कविताएँ और तस्वीरें ::
सोमप्रभ
एक रेल गुज़रती है
धूप से जलते मैदानों के रास्ते एक रेल गुज़रती है
एक सवारी गाड़ी जितनी जैसी वह
भभके में भभका छोड़ती
लोग ही लोग होते हैं
गठरियों पर गठरियाँ
बीड़ी और तंबाकू
और पसीना छोड़ती देहों की गंध
में लिपटी रहती एक समूची यात्रा
बातों का अंबार
और जीवन की कथाएँ अनंत
चुप्पी और ठहाके में
ग़ोता लगाती हर रोज़ एक रेल
इस तरह गुज़रती है
मैं इन्हें नहीं जानता हूँ
कि ये कहाँ के होंगे रहने वाले
क्या होगा इनका नाम
मैं इस देश को जानता हूँ
जहाँ कठपुतलियाँ हैं ये बनाई गईं
डोरियों से बाँध नचाए गए हैं ये सारे
एक कथा के अभिशप्त जीवन-चरित्र
छितराए गए हैं ठौर दर ठौर
इनमें बहुत से लौट रहे हैं देवी को मत्था टेककर
पोटलियों में राख लिए
बहुत सँभाल कर रखी गँठियाई हुई
माता का प्रसाद बताई गई
हर स्टेशन पर रेल रुकती है
पाँच, सात, दस, बीस का टिकट ले
धकियाती, गुर्राती, गरियाती भीड़ चढ़ती है
एक रेल इस तरह हर रोज़ गुजरती है।
बैलगाड़ी
एक दृश्य घट रहा है
इस दृश्य के भीतर कई बैल गन्ने से लदी
गाड़ियाँ खींच रहे हैं
और पहिए
घड़ियों के बरअक्स
और अंकों की भाषा में नहीं
अपनी ध्वनि में वक़्त का बयान कर रहे हैं
पहिए घूमते हैं
सारी रात आवाज़ करते हैं
एक पहिया ऐसी ध्वनि देता है
जैसे कोई निरंतर विलाप करता चला जा रहा है
दूसरा पहिया घूमता है
और बैलों की फुँफकार से संगत करता है
एक पहिया चूँ से निकलने वाली
आवाज़ें कई मात्राओं के साथ
निकालता है
एक बैलगाड़ी बड़ी सुरीली धुन के साथ
धुँध में चलती चली जाती है
एक पहिया बस घूमता है
घड़ियाँ इस तरह समय को व्यक्त नहीं करतीं
और अपदस्थ हो जाती हैं
पहिए की ऐसी आवाज़ों से पहले के क्षण में
बैलगाड़ियाँ रुकी हैं
और आदमी सोच रहा
कि अबकी वहाँ पहुँचने तक
कितना बचेगा गन्ना
अबकी रास्ते में जबरन और माँगकर
कितने गन्ने सरक जाएँगे बोदों से बाहर
तौल मशीन कितना कम तौलेगी
अबकी सारा रास्ता
पहिए के किन क़िस्सों पर बीतेगा वक्त
इस तरह बैलगाड़ियाँ
चीनी बनाने के मौसम में
रवाना हो रही हैं।
एक बातूनी चरवाहे के जीवन और उसके सुनाए हुए प्रेत के क़िस्सों पर आधारित तीन कविताएँ
जब तक सबेर न हो जाए
मुँह को नहीं दिखता मुँह
धुँध इतनी है
कि पेड़-पालव, घास-पात
गड़हा-गुड़ही सब गुड़ुप
भूँकता है भैरव
कुँकुआता रात भर
पुआल में कुनमुनाते हैं पिल्ले
भैंसें रात भर फुँफकारती हैं
पटकती पैर
पगहा न हो
तब भी मवेशी खूँटा तुड़ाकर कहाँ जाएँगे
उजेरी धुँधी रात में
बच्चे, पिल्ले, भैरव, भैंसे सो रहे हैं
आधी रात बड़बड़ाती हैं आजी
‘लड़कवैं आज फिर घरियम सोई गे’
(बच्चे फिर सो गए आज घारी में)
चार बजे तो बहुत हुए
खुड़खुड़ाने लगाता है किरपाल
पाँच-छह बीड़ियाँ ही मारेंगी खोंखी
फिर गाने लगेगा,
‘फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
रहहिं एक सँग गज पंचानन।।”
जब तक सबेर न हो जाए।
प्रेतों का पलायन
सारा दिन-रात हिला-हिलाकर थका देते थे पेड़
साइकिलों पर लद जाते पीछे और बढ़ा लेते वजन
फिर हिल भी न पाती साइकिलें
औरतें मालपुआ चढ़ातीं
धूप-बत्ती करतीं
और गीत गातीं पोखरे के भीत पर
प्रेत डाल पर बैठकर सुनते
वे कभी तंग नहीं करते
न किसी को ज्वर चढ़ा
न महामारी हुई कभी
वे खाते, खेलते, परिहास करते
और थक कर पेड़ की डालियों पर अलसाते
जुड़ग्गा में पड़ी रहती थी मछुवारों की डोंगी
प्रेत पेड़ों से उतरते तो डोंगी में सवार होते
और डोलते रहते घंटों
डोंगी से उतरते तो पेड़ों पर झूलते
एक दिन अचानक चली आई रेल की पटरियाँ
फिर एक दिन रेलें चली आईं
फिर हर घंटे दौड़ने लगीं रेलें
क़स्बे में घुसने से पहले आने लगती रेल की आवाज़ें
और गलियों की दीवारों में टकराकर गूँजती रहती
घर हिल जाते
खिड़कियाँ काँपती
नींद अधूरी रह जाती
रेलें गुज़र जाती
तब भी गलियों और घरों में शोर बचा रह जाता
सिर्फ़ रेल ही नहीं आईं
लोग भी आए
बोगियों में भर-भर कर
न जाने कहाँ-कहाँ के लोग
दिल्ली-मुंबई नहीं था हमारा क़स्बा
फिर भी भीड़ बढ़ गई थी
एकांत में भी एकांत नहीं रहा
प्रेत भय से काँपते
कान ढाँपते
विलाप करते
प्रेत शोर में नहीं बसते
शहर में नहीं रहते
ग्राम-प्रांतर ही हैं उनका वास
वे भागते हैं शोर से
आख़िर वे बचे हुए वनों में भाग गए
जुड़ग्गा पोखरा पर नहीं बसते हैं अब प्रेत
कौन भूल सकता है
कान ढाँपे डरे हुए भागते प्रेतों का दृश्य।
लीक के प्रेत
सीताचबउनी फलते हैं इतनी दूर
और पहुँचने का रास्ता एक
लीक पर तो भरी दुपहर हिलती है झाड़
प्रेतों की चटख पगड़ियाँ दिख जाती हैं दूर से
कितना भी काँपे पैर
फिर भी गायों, भैसों को हाँकते उधर से जाना होगा
गाते हुए आत्माओं को प्रसन्न करने का गीत
फिर भी हाँक ही ले जाता है एक न एक
या हफ़्तों का दूध दुह लेते हैं प्रेत
कोसते हैं बच्चे और पशुओं की पीठ उधेड़ देते हैं
मवेशियों का चारा तो मिल जाता हैं गाँव के पास
सीताचबउनी ही बस दूर फलते हैं
जाने क्या खाद और पानी है लक्ककगड़हा के कगार पर
कि ख़ूब फलती हैं मकोय
और लदी रहती है सीताचबउनी, भिलोर
सारा दिन सुरबग्गी खेलते, मकोरते बीत जाता है दिन
लौटते वक़्त मुट्ठी भर लेते हैं प्रेत
तब ही जाने देते हैं लीक से वापस।
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सोमप्रभ विवेक और विचार से संपन्न हिंदी के अनूठे रचनाकार हैं। उनसे और परिचय के लिए इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में प्रकाशित उनका गद्य यहाँ पढ़ें :