हूँ
अँधेरे कमरे में

उतना भर ही है
मेरा अस्तित्व पृथ्वी पर
जितना तुमने छू लिया मुझे
ढूँढ़ते हुए अँधेरे कमरे में।

शनैः-शनैः

पिछले दस दिनों से माँ गई हुई हैं गाँव
जीवन की आपाधापी ने भुला दिया है
उन्हें याद करना

मैं सोचता हूँ :
क्या यही होगा माँ के मरने के बाद भी?
क्या यूँ ही भूल जाऊँगा धीरे-धीरे उन्हें
जीवन की आपाधापी में?


अजय नेगी (जन्म : 1998) की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में उपस्थित उदासी और विकलता उन्हें एक ज़िम्मेदार कवि के रूप में सामने ला रही है। इन कविताओं में उन्होंने उतना ही जीवन स्पर्श किया है, जितना जीवन उन्हें स्पर्श करके गया है। वह वायवीयता, लद्धड़ प्रेमालाप-प्रेमाचार और उम्मीद जैसे ज़िंदा और बीमार शब्द से ख़ुद को बचा ले गए हैं। उनसे ajaynagi241@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. अखिलेश सिंह जुलाई 23, 2024 at 4:27 अपराह्न

    यह प्रस्तावना विहीन, अचानक से फूट पड़ती हुईं और काफी सर्रियल किस्म की संवेदनायुक्त कविताएं हैं। इनमें कुछ कविताएं काफी अच्छी हैं और नवागत के प्रति उम्मीद जगा रही हैं। शुभकामनाएं।

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