कविताएँ ::
अरुण आदित्य
नक़्शे में अवध
हर जगह हैं वधिक
हर जगह वध
दुनिया के नक़्शे में
ढूँढ़ता फिरता हूँ अवध।
अवध में अ
मैं अवध का ‘अ’ हूँ
अकेला स्वर
तीन वर्णों में एक तिहाई
बाक़ी जो दो तिहाई हैं
कहने को तो वे भी मेरे भाई हैं।
अवध में अधिकृति
छोटा-सा ‘अ’ हूँ
व और ध के साथ
अवध में रहता हूँ
वधिक को धिक् कहता हूँ
व और ध कहते हैं—
अधिकृति से अधिक कहता हूँ।
मान-अपमान
अपमान का ‘अ’ हूँ
पड़ोसी व और ध कहते हैं
अपमान में भी एक मान है
जैसे असमान में भी एक मान है
जैसे सामान में भी एक मान है
जैसे मुसलमान में भी एक मान है।
अ व ध संवाद
इतने हुलसे हुए
कहाँ जा रहे हो अ?
आ से मिलने जा रहा हूँ
इतने झुलसे हुए
कहाँ से आ रहे हो अ?
आ से मिलकर आ रहा हूँ
व और ध पूछते हैं
‘आ अर्थात् आग?’
अ बुदबुदाता है—
‘आग नहीं
आत्म-जल
जिसे पीने हुलस कर जाता हूँ
और उसके भाप-ताप से
झुलस कर वापस आता हूँ ।’
देय-श्रेय
अ तुम्हारी आँख के अश्रु कहाँ गए
कुछ बोलते क्यों नहीं अ
तुम्हारे पुत्र का कर दिया व ध
अभक्ष्य भक्षण के अनृत संदेह में
तुम नहीं रोए
तुम्हें रोते हुए देखने के हठ में
तुम्हारा घर तक गिरा दिया
पर नहीं गिरा एक बूँद आँसू
पीड़ा का लहराता सागर
पी गए तुम्हारे कुटिल चक्षु
खुल चुका है तुम्हारा षड्यंत्र
कि क्यों छिपाते हो अपने अश्रु
कि क्या है तुम्हारा धूर्त-ध्येय
कि तुम्हारे अश्रुओं का
ले न लें हम श्रेय
कि अवध को पता न चले
हमारा महान देय।
अवध की रात
राम का बचपन
अवध की सुबह है
चौदह वर्ष का वनवास
दीर्घ दुपहर उदास
जानकी का जाना
अवध की शाम है
फिर दुख भरी रात
जिसमें मात्र प्रतीक्षा है
अंतहीन अविराम
कब आएँगे राम?
भव्य मंदिर
दिव्य विग्रह
आराधन-पूजन-अर्चन गहन
कितने भक्त
कितने संत-महंत
किंतु कहाँ हुआ
प्रतीक्षा का अंत
न आए राम
न आया प्रात
अनंत में फैली है
अवध की रात।
सरयू की उदासी
इतनी भीड़ है
इतनी भक्ति है
इतनी प्रार्थनाएँ हैं
इतना उल्लास है
बस सरयू उदास है
कि याद आ गया है वह पल
जब उसके शांत अंतस्तल में
टपका था एक बूँद दृगजल
विह्वल हो गया था सारा जल
काँपती लहरों में किस तरह
धीरे-धीरे समा गए थे
पियाहीन अशांत
राजनीति-क्लांत
व्यथित-मन सीताकांत।
सरयू का स्वप्न
क्षेम की नदी थी
भक्तों की भीड़ ने
बना दी नेम की नदी
बनना चाहती थी प्रेम की नदी
सरयू के स्वप्न को
दूर से ही प्रणाम करता है प्रेम
जहाँ होगा इतना नेम
कैसे रह पाएगा प्रेम।
अवध-अरज
सुनो ध्वंस-रथ
इतनी तीव्रता से जा रहे हो किधर
डर से भर गए हैं
तुम्हारे पथ के सारे घर
रुको रथ!
कहता है विकल पथ
ध्वंस से पहले
कर लो थोड़ा विचार
अरज पर गरज उठता है रथ
कितने ध्वंस के बाद समझोगे तुम
कि विचार का नहीं
प्रचार का वाहन हूँ मैं।
जगह
चप्पे-चप्पे पर प्रहरी हैं
नाके-नाके पर ख़ाकी है
सरजू माई से पूछते हैं चारों भाई
हमारे खेलने के लिए
कोई जगह बाक़ी है।
ठिठकना
ठुमक-ठुमक कर चलते राम लला
अचानक ठिठक जाते हैं
विस्मय से देखते हैं
जगह-जगह लगे धातु संसूचक
फिर देखते हैं अपनी पैजनिया
उनका ठिठकना
कहाँ देख पाती है दुनिया।
प्रवचन
अवध में धर्म की जय है
जय है
जय है
विधर्मी को भय है?
भीड़ कहती है : तय है
तय है
तय है।
लोकतंत्र
अवध में
विरोधी विचारों पर
विरोधी नारों पर
कहाँ कोई रोक है
केवल कुछ घरों को
मिट्टी में मिल जाने का शोक है।
अवध में भय
अवध में सब सुखी हैं
दुख बस यही है
कि अतिशय सुख है
सुख में जो अतिशय है
उसी के क्षय का भय है।
अवध में सब संतुष्ट हैं
कुछ दुखी-दुष्ट थे
जो असंतुष्ट थे
भय बस यही है
कि ‘थे’ बदल न लें अपना काल
‘हैं’ बनकर करने न लगें सवाल।
प्रतीक्षा
अवध से कब निकलेगा
अश्वमेध का अश्व
अरण्य में कब तक प्रतीक्षा करेंगे
वन देवी के धनुर्धर पुत्र।
अरुण आदित्य (जन्म : 1965) सुपरिचित कवि-गद्यकार हैं। उनके दो कविता-संग्रह (‘रोज़ ही होता था यह सब’ और ‘धरा का स्वप्न हरा है’) और एक उपन्यास (उत्तर वनवास) प्रकाशित हो चुके हैं। उनसे adityarun@gmail.com पर संवाद संभव है।
मारक व्यंजना है सभी कविताओं में।मानीखेज।एक से बढ़कर एक।