गद्य ::
सोमप्रभ

सोमप्रभ | क्लिक : अमित कुमार चौधरी

ये किस्से कई बरसों के बीच बिखरे हुए हैं. उनके घटित होने का एक क्रम है. लेकिन स्मृति-क्रम अनिश्चित है.

एक

सर्दियों में पहले घर, रास्ता, पेड़ कुहरे का बना होता. कई बरस से कोहरा बिदका हुआ है. पहले पहल कम ही घर थे. अब घर और घरों से घिर गए हैं. तब पेड़ थे. शीशम के तमाम पेड़. उन दिनों तितलियां उड़ते हुए अक्सर घर के भीतर आ जाती थीं. आस-पास झाड़ियां थीं. हमारी नींद के वक्त भी मकोय के नन्हे फल लटके रहते और जीभ पर रस टपकता रहता. मैं कितना भी सजग होकर लटजीरा का ललछौंह तना छुए बिना नहीं रह पाता. हम कहीं भी फूल रोप आते थे. मां उन्हें निहारती रहती थीं. पानी देतीं. मैं अक्सर पेड़ का माथा छूते हुए उन्हें देखता. वह एक-एक पत्ती छूकर देखतीं. रात आती तो तिनका-तिनका रात में डूब जाता. सियारों की टोली हुआंते हुए घर के पास से गुजरती. रात आती तो दिन में अदृश्य रहे की तमाम आवाजें झिर्रियों से घर के भीतर दाखिल होती रहतीं. तालाबी चिड़ियां रात डुब्बी मारतीं. रात अक्सर घाघस बोलता तो मां चिंता से भरी रहतीं. हमारी नींद खुलती तो वह आहिस्ते से माथा सहलाती रहतीं. वह किसी भी तरह से उसे शाख से उड़ा देना चाहतीं. घाघस अब भी बोलता है, लेकिन पेड़ पास नहीं है कि मां उसे उड़ा सकें. वह अब भी चिंताओं से घिरी रहती हैं, लेकिन चिड़िया की चिंता जरा दूर की चिंता है. पास की चिंता को वह पेड़ की डाल झिंझोड़कर उड़ा नहीं सकतीं. कोई पेड़ इतना पास भी कहां है.

दो

रात बारिश आई. छुट्टा गायों के खुरों के रगड़ने की आवाजें आती रहीं. जैसे वे भागती और थमकर खड़ी हो जातीं. हवा के जोर से और बंदरों के कूदने-फांदने से लोहे की जाली के ऊपर लगी शेड टूट गई और बारिश का पानी भीतर आने लगा. इतनी रात जाने कब छत पर गया था. ऊपर चढ़ता हूं. कुछ पानी हवा ने सीढ़ियों पर भी धकेल दिया है. दरवाजे की कुंडी कड़ी हो गई है.

‘‘छत पर मैं कब आया था?’’

घर के भीतर से बाहर होता हूं, रहता भीतर ही हूं. ‘‘तुम कभी-कभी बाहर भी चले जाया करो. हर दम आंख गड़ाए रहते हो. पन्नों से बाहर भी एक दुनिया है.’’ बरसों पुराने दो वाक्य गूंजते हैं.

बहिन मेरी शर्ट की बटन ऊपर की नीचे, नीचे की ऊपर बंद करते हुए साइकिल निकाल देती है और हाथ पकड़कर बाहर कर देती है. ‘‘जाओ दो घंटे बाद आना घूमकर.’’ जाने तो लगा हूं अब, छत पर खड़े होकर कहता हूं. अपने से बड़बड़ाता हूं. पत्थरों से शेड को दबाता हूं और बारिश में भीगते घरों को देखता हूं. जहां-जहां घर हैं, वहां पेड़ भीगते थे कभी. पक्के रास्तों के नीचे लहरती घास, कीटों की दुनिया कहीं दब गई है. उनका कोई महत्व शेष नहीं रह गया है. जहां से गीदड़ों के जाने का रास्ता था, वहां एक मनहूस कार खड़ी है और बिजली का पोल लगा है. बहुत पुरानी आवाजें और दृश्य बारिश में कौंधता है और गायब हो जाता है. अब सिर्फ बंदरों के कूं-कूं की आवाजें हैं और वे जैसे किसी बेचैनी में दूर तक छतों पर भाग रहे हैं. रास्तों पर फिर से गुलमोहर की डालियां टूटकर गिरी हैं और फूल बिखर गए हैं.

तीन

सुबह उठता हूं तब पक्षी बोल रहे होते हैं. खिड़की से देखता हूं तो नीम अंधेरे में कनेर के पीले फूल दिख जाते हैं. नीम का कोई पेड़ नहीं है. जब तक दूर के गुलमुहर नहीं दिखने लगेंगे तब तक कोई दूसरी आवाज नहीं होती. बस चिड़ियां इधर से उधर डोलती हैं. एक तो खिड़की के छज्जे पर आ-आकर बोलती है. हर रोज खिड़की से सटाकर कुर्सी लगा देता हूं. उन्हें सुनता हूं. बस यह सब थोड़ी देर के लिए है, घंटे दो घंटे भी नहीं रहेगा. अभी रेल धड़धड़ाते हुए जाएगी. फिर खड़खड़ाती ट्रालियों की आवाज, फिर ट्रकों का शोर, फिर ठीक बगल में पानी की मोटर घड़घड़ाने लगेगी. फिर बाइक पर कोई दस किक मारेगा. फिर कई घरों के गेट खुलने की आवाजें आएंगी. फिर पिता खांसने लगेंगे. अम्मा रसोई में लाइटर जलाते सुनाई देंगी. फिर दिन हो जाएगा और उसमें आदमियों की असंख्य जी भिन्ना देने वाली बातें भर जाएंगी. एक आदमी घर के बिल्कुल पास से बहुत भारी आवाज में न जाने किससे लड़ता हुआ ‘मादर… मेरा पैसा वापस कर मादर…’ कहता गुजर जाएगा. फिर देर रात तक घर ऐसी ही बड़बड़ाहटों से घिरा रहेगा.

चार

जब कहीं बाहर जा रहा होता हूं तो अपना कमरा लेकर नहीं जा सकता हूं. बुरादा छोड़ रही अपनी मेज को उठाकर नहीं ले जा सकता. और उस कीट को जो हर रात मेज में से ही कहीं किट-किट करके बोलता है और चुप हो जाता है. मैं हर रात उसकी आवाज सुनकर जैसे ही मेज पर कान लगाता हूं, वह वैसे ही चुप हो जाता है. वैसे तो एक किताब लेकर भी निकला जा सकता है. लेकिन बाहर जाने पर अपनी किताबों की धूल नहीं झाड़ी जा सकती, जो रात-दिन गिरती रहती है. बाहर जाने पर कमरे की खिड़कियां बंद रहती हैं. इससे मुझे बहुत चिढ़ है कि कमरे की खिड़कियां बंद हों. ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने जबरन मेरे आंख-कान बंद कर दिए हों. न जाने क्यों बाकी लोग नहीं चाहते हैं कि खिड़कियां हमेशा खुली हुई हों.

मुझे यह नहीं समझ आता कि जब खिड़कियां खुलने के लिए बनाई गई हैं तो उन्हें खोला क्यों न जाए. कोई कहता है कि सड़क बहुत पास तक आ गई है, गाड़ियों की आवाज आती रहती है. कोई कहता है कि धूल से घर भर जाता है. अगर खिड़कियों को बंद भी कर दिया जाए तो भी छिद्रों को नहीं बंद किया जा सकता है. आवाज कहीं से भी दाखिल हो सकती है. आवाज और धूल जाने के लिए हाथी जाने जितनी जगह की जरूरत नहीं. मेरा कमरा घर से बहुत दूर नहीं है. घर से होकर ही कमरे तक जाना होता है. पहले यह कोई नहीं मानता था कि कमरा घर में नहीं है. किसी को भी घर दिखाना होता तो उसे भी सब जोड़कर बताते. लेकिन अब सब मानते हैं. कई बार तो लोग यह भी कह भी देते हैं कि लगता है कि तुम तो घर में रहते ही नहीं हो. फिर मैं बहुत खुश होता हूं कि धीरे-धीरे इस बात का अब सबको यकीन हो रहा है. हां, देखने पर किसी को भी लग सकता है कि कमरा घर में ही है. मैं इस पर विवाद नहीं करता. जब भी बाहर निकलता हूं, यह जोड़ता रहता हूं कि अपने कमरे से कितनी दूरी पर आ गया हूं. जब बहुत दूर चला आता हूं तो वापस लौटने की इच्छा होने लगती है. फिर कुछ कदम पीछे लौट लेता हूं कि जरा-सी सही, लेकिन दूरी कम हो. अगर मैं कुछ मील भर जाता हूं तो पता होता है कि कमरा एक दिन की दूरी पर है. अगर मैं दो-तीन सौ या पांच सौ किलोमीटर तक जाता हूं तो कई दिन लग सकते हैं. सात-आठ सौ किलोमीटर की दूरी हो जाए तो पक्का महीने भर की दूरी पर रहता हूं.

अगर मैं किसी दूसरे ग्रह पर चला जाऊं तो दिमाग अंधेरे से भर जाएगा कि कितने वर्ष की दूरी पर हूं. मुझे तो यह भी नहीं समझ आता कि मैं खाना-खाने और कपड़े खरीदने और फिर से एक घर में रहने के लिए इतनी दूर क्यों जाऊं. लेकिन एक दिन न रहो तो कुछ न कुछ गड़बड़ होती ही है. कमरे में कुछ न कुछ बिगड़ जाता है.

कल दिन बाहर निकला और रात मेज के भीतर से कोई आवाज नहीं आई. मैं रात भर मेज पर कान लगाकर सुनता रहा. मैंने अपनी उंगलियों को उल्टा करके मेज खटखटाया. उस तरह जैसे गणित अध्यापक घनश्याम ओझा सजा देने के लिए मेज से उंगलियों को टकराते थे. लेकिन कहीं से कोई आवाज नहीं. सुबह किसी ने बताया कि तुम्हारी टेबिल में कल स्प्रे कर दिया था. अब आवाज नहीं आएगी.

पांच

घर के पास खजूर का कोई पेड़ नहीं है. मेरी कला की कॉपी में घर के पास खजूर का एक पेड़ जरूर है. किताबों में खजूर और कुआं भी है. कुआं अब कम घरों के पास है. मां को पुकारता हूं, क्या पहले घरों के पास खजूर उगते थे. सुनो खाना हो गया है, तुम खा लो. दिमाग शांत रहेगा. जब तक भात खदबदाता नहीं है, तुम्हारा दिमाग चलता रहता है.

मैं साइकिल निकालकर खजूर का पेड़ तलाशने निकल जाता हूं. खाना आकर खाऊंगा जहां से कहता हूं, वहां से मां को यह सुनाई नहीं देगा. गेट की कुंडली धड़ाक से बंद करने से वह जान जाएंगी कि मैं खाना अभी नहीं खाऊंगा.

साइकिल चलाते हुए दूर तक जाने पर भी खजूर का एक पेड़ नहीं दिखता. मिट्टी के ढूहों से घिरे, ऊंची-ऊंची घास से ढके जेतवन में पुराना नगर छिपा है. अनाथपिंडक और अंगुलिमाल के घर की छत पर खड़े होकर देखो तो खजूर का पेड़ दिखता है. अच्छा यहां है, कहकर बहुत तेज भूख लगती है. तो क्या इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि प्राचीन समय में घरों के पास खजूर के पेड़ होते थे.

यह बात तभी मां और बहिन को बताने की इच्छा होती है. इतनी दूर से तभी बताया जा सकता है जब घर के गेट से कहीं विशाल गेट होता, इन ऊंचे भग्नावशेषों की तरह. उसे खड़काने से पता चलता कि मैं श्रावस्ती चला आया हूं, और अंगुलिमाल के दरवाजे पर खड़ा हूं. अगर मैं पुकारकर कहना चाहूं तो मेरी आवाज इन ढूहों को भी पार नहीं करेगी. मुझसे ज्यादा तो जेतवन की घासों में गायब हुए चरवाहों की आवाज है. वे एक छोर से पुकारते हैं तो दूसरी तरफ भी वैसा ही सुनाई देता है. कहां हय रे. दूसरी तरफ से भी वे जवाब देते हैं आइत हय. तो ठीक-ठीक उस छोर पर भी यही सुनाई देता है आइत हय. पता नहीं कि बुद्ध की आवाज कैसी रही होगी.

चरवाहों की बहुत बंधी आवाज होती है. अगर खाया न हो तो मेरी आवाज मुझ तक ही रह जाती है. क्या फायदा खजूर के इन पेड़ों का. सुनो इनमें फल नहीं आता है. जउनो मौसम मा ठाढ़ हव नाहीं आवत है. तो फल आता है. चिरियन और जमीन खत्तिर. तो तुमने कभी इस पेड़ से खजूर तोड़कर नहीं खाया है. वह दूसरी तरफ आवाज लगाता है चल रे चल. शाम अगर तुरंत भी होना चाहे तो तीन घंटे तो लग ही सकते हैं.

गेट की कुंडी खड़काते ही मां कहेंगी आ गया. यह बात मुझे गेट से सुनाई नहीं देती है. लेकिन जब पिता आते हैं तो मां कहती हैं आ गए. जब बहन आती है तो आ गई. इसलिए संभव है कि वह यह कहें. मां देखो खजूर का पेड़ लाया हूं. बीस रुपए में. सुंदर है. हां. और क्या-क्या था ठेले पर. अमरूद था, आम था, शरीफा था. तितली थी सुंदर-सुंदर. शरीफा कहने से मां को शरीफा खाने की इच्छा होती है. जब शरीफे की तरफ मुंह करके खड़े हो तो बाईं तरफ कुआं था. यह कहते हुए वह बाईं तरफ का हाथ उठाती हैं, और दाहिने हाथ से कहती हैं कि शरीफे का पेड़ यहां था. फिर वह लपक कर वहां से शरीफा तोड़ने की कोशिश करती हैं. कभी-कभी वह हाथ भर की दूरी पर होता था.

‘‘शरीफा मिलता तो मैं खाती.’’

आप न शरीफे के मौसम में हैं और न कुएं के पास खड़ी हैं. अम्मा यह बताओ कि मैं एक कुआं बनवाना चाहता हूं. सिर में उंगलियां फेरकर अम्मा कहती हैं कि तुम्हें भूख लग गई है. मैं खाना गर्म कर देती हूं. खाना खाकर जब मैं लेट जाता हूं तो खजूर और शरीफे का पेड़ एक जैसा लगता है. और मैं सोचता हूं कि यह कहना जल्दबाजी होगी कि प्राचीन समय में घरों के पास खजूर के पेड़ होते थे. बहुत संभव है कि वह शरीफे के पेड़ हों. और उन्हें किन्हीं कारणों से खजूर का पेड़ समझ लिया गया हो. या फिर किताब बनाने वालों के लिए खजूर के पेड़ के बनिस्बत शरीफे का पेड़ बनाना कठिन लगा हो. बहुत संभव है कि किताबों में मिसप्रिंट हो जाता है. अम्मा जमुहाते हुए मुझे पुकारती हैं. वह अपनी जगह से मुझे बुलाती हैं कि आज तुमने एक रोटी कम खाई है. खा लो. वरना ठीक से नींद नहीं आएगी.

छह

घर के भीतर रहते हुए घर नहीं दिखता है. कभी-कभी घर को देखने के लिए भी घर से बाहर निकलता हूं. दिन भर घर के पास धूप भरी रहती है. रात धूप नहीं होती है. जब चांद हुआ तो चांद जब अंधेरा हुआ तो अंधेरा. मरकरी की रोशनी में घर मरियल लगता है. अच्छा यह है कि बिजली के पोल पर बल्ब जल्दी-जल्दी खराब होते हैं. फिर लाख शिकायत करो, लेकिन बिजली वाले जल्द नहीं आते हैं. कभी-कभी दिन की रोशनी में उड़ते हुए पक्षी की परछाईं दीवारों पर पड़ती है. लेकिन दिन में पेड़ की परछाई घर पर नहीं पड़ती. उसके लिए रात का इंतजार करता हूं. दिन में पक्षियों की परछाईं देखकर सोचता हूं कि क्या रात चांद और तारों की परछाईं भी घर पर पड़ सकती है. पड़ती तो घर कितना सुंदर लगता. लगता कि पेड़ की छाया पर जुगनू की छाया जगर-मगर कर रही है. लेकिन ऐसा नहीं होता. तो सोचता हूं कि छत पर पानी भर दूं और उसकी निकासी का रास्ता बंद कर दूं. फिर आसमान को छत तक लाया जा सकता है. जब मां पूछेगी कि रात तुम छत पर क्या तारे तोड़ रहे थे तो जवाब में हंसा जा सकता है.

घर बाहर से कैसा दिखे, इस पर घर में बात होती है. पिता चाहते हैं कि घर का रंग गाढ़ा हो. मां चाहती हैं कि घर का रंग हल्का हो. मुझे यह बात बहुत समझ नहीं आती है. इसलिए मैं चुप रहता हूं. बाहर से घर का किसी रंग में दिखना उस रंग के कपड़े में दिखना है. मां चाहती है कि मेरे कपड़े का रंग हो, लेकिन घर का रंग हल्का हो. मैं हल्के रंग के घर में जब गाढ़े रंग की शर्ट पहनता हूं तो मां खुश रहती है. पिता कहते हैं कि यह अच्छा दिखता है. मुझे घर के रंग से और शर्ट के रंग से बहुत मतलब नहीं है.

पिता कहते हैं कि जरा बाहर से देखना घर कैसा दिखता है. जब मैं कहता हूं कि दिन में जैसा दिखता है, रात में वैसा नहीं दिखता तो वह खीझ जाते हैं. तुम्हें क्या मैं पागल दिखता हूं. पागल तो तुम हो ही. मेरा जीवन नर्क बनाकर… मां कहती हैं. फिर घर की रंगत बदल जाती है.

सात

अम्मा एक कूद कूदीं. हाथ में खुखड़ी लिए वह निशान पर रख ही रही थीं कि पिता आ गए. सबके घर आगे चले गए हैं, पिता ने गरजकर कहा. तुम दौड़कर पकड़ क्यों नहीं लेते, अम्मा ने कहा. यह सुनते ही पिता हांफने लगे और उन्हें अपने बूढ़े होने का एहसास हुआ. कुर्सी पर बैठ गए. मेरी तबियत खराब लग रही है. पैर झुनझुना रहे हैं. बहू जा साग, चावल गरम कर ले. मां ने कहा. पिता ने कहा, खाऊंगा नहीं, सो जाता हूं. मां ने हाथ में खुखड़ी लिए पत्नी को इशारा किया. पत्नी दौड़कर गई और साग-भात ले आई. बहू जरा प्याज भी ले आना, पिता ने कहा. खाना खाने से उनका हांफना कम हो गया. पानी पीने के बाद और हाथ धुलकर वह फिर से बूढ़े नहीं लगने लगे. एक खुखड़ी उठाकर उन्होंने आधे से तोड़ दिया और सूंघने लगे. बहू क्या तुम अपनी अम्मा हो गई हो. तुम भी खुखड़ी खेलती हो. लेकिन खुखड़ी लाया कौन. ये लाए… पत्नी के मुंह से निकल गया. अच्छा तो तुम बाहर से खुखड़ी लेकर आते हो. मैं भुट्टे लेकर आया था, लेकिन खा लेने के बाद वह खुखड़ी में बदल गई है. मैंने कहा. भुट्टे लेकर आया था…  इस मौसम में भुट्टे. जेब लुटाकर आया होगा. नहीं, अपने दोस्त के खेत से लाया है. अम्मा ने कहा. यह दिन भर ऐसे ही घूमता रहता है. तुम्हें किसी दिन गांव ले जाकर छोड़ दूंगा. पिता ने कहा. अम्मा ने कहा, अब उसे छोड़ भी दो. तब तक पत्नी भुट्टे भून लाई. पिता ने भुट्टे चबा लिए. अम्मा से उन्होंने कहा कि दाने मीठे नहीं हैं, लेकिन खाने लायक हैं. एक और मिलेगा. अम्मा ने कपड़े में छिपाकर रखा भुट्टा भी दे दिया. पिता ने उसे भी खा लिया. और एक खुखड़ी तोड़कर फिर से सूंघा. वह स्थिर हो गए थे. उनकी आवाज मीठी और धीमी हो गई थी. उन्होंने खुखड़ियों को लिए-लिए मुझे बुलाया. एक खुखड़ी उठाकर अपने हाथ में लेकर उन्होंने बहुत ध्यान से देखा. तुम सच कहते हो कि भुट्टे खा लेने के बाद खुखड़ी में बदल जाते हैं. फिर उन्होंने खुखड़ी को तोड़ते हुए पूछा, सूंघेगा. हां, मैंने कहा. खुखड़ी के बीच बहुत अच्छी महक थी. मैं काम से जा रहा हूं, पिता ने अम्मा से कहा. यह कहकर वह चले गए. पत्नी सिकुड़कर खड़ी थी और बहन उसका कंधा पीछे से पकड़े हुए थी. पिता के जाने के बाद अम्मा बहुत चिंतित हो गईं. उन्होंने मुझसे कहा, घर को बाहर से देख आओ. पिता गलत नहीं कह रहे होंगे.

मैं दौड़कर बाहर गया. और फिर दौड़कर भीतर आया. सबने कहा क्या हुआ. हर तरफ देखने के आधार पर कहा जा सकता है कि घर वहीं है. पड़ोस के घर भी वहीं है. पीछे के घर भी वहीं हैं. सामने कोई घर नहीं हैं, इसलिए उसके जाने की संभावना पर बात नहीं की जा सकती है. यह सुनते ही अम्मा ठीक हो गईं. बहू मैं दो खाने आगे थी. अम्मा ने मुठ्ठी बंद की और कहा हमरे मुठ्ठी मा काव, कबुली केराव, हमरे घरे कि तोहरे. पत्नी ने अम्मा के बाएं हाथ पर अपना हाथ दे मारा. चना बाएं हाथ में ही था. इस बार पत्नी खुखड़ी लेकर एक कदम और कूद गई थी.

आठ 

घर में सब चीजों की जगह तय है. कुछ ही चीजें इधर-उधर होती हैं. बरसों से देवता एक जगह पर ही कील पर टंगे होकर धुंधले और भुरभुरे हो रहे हैं. कुर्सियां, पलंग बरसों से सब एक ही जगह पर रखे हुए हैं. रसोई घर में सबसे व्यवस्थित जगह है. नमक का डिब्बा वहीं रखा होता है जिसके ठीक बगल में चीनी का डिब्बा होता है. यह जगह वहीं हो सकती है, जहां अम्मा का हाथ सरलता से पहुंच सके. जब मैं अपने हाथ की पहुंच पर डिब्बे रख दूंगा, तब डिब्बे तक पहुंचने के लिए अम्मा को पीढ़े पर खड़ा होना पड़ेगा. यह तय है कि अम्मा को पीढ़े पर खड़ा होकर डिब्बा उतारना अच्छा नहीं लगता है. रसोई में संड़सी अक्सर खो जाती है. लाइटर भी कभी गैस चूल्हे के नीचे से बरामद होता है. कभी उस पर कपड़ा रख होता है. अम्मा हमेशा भूलकर उसे सब्जी की टोकरी में डाल देती हैं, लेकिन वहां कभी नहीं खोजती हैं.

घर में अम्मा कभी-कभी खोती हैं. अम्मा के होने की तरह उनके न होने की जगह तय हैं. जहां वह अनुपस्थित रहती हैं, वहां वैसे ही उनके होने की संभावना नहीं होती है. वह कभी-कभी अचानक छत पर अकेले चली जाती हैं. कभी वह बिना बताए पड़ोस में घूमने चली जाएं तो उस दिन वह खो जाती हैं. फिर हम सब उनको लाइटर की तरह ढूंढ़ने लगते हैं. जब तक वह मिल न जाएं, सब चिंतित रहते हैं. पिता घबराकर स्कूटर की तरफ भागेंगे और कहेंगे कि पीछे की सीट पर ही तो बैठी थीं. कहां गईं. जब तक वह स्कूटर स्टार्ट करके तलाशने जा रहे होंगे, अम्मा रिक्शे से बड़बड़ाते हुए उतरेंगी. तब जाकर पता चलेगा कि अम्मा जब तक सीट पर बैठतीं, पिता आगे चले गए. अम्मा खो जाएं तो मैं हर बार छत की तरफ जाता हूं. छत पर अम्मा होंगी, इसका मुझे भरोसा रहता है, लेकिन अम्मा इस तरह कई महीनों में एक-दो बार खोती हैं. सर्दियों के दिनों में वह उसी जगह पर दिखेंगी, जहां पिछली सर्दियों में थीं. गर्मी के दिन में और बारिश के मौसम में वह खिड़कियों के पास रहेंगी. जब मैं उन्हें नहीं देख रहा होता हूं तो भी घड़ी देखकर बता सकता हूं कि वह घर में कहां होंगी. दुपहर किसी भी मौसम की हो, अम्मा बाहर के कमरे में ही सोती मिलेंगी.

पिता सब मौसम में एक जैसे रहते हैं. वह हर दिन खो जाते हैं. अगर वह घर पर हों तो कभी भी यह हो सकता है कि वह कहीं चले जाएं. पिता की अनुपस्थिति के बारे में कोई नहीं सोचता, अम्मा सोचती हैं. पिता की उपस्थिति के बारे में सोचने पर सबको पिता की नाक बजती हुई सुनाई देती है. अगर यह सोचा जाए कि पिता किस तरह दिखते हैं तो वह या तो खाना खाते दिखेंगे या फाइलें पढ़ते हुए. अगर शाम छह बजे तक वह न लौट आएं तो अम्मा पूरे घर में चलना शुरू कर देती हैं. सात बज जाए तो यह कहना शुरू कर देती हैं कि अब तक तो घर आ जाना चाहिए था. थोड़ी देर और बीत जाए तो वह मुझे बाहर भेज देंगी. जाकर देख आओ कि वह रास्ते पर आते दिख रहे हैं कि नहीं दिख रहे हैं. कई बरसों में मैंने पिता को कभी आते नहीं देखा है. उनके स्कूटर को आता हुआ देखता हूं. पिता मुझे नहीं दिखेंगे, लेकिन मैं दौड़कर कहूंगा कि पिता आ रहे हैं. यह नहीं कहूंगा कि स्कूटर आ रहा है. जब वह और नजदीक आ जाएंगे, तब उनकी आकृति आती हुई दिखेगी. वह नहीं दिखेंगे. स्कूटर की पीली रोशनी के पीछे छिपे रहेंगे. जब वह पूरी तरह दिख जाएंगे तब स्कूटर रोक देंगे, और मुझे देखते ही कहेंगे कि बाहर क्या कर रहे हो. घर में पिता के आते ही अम्मा चश्मा लगाकर कुछ पढ़ने लगेंगी, और ऐसे दिखेंगी जैसे वह घंटों से बैठकर पढ़ रही हों. अम्मा को पढ़ता देखर पिता पिछले शाम की ही बात फिर कहेंगे, दिन की रोशनी में पढ़ा करो, शाम के धुंधलके में नहीं. फिर वह ‘‘काम में फंस गया था’’ कहेंगे. उसके आगे का सब कुछ अम्मा खुद ही बता देंगी और पिता कहेंगे, सच एकदम ऐसे ही हुआ.

बहिन और पत्नी को यह बात समझ नहीं आती है कि जब अम्मा को सब पहले से ही पता है तो वह परेशान होकर घर में चलने क्यों लगती हैं. मुझे हमेशा ही यह लगता है कि यह पिछली ही शाम का लौट आना है या इस शाम में भी अम्मा, पापा, बहिन, पत्नी और मैं सब तय जगह पर हैं. कभी-कभी ही ऐसा होता है कि कोई शाम अलग हो. ऐसा होता है तो अम्मा, बहिन, पत्नी को घर अजीब और तितर-बितर लगता है. अम्मा को शाम अजीब लगती है. मुझे शाम अलग लगती है. शाम के बारे में पिता अलग से नहीं सोचते.

नौ

तुम फेरी वालों को घर के भीतर क्यों बुला लेते हो. अम्मा के यह कहते ही सब एक-एककर कहने लगते हैं. बहिन कहती है इसने उस दिन शहद बेचने वाले को भी भीतर बुला लिया था. पिता कहते हैं कि डाकू भी अगर आएं तो यह उन्हें भी भीतर बुला लेगा. पत्नी कहती है, हां अम्मा.

अम्मा यह बताओ कि यह घर तुमने बनवाया है. रात-रात भर काम होता था. तुम सब तो छोटे थे. तुम्हारे पिता की नौकरी थी. तुम सबको तो मौसी ने संभाला. मैं उतनी-उतनी रात तक काम कराती थी. तब तो यहां एक घर नहीं था. बारिश होती तो तालाब हो जाता था.

अम्मा यह बताओ कि जिन मजदूरों ने यह घर बनाया, तुम उन्हें जानती थीं. धत्त, पागल कहीं का. अब पहले से कहां कोई किसी को जानता है. अम्मा फिर तो तुमने भी इस तरह हमारे घर में अजनबी, अनजान लोगों को दाखिल होने दिया. कोई चोर भी हो सकता था. फिर तो बहुत सारे लोगों को यह पता है कि हमारे घर में कौन-सा कमरा कहां है. छत की सीढ़ी कहां है. अम्मा यह कहते ही चिंतित हो गई थीं. यह तो है. बहिन ने कहा, अम्मा मत बोलना. यह अब पागल करेगा. पत्नी ने कहा कि यह क्या करते हैं. पिता ने कहा इसको कोई काम नहीं है.

अम्मा कहती हैं कि सोच ठीक रहा है. यह कहते हुए अम्मा बहुत सुंदर लगती हैं. देखो, सब तो चोर नहीं होते. लेकिन उनमें से एक था. फिर यह कहते हुए वह वहां से उठती हैं और दूसरी जगह चली जाती हैं. यह देख रहे हो. जब यह दीवार उठ रही थी तो मैं वहां खड़ी थी. यह कहते हुए वह फिर वहां तक चली जाती हैं. तुम ये कमरे में क्या इधर से उधर जा रही हो. ऑफिस की फाइलें बिखर जाएंगी. तुम यह सब समेटकर कहीं और क्यों नहीं चले जाते. सुबह होने में सिर्फ दस घंटे हैं, तुम दफ्तर ही चले जाओ.

‘‘ठीक है चला जाता हूं’’ कहकर पिता फिर से अपनी फाइलें पढ़ने लगते हैं. मां इस बार वहीं से खड़े-खड़े कहती हैं कि उसे मैंने चोरी करते हुए पकड़ लिया. पिता ने सबसे पहले कहा फिर. बहिन ने कहा अरे. पत्नी ने कहा, तब अम्मा. अम्मा यह बीसवीं बार सुना रही थीं इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा. वह इधर से आता और उधर चला जाता. फिर उधर से आता इधर चला जाता. मैंने उसे डांटा. तुम कुछ और नहीं चुरा रहे हो तो समय ही चुरा रहे हो. फिर पिता एक कहानी कहते हैं जो वह सौ बार सुना चुके हैं. बहिन कहती है कि उसकी टीचर समय चुराती है. पत्नी कहती है कि अम्मा ये रात को आपके बक्से से खजूर चुराते हैं. पिता कहते हैं कि इसके पास और कौन-सा काम है ही. अम्मा कुछ नहीं कहती हैं. मुझे अम्मा बहुत सुंदर दिखती हैं.

अच्छा अम्मा जब कुछ बीत जाता है, तब भी वह होता है. अम्मा फिर बताने लगाती हैं जब दादी मरीं तो बहुत दिनों तक यही लगा कि वह मुन्नी-मुन्नी पुकारती रहती हैं. फिर वह बताते-बताते फर्श पर बैठ गईं. और उंगलियों से अपना नैहर फर्श पर उकेरने लगीं. देखो यह ऐसे आंगन था. इस तरफ बरामदा और यहां से आंगन में सीढ़ियां लगी थीं और फिर बरामदा. आंगन गहरा था. बरामदे में बुआ रहती थीं. जब बरामदे में नहीं रहती थीं तो चारपाई के ठीक पीछे की जगह के कमरे में उनकी चारपाई खिसका दी जाती थी. इतने साल बाद भी वह जगह बुआ की है. जब सब इकट्ठा होते हैं तो यही कहते हैं कि बुआ यहीं लेटी रहती थीं. अम्मा ने उंगलियों से फर्श पर उनका घर बना दिया था. बिना एक रेखा खींचे हुए ही वह सबको दिख रहा था. बहिन मां के पास जाकर बैठ गई और उसने फर्श पर बरामदे से छत पर ले जाने वाली सीढ़ी बनाई. पत्नी भी अम्मा के बगल में जाकर बैठ गई, और बताने लगी कि हमारे यहां भी आंगन ऐसा था. लेकिन मेरी दादी बाहर को भीतर से जोड़ने वाले गलियारे के बीच रहती थीं. वह कमरा जैसा था. फिर उसने भी फर्श पर उंगलियों से अपना घर बना दिया. तब तक पिता तकिए पर सिर रखकर सो गए और उनकी नाक बजने लगी.

मैं देखता हूं कि घर में बीत गए का दृश्य है. दीवार उठ रही है. एक मजदूर नीचे से ईंट हुफ्फ करके ऊपर फेंकता है और दूसरा मजदूर वहां लपकता है. राम है राम. फिर दूसरा एक हैं एक. दो हैं दो. दरवाजे बीत गए पेड़ हैं. खिड़कियां बीत गए पेड़ हैं. लकड़ियों से गायब नहीं हुई हैं बढ़इयों की निशानियां. एक जगह उसने खराब रंदा है. पॉलिश के बाद भी यह दिखता है. लगता है कि या तो उसका रंदा खराब हुआ होगा या वह अपने काम से ऊबा रहा होगा. सुबेराती नहीं रहे, लेकिन उनकी लगाए स्विच, लोहे की जालियां, अल्युमिनियम की कुंडियां यह किन जगहों से निकली होंगी. मेरे लिए तो वे अजनबी हैं. यह सोचकर मैं कुंडी को छूता हूं, लेकिन वह एक कुंडी होने के अलावा कुछ और महसूस नहीं होती है. धातु की बनी सब ही चीजें मेरे लिए अजनबी हैं. मैं नहीं जानता कि वे कहां से मिलती होंगी और इस तरह दरवाजों में लगा दी जाती होंगी.
अम्मा, बहिन और पत्नी अभी भी वहीं हैं— फर्श पर रेखाएं खींचते हुए…

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सोमप्रभ के पास एक कवि-मन है. उनके जीवन, व्यवहार और गद्य में यह जाहिर है. वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं और जामिया मिलिया इस्लामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई अधूरी छोड़ चुके हैं. शहरी व्यावहारिकताएं और कपटताएं उन्हें रास नहीं आई हैं. इस वजह वह अपनी ग्रामीण स्थानीयता में अपनी मूल मानवीय संवेदना और सच्चाई के साथ लौट चुके हैं. वह गहरे अध्यवसायी और भ्रमणशील हैं. सिनेमा के जानकार हैं और फोटोग्राफी करना भी पसंद करते हैं. उनसे tosomprabh@gmail.com पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.

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