गद्य ::
शिरीष खरे
‘‘कहाँ जाना है?’’
एक औरत तीन टुकड़ों में बोली, ‘‘बहुत दूर, बेदर मिल, करनाटक।’’
मैंने कहा, ‘‘लौटना कब होगा?’’
जवाब आया, ‘‘बरसात के पहले-पहले।’’
ट्रैक्टर दूर जा रहा है तो मैंने लगभग चिल्लाते हुए पूछा, ‘‘घर पर किसको छोड़ा है?’’
इस बार शायद किसी को कुछ सुनाई नहीं दिया।
किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।
सुबह-सुबह एक ट्रैक्टर से जुड़ी दो ट्रालियों में दर्जन भर मज़दूर बैठे हैं। इन्होंने अपने साथ अनाज, कपड़े, बोरे, बिस्तर, बर्तन, बड़ी-बड़ी पन्नियाँ, टीन की पेटियाँ और रोज़मर्रा का सामान गद्दों से लपेटा हुआ है। बहुत छोटे बच्चे माँओं की गोद में खिलौने लिए सोए हैं। थोड़े बड़े बच्चे दीदियों के कंधों पर लदे हैं। कोने में बकरियों के गले की रस्सियाँ ढीली करते एक बुज़ुर्ग हैं। ट्रालियों के बाहर पैर लटकाए सारे मर्दों के चेहरे पर एक-सा रूखापन है। उनके पीछे औरतें भी चुप हैं। इस सन्नाटे में तेज़ आवाज़ करता ट्रैक्टर चलने को हुआ। लगा, मेरा समय गया। मैं कुछ पूछना चाहता था, लेकिन रह गया।
यादें—25 नवंबर 2007 की हैं। अपने समय से बीते समय में प्रवेश करना कष्टप्रद तो होता है, लेकिन मैं प्रवेश कर रहा हूँ…
सूरज का धुँधला उजाला सड़क के दोनों ओर बिखरा है। इन दिनों यहाँ ये रोज़ के नज़ारे हैं। तड़के चार बजे एक के पीछे एक ऐसी कई ट्रैक्टर-ट्रालियाँ दौड़ पड़ती हैं। ये गुलाबी सर्दी के रात और दिन हैं। इस सर्द समय मेरे दिमाग में अच्छी लोकेशन देख थोड़ी देर पहले ‘काला बाज़ार’ में काली स्वेटर पहने देव आनंद और काला शाल ओढ़े वहीदा रहमान पर फ़िल्माया और मोहम्मद रफ़ी का गाया ‘खोया-खोया चाँद, खुला आसमान, आँखों में सारी रात जाएगी, तुमको भी कैसे नींद आएगी, ओ-हो हो हो…’ याद आया। लेकिन गुलाबी सर्दी के ये रात और दिन मराठवाड़ा के ग्रामीण अंचल के मज़दूरों के लिए हर साल यातनाएँ लेकर आते हैं। इस समय हम मस्सा गाँव के ढाबे पर हैं। और लाचार हैं, कई प्रवासी मज़दूरों को चार बजे की उजाले में एक अँधेरी गर्त में बढ़ते हुए देखने पर।
ब्राजील के बाद भारत सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश है। भारत में महाराष्ट्र चीनी उत्पादन में बहुत आगे रहा है। यह उत्पादन पाँच लाख से अधिक आंतरिक प्रवासी मज़दूरों के बूते टिका है। ये मज़दूर उस्मानाबाद, बीड़, सोलापुर, कोल्हापुर, सांगली और सतारा जिलों से हर साल नवंबर से मई के महीनों तक गन्ने के खेतों में गन्ने काट रहे होते हैं। लेकिन इन मज़दूरों के सपनों में न खोया-खोया चाँद होता है और न मुँह में मिठास घोलने वाली चीनी के दाने। होता है तो दो जून की रोटी के लिए अपने गाँवों से पाँच-छह सौ किलोमीटर दूर का कोई खेत।
सच कहूँ तो मैं यहाँ न आने के लिए प्लेटफ़ॉर्म पर ट्रेन छूट जाने की कामना कर रहा था। अपना ए.सी. डिब्बा पकड़ने की कोशिश में दिल तो चाहता था नाकाम हो जाऊँ। लेकिन, देखा तो पहियों की गति पकड़ने के ठीक पहले चढ़ चुका था और मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से सोलापुर के लिए रात पौने ग्यारह बजे 12115 सिद्धेश्वरी एक्सप्रेस से एक संसार आगे बढ़ चुका था। आख़िर सुबह सात बजे आख़िरी स्टेशन सोलापुर आने तक साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर पहुँच गया। स्टेशन के बाहर एक अनजान संसार। वहाँ सवा सौ किलोमीटर दूर मस्सा से कोई विनायक तौर मुझे लेने के लिए आने वाला था। लेकिन डेढ़ घंटे तक भाई का मोबाइल नेटवर्क से बाहर। फिर भाई ने ही संपर्क साधा। उसने मुझे मुख्य सड़क पर पहचाना। जीप रोककर आगे बाज़ू की सीट पर बैठने को कहा। एकदम सामने बैठने से सड़क पीछे की ओर दौड़ने लगी। कोई ढाई-तीन घंटे में शहर और सवेरे को पीछे छोड़ते हम एक पक्के ढाँचे तक पहुँचे। मुझे कुछ दिन यहीं रुकना था। मैं कुछ दिन यहीं रुका। यहाँ सोने के नाम पर एक सोफ़ा था, बाथरूम के नाम पर बाहर गन्ने का बड़ा खेत और नहाने के नाम पर ठंड के दिनों में नलकूप का ठंडा-ठंडा पानी। मुझे बुख़ार आना तय था। मुझे बुख़ार आया। यह मस्सा में मानव अधिकार कार्यकर्ता बजरंग टाटे के संगठन का कार्यालय था।
मस्सा का नाम आपने पहले कभी नहीं सुना होगा। मैंने ही कहाँ सुना था! यह मराठवाड़ा के कलंब क़स्बे का एक छोटा-सा गाँव है। कलंब उस्मानाबाद ज़िले की तहसील है। उस्मानाबाद सोलापुर, लातूर, अहमदनगर और बीड़ ज़िलों से घिरा है। दक्षिण की तरफ़ कर्नाटक के बेदर और गुलबर्ग शहर हैं। इधर कलंब के उत्तरी भाग में मांजरा नदी बहती है। मांजरा नदी ही उस्मानाबाद और बीड़ जिलों की सीमा तय करती है। यह वाशिरा नाम की एक बड़ी नदी में मिलती है। कलंब मांजरा नदी के किनारे बसा है। यहीं मांजरा बाँध है। कलंब को यूँ तो कपड़ा और कृषि बाज़ार के कारण जाना जाता है, लेकिन इस क़स्बे को प्रतिष्ठा हासिल है तो निजी चीनी मिलों के कारण। इनमें रांजण, हावरगाव और चोराखली गाँव की चीनी मिल प्रमुख हैं। यही वजह है कि यह इलाक़ा राज्य में चीनी उत्पादन का केंद्र है। कहा जाता है कि राज्य में चीनी की तीसेक मिले हैं। इनमें से सात अकेले उस्मानाबाद ज़िले में हैं। उस्मानाबाद के ढोकी में सबसे पहले साल 1982 को तेरणा चीनी मिल स्थापित हुई थी।
उस्मानाबाद से कोई साठ किलोमीटर दूर कलंब तहसील के आस-पास जहाँ हम हैं, वहाँ की हक़ीक़त यह है कि इस समय कई सारे गाँव ख़ाली हो चुके हैं। यहाँ दीवाली मनाने के बाद हज़ारों मज़दूर जोड़े चीनी मिलों के लिए गन्ना काटने के लिए खेत-खेत रवाना हो चुके हैं। यहाँ मज़दूर पति-पत्नी के लिए ‘जोड़ा’ शब्द प्रचलित है। इन जोड़ों में अधिकतर दलित, आदिवासी, बंजारा, घुमक्कड़ और अर्ध-घुमक्कड़ समुदाय से हैं। इनके पास न खेती लायक़ ज़मीन है, न ही कोई अपना धंधा है। गाँव में मज़दूरी का टोटा है। सूखे ने हालात बदतर बना दिए हैं। क्या करें? इसलिए साल के छह-आठ महीने हज़ारों जोड़े अपने घर छोड़ने को मजबूर हैं।
‘‘तो अब वे सीधे मई-जून तक ही लौटेंगे?’’
‘‘चुनाव होते तो दो-एक दिन के लिए बीच में लौटते। उम्मीदवार वोट डलवाने के लिए उन्हें गाँव लाते और वापिस खेत छोड़ देते हैं। अभी कहाँ कोई चुनाव है!’’ मस्सा के ढाबे से कार्यालय दस-बारह मिनट के पैदल रास्ते को बातों से पाटने के लिए मैंने विनायक से सवाल पूछा। एम.ए. पास यह युवक बजरंग टाटे का सहयोगी कार्यकर्ता है।… ‘‘शिरीष भाई, गाँव से बाहर होने के कारण उन्हें पंचायत की किसी योजना का फ़ायदा नहीं मिलने वाला। उनकी बस्तियाँ बदलाव से अछूती ही रह जाएँगी। सबसे ज़्यादा हर्जाना तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भुगतना पड़ेगा। बच्चे गन्ने के खेतों में काम करेंगे तो बताइए पढ़ाई को लेकर कोई उत्साह रहेगा! वहाँ रहने का ठिकाना नहीं, खाने-नहाने को तरस जाएँगे। आप दो-तीन दिन खेत-खेत जाकर देखो, शोषण की कितनी कहानियाँ हैं!’’
मुझे अपना हक़ पता है
फिर कैसे किसी को अपना हक़ यूँ ही निगलने दूँ
हो जाल कितना भी घना
कितना भी शातिर हो बहेलिया
अंत तक लड़ता है चूहा भी
उड़ना नहीं भूलती कोई चिड़िया कभी।
कार्यालय के मुख्य दरवाज़े की सफ़ेद दीवार पर नीले-बड़े अक्षरों में लिखी यह कविता आते-जाते पढ़ लेता हूँ। यह माया शिंदे की हिंदी में लिखी कविता है। मैंने कल बजरंग टाटे के बेटे अमर से पूछा था कि ये माया शिंदे कौन हैं? माध्यमिक शाला में पढ़ रहे अमर बताया था कि माया ताई संगठन की ताक़तवर कार्यकर्ता हैं। उनकी कई कविताएँ लोग बग़ैर पढ़े सुना सकते हैं। वह मंगरूल नाम के गाँव में रहती हैं। मैं दो-तीन क्लिक दबाकर कविता को अपने कैमरे में लेता हूँ। फिर भीतर घुसकर सीधे सोफ़े पर गिर जाता हूँ। कुछ घंटे के लिए नींद का झोंका आया और गया। मैंने उठकर देखा तो पास की कुर्सी पर काले पैंट और सफ़ेद शर्ट में एक आदमी को पाया। यह बजरंग टाटे हैं। मैं यहाँ इन्हीं का मेहमान हूँ।
मैंने इनसे गन्ना मज़दूरों की हालत के बारे में पछूना शुरू किया। इन्होंने विनायक से कोई फ़ाइल लाने को कहा। फ़ाइल में बीते दिनों कलंब तहसील के उनतीस गाँवों में किए गए सर्वे का ब्यौरा दर्ज है। काग़ज़ों पर हाथ से लिखे कुछ अंक हैं। उन पर अँगुलियाँ फिराकर बजरंग टाटे बताते हैं कि उनतीस गाँव में तीन सौ बत्तीस परिवारों के पास ज़मीन नहीं है। इनमें अड़सठ दलित हैं। ये परिवार गन्ना काटने के लिए हर साल पलायन करते हैं। इसके कारण दो सौ तेरह बच्चे स्कूलों से ड्राप-आउट हुए हैं।
मस्सा में यह मेरा दूसरा दिन है। मैं उनसे आज कोई एक गाँव चलने के लिए कहता हूँ। वह मुझे पहले नहाने और नाश्ता करने के लिए कहते हैं। इसके बाद मंगरूल गाँव चलने के लिए तैयार रहने को कहते हैं। मंगरूल तो माया शिंदे का गाँव है!
मंगरूल मस्सा से तीस किलोमीटर दूर है। हम तीन-चार लोग जीप से मंगरूल जाने के लिए निकले। रास्ते में बस्तियाँ और पगडंडियाँ ख़ाली-ख़ाली थीं। दीवाली के तुरंत बाद रौनक ग़ायब थी। दरवाज़े बंद थे। इनके पर लटके ताले दिमाग़ पर भारी पड़ रहे थे। ये कब खुलेंगे! उनके आने तक आँगन में घास कितनी बढ़ जाएगी! पर सूने मकान अपना हाल ख़ुद बता रहे थे। इस बारे में कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं! हम माया शिंदे के कच्चे मकान तक पहुँचे। वहाँ उनके अलावा कुछ कार्यकर्ता और थे। माया शिंदे के कहने पर सभी आठ-दस लोग आँगन में दरी बिछाकर गोलाकर बैठ गए। बात शुरू हुई तो माया शिंदे ने इसी साल की एक घटना बताई। बताया कि भारत सोनटके नाम के एक आदमी ने पैंतीस हज़ार रुपए पेशगी लेकर छह महीने गन्ने के खेतों में काम करने का अनुबंध किया था। बाद में पता चला उसे टीबी है। वह पुणे में अपना इलाज करवा रहा है, यह ख़बर जब मुक़ादम को मालूम हुई तो वह भारत के घर आया। पत्नी तो भारत के साथ पुणे में थी, इसलिए पचास साल से अधिक उम्र के माता-पिता को जबरन काम कराने ले गया। उनके साथ दो छोटी बच्चियाँ भी गई हैं।
‘‘यह मुक़ादम कौन होता है?’’
चर्चा में मालूम हुआ कि यहाँ की हर मिल पच्चीस से पचास किलोमीटर तक खेतों से गन्ना कटवाना चाहती हैं। इसके लिए मुक़ादम की मदद ली जाती है। यहाँ मुक़ादम को दूसरे अर्थों में दलाल या बिचौलिया कह सकते हैं। मिल कमेटी पाँच से दस लाख रुपए देकर मुक़ादम को ठेका देती है। मुक़ादम बारह से बीस जोड़ों को छह से आठ महीने तक काम कराने की गारंटी लेता है। फिर वह इलाक़े के दर्जनों जोड़ों से संपर्क करता है। आमतौर पर मुक़ादम ऊँची जाति का दबंग आदमी होता है। वह हर एक जोड़े को तीस से चालीस हज़ार रुपए देकर अनुबंधित करता है। इस तरह, एक-एक मिल में दो-ढाई सौ मुक़ादम और उनसे ढाई-तीन हजार जोड़े जुड़ जाते हैं।
‘‘मुक़ादम और जोड़ों के बीच किस तरह का रिश्ता होता है?’’
एक कार्यकर्ता बालाजी मुले बता रहे हैं कि दोनों एक-दूसरे को अच्छे-से जानते हैं। जब मुक़ादम को काम की तारीखों की सूचना मिलती है तो जोड़े जमा कराने और उन्हें दूसरे इलाक़ों तक ले जाने के लिए बहुत कम समय बचता है। इस दबाव में कोई मुक़ादम रियायत नहीं देना चाहता। कई बार मुक़ादम का ठेका किसी दूर इलाक़े की मिल से होता है। इसलिए यहाँ के जोड़े कई सौ किलोमीटर दूर कर्नाटक के बेदर इलाक़ों तक जाते हैं। इसी तरह, वहाँ के जोड़े इस इलाक़े में आ जाते हैं।
‘‘मुक़ादम और जोड़ों के बीच झगड़े होते हैं?’’
इस पर हमारे साथ आए बाभल गाँव के शिवाजी बाघमारे ने अपने यहाँ की घटना सुनाई। वह बताते हैं कि बीते साल गन्ने की पैदावार ज़्यादा हुई थी। इसलिए कई मुक़ादम ने काम की मियाद पूरी होने के बावजूद काम कराया। इस बात पर परभनी ज़िले के दस जोड़ों की मुक़ादम के साथ अनबन हो गई। एक रात उन जोड़ों ने खेतों में बनाई अपनी अस्थायी बस्तियों को तोड़कर बिना बताए टेंपो से भागने की कोशिश की, लेकिन तीन किलोमीटर दूर पकड़े गए। मुक़ादम के लोगों ने उन्हें बहुत मारा-पीटा।
‘‘खेतों में अस्थायी बस्तियाँ किस तरह की होती हैं?’’
बजरंग टाटे बताते हैं कि संगठन ने गए साल कुछ बस्तियों में बच्चों की स्थिति पर अध्ययन कराया था। इसमें सभी जगहों से सामने आईं कुछ समस्याएँ एक समान थीं। जैसे बच्चों को पर्याप्त और समय पर भोजन नहीं मिलता। वे सर्दी के मौसम में बीमार पड़ते हैं। गन्ने काटते समय धारदार औज़ार से घायल हो जाते हैं। साँप काट लेता है। बावड़ियों में गिर जाते हैं। बिजली के तारों से करंट लग जाता है। कुल मिलाकर, जीने के मौक़े बहुत कम होते हैं और दुर्घटना की अनिश्चितता हर समय रहती है। ऐसे खेतों से गाँव ही बहुत दूर होते है तो सरकारी अस्पताल और दूर होते हैं। दस-पंद्रह किलोमीटर दूर तक। इमरजेंसी में अनहोनी का डर रहता है। कई बार तो अनहोनी हो ही जाती है। इसके अलावा गन्ने के खेतों में महिला मज़दूरों का यौन-शोषण एक आम बात है। वापिस मस्सा चलकर देखिए, ऐसी कई सारी ख़बरों की कतरनें हमारे पास हैं।
मेरे मन में कई जिज्ञासाएँ थीं और इनके पास उत्तर। साथ दुपहर का भोजन और दीवाली के बाद बचे लड्डू। बातें कुछ घंटे चलीं। और कुछ घंटे चल सकती थीं, लेकिन सर्द दिन की छोटी दुपहर पर शाम जल्दी चढ़ गई। फिर हम सब वहाँ से मस्सा अपनी जगह लौट आए।
तीसरे दिन मुझे मस्सा से निकलने में देर हो गई। अच्छी बात यह रही कि हम बजरंग टाटे के घर समय से पहले भोजन कर चुके थे। भरे पेट दुपहर कि किसी समय चोराखली की तरफ़ निकले। कोई तीस-चालीस मिनट बाद विनायक ने चोराखली के धाराशिव चीनी मिल के सामने मोटर साइकिल रोकी। यह छह-सात साल पुरानी एक बड़ी मिल है। मिल के इर्द-गिर्द कई जोड़े दिखाई देने लगे। ये जोड़े हमारे लिए मानचित्र का काम करने लगे। मैंने लपक कर बात करनी चाही तो विनायक ने मना किया। वह कोई विवाद नहीं चाहता था। हम मोटर साइकिल से ही इधर-उधर घूमते रहे। देखा मिल के किनारे इनकी कुछ बस्तियाँ बन चुकी हैं। लेकिन ये अस्थायी हैं। ये पंद्रह-बीस दिन से ज़्यादा यहाँ नहीं रुक सकते। जल्द ही इन्हें छोटे-छोटे समूहों में बाँटकर अलग-अलग गाँव के खेतों में भेजा जाएगा। फिर थोड़े-थोड़े दिनों में इनके खेत बदलेंगे तो बस्तियाँ बनतीं और टूटतीं रहेंगी।
हमने पता किया कि यहाँ से खेडकी गाँव के पास एक खेत है। वहाँ ऐसी ही बस्ती बन चुकी है। हम पच्चीस किलोमीटर दूर सिर पर सूरज की आँच सेंकते खेडकी गाँव और फिर आढ़ी-तिरछी मेढ़ों से खेत तक आ पहुँचे। कोई चार एकड़ का ख़ासा बड़ा खेत है। खेत का परिदृश्य ऐसा जो इस समय मराठवाड़ा के किसी भी खेत का हो सकता है। बस्ती के नाम पर चौदह झुग्गियाँ तनी हैं। झुग्गी और बस्ती जैसे शब्द सुनने में भले ही अच्छे लगें, किंतु आँखों के सामने हर एक ढाँचा शोषण की कहानी को विस्तार देता दिखा। नीली पन्नियों, कपड़ों के कई रंग-बिरंगे चिथड़े और लकड़ियों के सहारे बँधी झुग्गी उड़ न जाए, इसलिए इनके ऊपर गन्ने के ढेर बाँध लाद दिए। झुग्गी के भीतर की जगह को यदि कमरा कहें तो सबके लिए एक ही कमरा है। पूरी गृहस्थी लिए यह इसी कमरे में सोते हैं, जहाँ सबके लिए एक साथ पैर पसारने की भी गुंजाइश नहीं। एक झुग्गी दूसरे से बहुत दूर-दूर। ऊबड़-खाबड़ खेत में बच्चों के लिए खेल का मैदान तो बहुत दूर आने-जाने के लिए गली भी तैयार नहीं है। यह सब देख पहला सवाल यही कि लोग इस मटमैली दुनिया में रहते कैसे हैं! लेकिन ये रहते हैं। स्त्रियाँ खुले में नहाती हैं। खुले आसमान के नीचे खाना पकाती हैं। बच्चे पास के गाँव से पीने का पानी लाते हैं। बिजली के तार इस खेत तक नहीं पहुँचे हैं। शायद इनके पास टॉर्चें होंगी! सबकी सर्द रातें अँधेरे में कटती होंगी।
सुबह साढ़े आठ बजे ही से सबके हाथों में कोयना होता है। कोयना लोहे का धारदार हथियार जिससे गन्ना काटा जाता है। मज़दूर गन्ने की तरफ़ झुक कर पहले उसकी जड़ें काटते हैं और फिर उसी को दो भागों में काटते हुए पीछे फेंकते हैं। गन्ना काटना हँसी-खेल नहीं होता। एक के बाद एक दूसरे, तीसरे, चौथे गन्ने की जड़ों पर पूरी ताक़त से लगातार प्रहार करते रहना होता है। साँझ सात बजे तक गन्ने काटने की आवाज़ें आती रहती हैं। पीछे स्त्रियाँ गन्ने बाँधतीं और फिर इन्हें सिर पर लादे ट्राली तक पहुँचाती हैं। इस ट्राली पर लोहे की लंबी नसेनी लगी है जिस पर बारी-बारी से चढ़कर मज़दूर बहुत ऊँचाई तक गन्ने लादे रहे होते हैं।
‘‘दिन भर में एक जोड़ा कितने गन्ने काटता है?’’
दो सौ किलो वजन तक गन्ने काटता है। महीनों तक इनकी यही दिनचर्या है। एक ही काम को करते हुए इनके कंधे कितने दुखते होंगे? लेकिन यह पूछने वाला यहाँ है कौन! हो सकता है दर्द दूर करने के लिए यह कोई दवा लेते हो। जैसे मैंने बुख़ार की दवा ली है। मिलों से खेतों तक ट्रैक्टर-ट्रालियों का आना देर रात तक चलता रहता है। कई बार कुछ बच्चे भी इससे जुड़े कामों में शामिल हो जाते हैं। ट्रैक्टर की ड्राइविंग सीट पर किसी ने एक छोटा बच्चा बैठा दिया है। वह देर से रो रहा है, लेकिन किसी का ध्यान उसकी तरफ़ नहीं है।
छह से चौदह साल की कुछ बच्चियाँ दूसरे के घरों में सफ़ाई करने गाँव जाती हैं। इस समय इशाका गोरे (परिवर्तित) नाम की बच्ची खेत पर है। उसने बताया वह तीसरे में है। वह ढाई सौ किलोमीटर दूर कराठ शहर के नज़दीक के किसी गाँव से अपने परिवार के साथ यहाँ आई है। याविक इसके पिता का नाम है। मैंने कुछ मज़दूरों के बीच याविक को ढूँढ़ा। उनसे बातचीत की। पूछा कि परीक्षा कब होगी? कहीं ऐसा न हो गाँव पहुँचते ही गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाएँ? याविक ने एक पल सोचने पर अपना समय ख़र्च नहीं किया। गन्ना काटते बड़ी लापरवाही से कहा, ‘‘हो जाएँ तो ठीक, न हो जाएँ तो ठीक। चार-पाँच साल में शादी करनी है, फिर वह अपना जोड़ा देखे।’’ यहाँ ज़्यादातर लोग कम उम्र में शादी करने को ठीक इसलिए समझते हैं कि परिवार में जितने ज़्यादा जोड़े होंगे आमदनी उतनी ज़्यादा होगी। इसलिए ज़्यादातर रिश्तेदारियाँ काम की जगह इन खेतों में ही हो जाती हैं। इस तरह, बाल-विवाह की प्रथा मेरे सामने एक अलग रूप में उजागर होती है।
‘‘शिकारी आता है, जाल फैलाता है, दाने का लोभ दिखाता है, हमें जाल में नहीं फँसना चाहिए…’’ बचपन से याद कविता की ये चार पंक्तियाँ मनन कर रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि मराठवाड़ा में शोषण का यह जाल फैला ही नहीं बहुत ज़्यादा कसा हुआ है। यहाँ कि चिड़ियाएँ नहीं जानतीं कि वे जाल के अंदर हैं या बाहर। चारों तरफ शिकारियों का बड़ा गिरोह काम करता है। इसलिए उनके शिकार बड़ी सहजता से हर साल इन खेतों तक पहुँच जाते हैं।
‘‘दो साल पहले राजंणी के पास एक खेत में मेरी बीवी मर गई। औरतों ने पर्दा लगाकर बच्चा गिराना चाहा था, पर बच्चे के साथ वह वहीं मर गई।’’ राक्षसवाड़ी निवासी सुहास मोहते की बात सुन मैं सन्न रह गया। वह याद करते घबराने लगे। इतने पर भी क्या कुछ बचता है?
‘‘क्या बचेगा!’’ गनपत ग़ुस्से में आ गए। ‘‘पेट के लिए काम करता है, पेट भी नहीं भरता। हमको सब अच्छा देगा तो हम इधर क्यूँ रहेगा! अपने गाँव रहेगा। गाँव में सरकार-वरकार कुछ है ही नहीं।’’ अपनी गोद में सफ़ेद बिल्ली लिए कुछ देर के लिए सुस्ताने बैठीं शोभायनी क़स्बे की चिंता अपने जवान हो रहे अपने दो बच्चों को लेकर है। उसे लगता है कि उसके बच्चे गाँव के बच्चों से अलग हो रहे हैं। कैसे? ‘‘कभी तो बहुत ज़्यादा चिड़चिड़ाते हैं, कभी दिन-दिन भर चुप रहते हैं। खेलने-कूदने के दिनों में काम कर रहे हैं। पास होकर भी दूर हो रहे हैं। मन करता है कुछ दिन के लिए गाँव चले जाएँ, मगर नहीं जा सकते।’’ सर्दी से गर्मियों के अंतराल में कोई दो सौ दिन ये अपने अपने घर लौटने की सोचने के लिए अभिशप्त हैं।
रस्सी पर सूख रहे कपड़ों के नीचे मिट्टी में अँगुलियों से कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें खींचकर बच्चे कंकड़ की गोटियों से एक खेल खेल रहे हैं।
मैं भूल जाता हूँ, मेरे भीतर मेरे देहात का घर है जो साथ-साथ घूमता है, और अपने बचपन के भीतर और बाहर कहीं भी किसी भी चीज़ में प्रकट हो जाता है, जैसे इस समय मेरे सामने मेरे घर की चौखट दिखाई देने लगी है, जिसकी कई खिड़कियों से इशाका, याविक, सुहास, गनपत सरीखे कई अलग-अलग चेहरे दिखाई देने लगे हैं। कल हो सकता है कि मैं इनके नाम भूल जाऊँ, लेकिन हर एक का चेहरा हमेशा याद रहेगा। सबके दुख-दर्द एक-से। इनके नाम पूछने का अब कोई मतलब नहीं रह गया।
एक महिला और हैं जिनका बच्चा गाँव में आठवीं में पढ़ रहा है। गर्मियों में गाँव लौटेंगी तो मिलेंगी। इन्हें लगता है कि एक दिन उसकी मेहनत काम आएगी। इन्हें भरोसा है कि पढ़ाई इज़्ज़त और पैसा दिला सकती है। बच्चा पढ़ गया तो इनकी तरह गन्ना न काटेगा। ऐसा कहकर ये खुलकर हँसी तो मुझे आश्चर्य हुआ। आश्चर्य इसलिए कि इसके पहले तक यहाँ मुझसे बात करते हुए कोई खुलकर नहीं हँसा था, या हो सकता है कि मुझ अजनबी को लेकर ज़्यादा ही सतर्क रहा हो।
शाम के समय एक लड़की बता रही है कि अगली बार वह गाँव नहीं छोड़ेगी, क्योंकि दसवीं बोर्ड की परीक्षा होती है। माँ बाज़ू में खाना बना रही है। लड़की बता रही है कि उसे रोज़ स्कूल जाना पड़ेगा। पढ़ना पढ़ेगा तो ही पास हो पाएगी। माँ कह रही है कि वह नहीं चाहती, वह गाँव में अकेली रहे। लड़की सोलह की हो गई है। दुबली-पतली माँ की उम्र चालीस पार लगती है। लड़की बता रही है कि उसे अपने बाबा का सपना सच करना है। बाबा मास्टर बनना चाहते थे। बाबा अब इस दुनिया में नहीं रहे। माँ कह रही है कि इस जगह खाना नहीं पक सकता है। गाँव से मिट्टी का तेल लाई तो भी इस जगह इस खेत में आग नहीं जलती, धुआँ-धुआँ हो रहा है। चूल्हे के नाम पर तीन पत्थर हैं। लड़की एक और पत्थर पर पैर रख आग फूँक रही है। बता रही है कि वह गाँव नहीं भूलती। वहाँ चहल-पहल यहाँ सन्नाटा है। दूर-दूर तक कोई मकान नहीं दिखता। रात को बिजली नहीं। अँधेरे में डर लगता है। माँ कहती है कि इसमें डरने की क्या बात है! वह तो होश सँभालते ही खेतों में गन्ने काट रही है। खेत में ही आदमी तय हो गया। शादी हो गई। मास्टर का कभी मुँह नहीं देखा था। मास्टर बनने वाला आदमी मिला। कुछ पढ़ा-लिखा था। साथ रहना चाहा था, पर गन्ने काटते-काटते एक दिन मर गया। क़र्ज़ पहले ले लिया था। लड़की सब जानती है। वह कह रही है कि ऐसा नहीं होना था।
ऐसा नहीं होना था, पर ऐसा हो रहा है। आत्महत्या के लिए कुख्यात मराठवाड़ा के खेतों में, जहाँ गन्ने के खेतों में शोषण की पैदावार पर किसी का ध्यान नहीं है। दुखों के भूगोल में कोई यह नहीं जानता कि खाना किधर, रहना किधर, जाना किधर। माँ कहीं, बच्चा कहीं और बाबा कहीं।
‘‘मैंने बारहवीं में पढ़ाई छोड़ दी और घर छोड़ दिया। मुझे याद है किस तरह मेरी माँ खेतों में काम करती थी, किस तरह वह चारा जमा करती थी, पर एक दिन मैंने देखा खेत का मालिक मेरी माँ को बुरी तरह पीट रहा था। मैं वहाँ से भागा और देर तक भागता ही रहा। भागते-भागते मेरा दम फूल रहा था। फिर भी मैं रुकने का नाम नहीं ले रहा था। मेरे भीतर का लावा फूटता ही जा रहा था…।’’ बजरंग टाटे के इन शब्दों में एक आदमी की नहीं पूरे समुदाय की आग धधक रही थी। मांग, दलित समुदाय से आने वाले बजरंग टाटे ने साल 1989 में अपमान के ख़िलाफ़ अलगाव का फ़ैसला किया। तब से ये सदियों से दमन के शिकार लोगों को एकजुट कर रहे हैं। गाँव-गाँव में ज़मीन के अधिकार के लिए आंदोलन करने पर कई बार जेल जा चुके हैं। इनके दिल-दिमाग़ में श्रम के प्रति गहरी आस्था है।
कल शाम विनायक के साथ खेतों से लौटते हुए मेरे बुखार का ताप चढ़ और ठंड का पारा गिर रहा था। दवा से कुछ आराम मिला। नींद में दो-एक बार मैं मज़दूरों को मुड़-मुड़कर देख रहा था। मुझे कुछ बातों के फिसलने का मलाल था। मैं सामान्य होने के लिए एक दिन चाहता था, लेकिन घड़ी के काँटे दिमाग़ पर चलते सुनाई देने लगे। दस-सवा दस बजे की रोशनी में मैंने ठहराव की विरुद्ध एक कार्रवाई की और कंबलों को अपने शरीर से दूर फेंक सोफ़े से उठ खड़ा हुआ। तैयार होकर बजरंग टाटे के साथ जीप में सवार हो गया। जीप में इनकी कहानी में उपस्थित होकर पूरी शांति से सुन रहा हूँ। आस-पास के दृश्य अब बासी पड़ गए हैं। कोई तीस किलोमीटर बाद पहिए की गति भी मंद पड़ गई। हम दोनों कलंब की क़स्बाई हवाओं में प्रवेश कर गए।
‘‘हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम’’ देने के लिए सरकार ने एक साल पहले मनरेगा योजना लागू की थी। योजना की सच्चाई जानने हम कलंब विकासखंड के कार्यालय पहुँचे। यहाँ पंचायत विभाग के विस्तारी अधिकारी बसंत बाघमारे मिले। इन्होंने यह तो बताया की पूरे विकासखंड में नब्बे गाँव हैं, जहाँ पचास हज़ार से ज़्यादा मज़दूर हैं, किंतु कितने गाँव में कुल कितने काम चालू हुए हैं और कितने लोगों ने काम माँगा है तो इस बारे में ज़्यादा नहीं बता सके। मज़दूरों के भुगतान का सवाल बेमानी हो गया था। मैंने निष्क्रियता के बारे में उनसे पूछा। उन्होंने इसके लिए काग़ज़ी औपचारिकताओं को बड़ी वजह बताया। लेकिन बजरंग टाटे ने उन्हें दूसरी बात बताई। उन्होंने बताया कि स्थानीय पंचायतों में ऊँची जातियों का राज है। यह खेती का मौसम है। ऊँची जाति वालों को अपने खेतों में काम करने के लिए सस्ते मज़दूर चाहिए। यदि मज़दूर ऐसी योजना के बारे में जागरूक हो गए तो उनका काम प्रभावित होगा, इसलिए मनरेगा को जानबूझकर असफल बनाया जा रहा है।
पुनश्च :
क्या हमारा सिस्टम मज़दूर को नागरिक बनाने से रोकता है।
जिस ज़मीन से तीन मुख्यमंत्री, दो उप मुख्यमंत्री, दो केंद्रीय गृहमंत्री और एक लोकसभा का सभापति सत्ता के गलियारे तक पहुँचे उस ज़मीन पर संपन्नता की कल्पना की जा सकती है, लेकिन मराठवाड़ा की सच्चाई यह है कि गन्ना मज़दूरों का इस्तेमाल ग़ुलामों की तरह किया जा रहा है। चीनी मिलों को ‘मीठा’ देने वाले गन्ना मज़दूर एक-एक निवाले को मोहताज़ हैं। इसी के समानांतर इसी मराठवाड़ा में कई और कहानियाँ ग़रीबी, सूखा, किसान आत्महत्या, भूख, पलायन और जातीय संघर्षों से भरी पड़ी हैं। आज़ादी के कुछ समय बाद तक यह इलाक़ा निज़ाम की रियासत का हिस्सा था। उस्मानाबाद का नाम हैदराबाद के आख़िरी शासक मीर उस्मान अली खान के नाम पर ही है। आज़ादी के बाद से पश्चिम महाराष्ट्र की तुलना में शैक्षणिक तौर पर यह इलाक़ा पिछड़ा ही रहा है। इसका सीधा असर रोज़ी-रोटी पर पड़ा है।
चीनी उद्योग यहाँ रोज़ी-रोटी का बड़ा ज़रिया है, इसलिए छह से आठ महीने बड़ी तादाद में मज़दूर गन्ने के खेतों में जबरन बेघरों का जीवन जीते हैं। एक अनुमान है कि मराठवाड़ा में एक लाख से ज्यादा मज़दूर गन्ना काटने के लिए गाँव छोड़ने पर मजबूर हैं। ये परिवार एक जगह से कई किलोमीटर दूर तक बारंबार स्थानांतरित होते रहते हैं। ऐसे लोग पहले ही बिचौलियों के क़र्ज़ में डूबे होते हैं। जब महीनों बाद वह लौटकर आते हैं तो उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा काम के दौरान ही ख़र्च हो चुका होता है। खाद्य सुरक्षा के अभाव में उनके पास जीने का दूसरा कोई चारा नहीं बचता है, इसलिए वे शोषण का आसान शिकार हो रहे हैं। इतने लंबे दिनों का पलायन विशेष तौर पर बच्चों के लिहाज़ से प्रतिकूल होता है। उनके मन पर घर, खेत, नदी, स्कूल और दोस्तों से बिछड़ने भावनात्मक आघात होता है।
मराठवाड़ा में एक ताक़तवर चीनी लॉबी काम करती है। ‘मीठा के संकट’ से उबरने के नाम पर सरकार चीनी मिलों को हज़ारों करोड़ रुपए के विशेष पैकेज देती है। वहीं गन्ना काटने वाले मज़दूरों की झोली ख़ाली ही रहती है। संगठन की कमी गन्ना मज़दूरों की उपेक्षा की बड़ी वजह है। चार पैसा पाने का जाल इन्हें असंगठित बनाए रखता है। इसके अलावा ये अलग-अलग खेतों और छोटे-छोटे समूहों में रहते हैं। लिहाज़ा, अपनी तरह काम के चरित्र से जुड़े दूसरे मज़दूरों से कटे रहते हैं।
कहा जाता है कि चीनी लॉबी के भीतर एक ऐसी प्रणाली है जो व्यवस्थित तरीक़े से वंचित समुदायों को उनके अधिकारों से दूर रखती है। महाराष्ट्र एक प्रगतिशील राज्य माना जाता है, बावजूद इसके विशेष तौर पर मराठवाड़ा मंं कई तरह की असमानताएँ हैं। मराठवाड़ा में एक चौथाई आबादी दलित और आदिवासियों की है, लेकिन वे महज़ सत्रह फ़ीसदी कृषि भूमि पर नियंत्रण रखते हैं। इसमें से भी इस तबके के सत्तासी फ़ीसदी छोटे और सीमांत किसान हैं। यहाँ ज़मीन उत्पादन की मुख्य ज़रिया है। ज़मीनों पर मुख्य रूप से आज भी उच्च जातियों का प्रभुत्व है। इन जातियों पर वंचित-भूमिहीन तबके की बड़ी आबादी निर्भर है, लेकिन इसमें भी न्यूनतम आजीविका की कोई गांरटी नहीं। फिर सूखे ने रोज़ी-रोटी के परंपरागत विकल्पों पर बुरा प्रभाव डाला है। ऐसे में मनरेगा जैसी योजनाएँ फ़ौरी राहत का काम कर सकती थीं, लेकिन वे रोज़गार की गांरटी नहीं दे पा रही हैं।
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शिरीष खरे सुपरिचित पत्रकार और हिंदी लेखक हैं। डेढ़ दशक की पत्रकारिता में उन्होंने दिल्ली, भोपाल, जयपुर, रायपुर और मुंबई जैसी राजधानियों में रहकर काम किया है। इस दौरान प्रिंट मीडिया की मुख्यधारा के भीतर-बाहर रहते हुए उन्होंने ख़ुद को प्राय: ग्रामीण पत्रकारिता पर एकाग्र किया और इस इलाक़े में उत्कृष्ट रिर्पोटिंग के लिए समय-समय सम्मानित भी हुए। वह पुणे में रहते हैं। उनसे shirish2410@gmail.com पर बात की जा सकती है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 21वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।