कविताएँ ::
आशुतोष प्रसिद्ध
एक टुकड़ा याद
कल रात
दुपहिया से चलते हुए
तुमने अपना मुलायम हाथ
मेरे कंधे पर रख दिया था
मैंने कहा—
दबा दो
दर्द हो रहा है
तुम दबाने लगीं
हवा मुस्कुराई
बादलों ने कुछ बूँदें भेजकर तुम्हें छेड़ा
तुम हँसकर कुछ गुनगुनाईं
कोई गीत
शायद कजली
तुम्हारी आवाज़ याद है
उसके बोल याद नहीं
वह क्षण बीत गया
पर,
वह स-स्नेह स्पर्श तुम्हारा
हवा की मुस्कान
बारिश की छेड़
कजली की ध्वनि
अभी भी मेरी देह में चल रही है।
पास की दूरी
हम इतने पास हैं
कि हमें
रहना पड़ता है दूर-दूर
मिलते हैं तो ज़ुबान से
कहते हैं
याद नहीं भाषा क्या होती है
संकेत करो
संकेत ही मूल भाषा है।
एक दूसरे को देखते हैं
आँखों से कहते हैं—
‘इंतज़ार…’
और मुट्ठियाँ भींच
बैठे रह जाते हैं
पास-पास रखी कुर्सी पर
दूर-दूर…
पलायन
भागते हुए
सोचा था अबकी लौटा
तो इस देह को नया नाम देकर लौटूँगा
मगर लौटा तो बुद्ध नहीं
बुद्ध के ध पर
ऊ की मात्रा लटकाकर
मैं भूल गया था
मेरा रक्त ही मेरा मूल धर्म है
और जो रक्त मेरी देह में दौड़ रहा है
सदियों से इस देह से
उस देह में छनते हुए
उससे सिद्धि छन गई है
बचा है पलायन
सिर्फ़ पलायन…
अयोध्या
क्षमा चाहूँगा
असमंजस में हूँ कि इसे क्या होना है?
आधुनिक होने हेतु प्राचीन
या प्राचीन होने हेतु आधुनिक
यह कौन-सा शहर है?
जिसे एक ही समय पर
आधुनिक और प्राचीन दोनों होना है?
दीपावली पर जो शहर भर में
भगवा ध्वज मढ़े गए थे
वे अब लाल हो रहे हैं
गिरते और टूटते घरों के गर्दो-गुबार से
सजावट की लाल-पीली-नीली रौशनी
काली पड़ गई है।
आधुनिक प्राचीनता
और प्राचीन आधुनिकता की शर्त पर
शहर के नवीनीकरण के लिए
मंदिरों को छोड़कर
अधिकतम पुराने को खदेड़
किया जा रहा बाहर
सनद रहे ,
मंदिर, अधिकतम पुराने में नहीं
न्यूनतम पुराने में आता है
कल लेबर चौराहे की भीड़ में
कोई लेबर कह रहा था
यह धाम सुंदर हो जाएगा
तो बहुत अच्छा दिखेगा
कोई कह रहा
धाम तो क़ब्ज़ा लेंगे
भगवा और पीले झंडे थामे लोग
और हमें भगा दिया जाएगा
हम कामगारों का यहाँ कोई नहीं है
हमको नहीं चाहिए
इनमें से कुछ भी
धाम, राम और नाम
हमको बस काम चाहिए काम
राम से पेट नहीं भरता
नहीं जलता चूल्हा
नहीं पकती रोटी
ख़ून बहता है बस ख़ून…
एक दूसरे लेबर ने उसे ज़ोर से डाँटकर कहा
तुम क्या जानो
लोगों को मिलेगा आराम
और आराम
इस सदी में सबसे ज़रूरी चीज़ है।
भीड़ से कोई धीरे से बोला—
‘इनसे तो अच्छे थे वाम’
कभी-कभी ही सही
मगर कहते तो थे—
अवाम
आ-वाम!
किसी बूढ़े मज़दूर ने तो यह तक कहा
बिक गए हैं सब ऊँचे दाम
छोड़कर राज-पाट का काम
दशरथ कर रहे हैं दिहाड़ी
सबके बीच जब मैंने
धीरे से क्षोभ भरे स्वर में
माथा पकड़े कहा—
‘हे राम’
सबने आश्चर्य से पूछा—
कौन-से राम?
कहाँ के राम?
नहीं जानते,
गिरते घरों के मलबे में दबकर मर गए राम
जिनका ले रहे हो नाम।
घर लौटा तो रोटियाँ डाँटकर बोलीं
ख़ामोशी से रहो और बस बोलो
काम
काम!
नाव डूबती हुई
दूर किनारे पर
जाते हुए दिख रही हो तुम
टूट चुकी है पहले से पतवार
नाव की पेंदी में हो गया है छेद
थक गए हैं मेरे हाथ
उलीचते हुए
पानी को पानी में
जैसे-जैसे दूर हो रही हो तुम
डूब रही है नाव
ऊपर आ रहा हूँ मैं
शांत हो रही है देह
भर रही हो मुझमें तुम
वैसे ही
जैसे
मल्लाह की आँख में
भरती है
सूखती हुई नदी
तुम्हारे होने को जीते हुए
ज़्यादा नहीं
हाथ भर की दूरी रही होगी
मगर तुमसे रहा नहीं गया
तुमने कहा—
‘पास आकर बैठो
मुझसे दूर नहीं रहा जाता तुमसे’
एक बिंदु पर हाथ रखकर बोलीं—
‘यहाँ
हाँ! बिल्कुल यहाँ बैठो।’
मैं अपनी जगह से थोड़ा-सा हिला
और तुम्हारे सामने बैठ गया
मन की जगह मिल जाए
तो बदलने में कष्ट नहीं होता
तुम बोलीं—
‘हाँ अब सही से दिखोगे
और फिर चुप हो गईं
तुम चुप होकर भी बोलती हो!’
तुम्हारे हाथ रुकते नहीं हैं
रोको तो भी चलते रहते हैं
कुछ नहीं करती तो जहाँ बैठती हो
वहाँ की घास-फूस ही उखाड़ती रहती हो
हाथ रोक दूँ
तो पाँव पकड़कर सहलाने लगती हो
तुम्हें आदत है
बोझ कम करने की
वह पृथ्वी का हो
या मन का
बोझ इतना था
कि भूल गया था
बिना बोझ कैसे लगता है
जीवन
अब याद करता हूँ
कि क्या
बोझ भी होता है जीवन?
और उस पर
तुम्हारी आदत ने
आदत बिगाड़ दी मेरी
इन दिनों मैं हल्का हो गया हूँ
इतना हल्का
कि उड़ रहा हूँ
तुम्हारे प्यार की मद्धिम बयार में
पतवार की मानिंद…
संदिग्ध
दूर से
पास आने के लिए कहकर चली थी
पास आई है
तो एक सीमेंट की कुर्सी पर
बिल्कुल कोने में
मुझसे कुछ फ़ीट दूर बैठी है
इसमें किसी गिलहरी की भाँति फ़ुर्ती थी
पर आज हाँफ रही है
काँप रही है
ज़्यादा पानी लग जाए
तो जैसे
पीले पड़ जाते हैं पौधे
वैसे ही
पीला पड़ा है उसका चेहरा
मैं उसे छूने को हाथ बढ़ाता हूँ
तो अनगिन आँखें
मेरे हाथ पर चिपक जाती हैं
उसे आँखों से डर लगता है
ये बात
उसने बहुत पहले बताई थी मुझे
मैंने अपना हाथ समेट लिया
कुछ घड़ी ख़ामोश
अपने दोनों पंजे मसलते
बैठा रहा
फिर उसे देखते हुए कहा—
‘अपना ख़याल रखना’
जबकि मैं
कहना चाहता था—
‘मेरे साथ चलो
मुझे तुम्हारा ख़याल रखना है’
पर नहीं कह पाया
इस डर से
कि कहीं इस बात पर
पूरे के पूरे लोग न चिपक जाएँ
अपनी-अपनी आँखों समेत
प्रत्याशा
मशीनी आवाज़ में कोई स्त्री बोल रही है
गाड़ी संख्या 14102
प्लेटफ़ॉर्म नंबर 2 पर आ रही है
बाहर बारिश हो रही है
टीन पर गिरकर पानी
पानी की आवाज़ में बोल रहा है
चारों तरफ़ लोग ही लोग हैं
कुछ आते हुए, कुछ जाते हुए
कुछ भीगे हुए, कुछ भीगते हुए
कुछ गाड़ी निकल न जाए इस डर से
फेफड़े से तेज़ साँस फेंकते हुए भाग रहे हैं
कुछ खड़े हैं मुझसे
इसी विशाल दुनिया में
अपनी दुनिया खोजते हुए
यह जानते हुए भी
कि किसी भी दुनिया में
पूर्णता नहीं हो सकती
वे खड़े हैं।
मैं ऐसे फेंक रहा हूँ साँस
जैसे रुकने पर गाड़ी फेंकती है गैस!
गाड़ी अभी-अभी स्टेशन पर रुकी है
पूरा स्टेशन भनभनाती आवाज़ों से भर गया है
जैसे मधुमक्खी के छत्ते में मार दिया हो किसी ने अद्धा
सब तेज़ी से भाग रहे हैं
सारे उतरने वाले ग़ायब हो रहे हैं
आँख एक डब्बे से दूसरे डब्बे भाग रही है
गहरा सन्नाटा है
जैसे कोई आया ही नहीं इस गाड़ी से
बारिश तेज़ हो गई है
रेलगाड़ी भीग रही बारिश में
टीन से लगातार
एक सीधी रेखा में
ढरक रहा है पानी
तभी पानी की उन सीधी रेखाओं को
अपने शरीर से काटकर
ट्रेन के डिब्बों में घुसने लगते हैं लोग
ट्रेन की शुरू होती धीमी चाल के साथ
तेज़ होती जा रही है सीधी रेखाओं के पानी को
शरीर से काटकर चलने वाले लोगों की संख्या
और धीरे-धीरे डिब्बा-दर-डिब्बा
नज़र के सामने से चली जाती है ट्रेन
बारिश बंद हो चुकी है कब की
ट्रेन भी कब की जा चुकी है
मैं अब भी खड़ा हूँ ओवरब्रिज पर
और मुझसे कुछ लोग
अभी भी खड़े हैं
अपनी दुनिया खोजते हुए
इसी दुनिया में
यह जानते हुए कि
किसी भी दुनिया में पूर्णता नहीं है
पूरा स्टेशन
ख़ूब रोए हुए
आदमी के चेहरे पर
अचानक आई हँसी की तरह लग रहा है।
बिटिया के देखने पर
तुम जो अभी-अभी
खोल रही हो आँख
इस चौंधियाए हुए संसार में
तुमसे बस इतना कहना है—
कि अब
कभी न बंद करना आँख
खोले रहना
सोते हुए
कुछ पाते हुए भी
कुछ खोते हुए भी
तब भी खोले रहना
जब करना प्रेम
और तब भी
जब सब एक तरफ़ से
कह रहे हों
दिल से सोचकर देखो
तुम अड़ी रहना इस बात पर
कि देखना
तो बस आँख से होता है।
तुम देखना सुंदर भी,
अ-सुंदर भी
पुण्य भी, पाप भी
हिंसा भी और अहिंसा भी
बस घबराना नहीं
जब कोई तुम्हारे देखने के विरोध में
तुम्हें देर तक
किसी शत्रु की तरह देखे
तब तुम भी उतनी ही शत्रुता
और घृणा से देखना
पुण्य देखते हुए मुस्कुराना,
पाप देखते हुए चढ़ जाना पाप की छाती पर
किसी देवी की तरह छाती को चीरने
देखना
कभी ख़ुशी और मुस्कान के साथ
कभी पूरी ताक़त के साथ
देखना सबको
देखना सब कुछ
और
जब कभी ज़रूरत पड़े
देख लेना सबको…
आशुतोष प्रसिद्ध की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह अयोध्या (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले हैं और इसी वर्ष हिंदी साहित्य में परास्नातक हुए हैं। उनसे ashutoshprasidha@gmail.com पर बात की जा सकती है।
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