कविताएँ ::
आरती अबोध
असाध्य काल
मेरा कोई इष्ट न था,
इष्ट समतुल्य तुम बने।
मेरी भाषा में तुम्हारी अनंत प्रकृति को,
मेरे अनछुए स्पर्श,
अव्यक्त परमात्मा को अर्पित पुष्प थे,
जो भौतिकता के अभाव के कारण,
कभी सार्थक नहीं हुए।
बादलों की ओट के उस पार
तुम्हारी आँखों के फ़िरोज़ी समंदर में करवट भरते दुःख से,
धरती की देह पसीज जाया करती थी… कभी-कभार।
मगर मैं वह धरती नहीं बन पाई।
तुम्हें साधने के दौरान मैंने जाना
कि मृत्यु मुझसे भागती रही है… तमाम उम्र।
इस बार वह तुम्हारे वेश में थी।
मेरी देह के इस खंडहर में
तुम्हारी प्रतीक्षा की घंटियाँ संगीत करती रहेंगी अविरत
संगीत—जिसमें डूब सकेगा मेरा आह्वान… तुम्हारे लिए।
ये असाध्य यातना मुझे मृत्यु के निकट ले जाएगी… धीरे-धीरे—
जहाँ मरघट में लाशों का नृत्य चल रहा होगा,
जिन संग झूम उठेगा ये पाँच फीट एक इंच का जिस्म…
ओ मेरे असाध्य इष्ट!
परित्यक्त बाघिन
मेरी प्रकृति मरुस्थल की थी
जिसका प्रेम किसी ग़ोताख़ोर-सा
जिसे समंदर अज़ीज़ था।
मैं तैरने की ख़्वाहिश से भरी पड़ी थी
तभी मीठे पानी के चश्मे ने
मेरी आत्मा को सोख लिया।
मेरे भीतर एक दरिया उग आया।
मेरे अतीत का मक़बरा
आज भी रह-रहकर अस्पष्ट ध्वनि में कराह उठता है
कि मैंने रूप से नहीं वस्तु से किया था प्रेम।
(अकाट्य सत्य)
प्रेम में पगलाई बाघिन की आँख की कोर पर टिके आँसू से
सृष्टि नष्ट हो सकती थी
इसलिए मैंने उसे खुद ही पी लिया।
(वह बाघिन मैं ही तो थी)
तुम्हें पाने के उन्माद में
मैंने आँखों में मदार डाल लिए
तोड़ दिया जागतिक संसार से प्रत्येक रिश्ता
जो मुझे तुमसे अलगाता था।
(क्योंकि प्रेम एक अस्तित्ववादी अवधारणा है)
प्रेम करती स्त्रियाँ बुद्ध नहीं हुआ करतीं
न ही बन पाई कभी कोई कृष्ण ही
स्त्रियों को देवता होना नसीब ही नहीं हुआ!
भ्रम
आसमान फटा तो उसके बहाव में ईश्वर अबाध गति से बहने लगा
ये कहानी मुझे मेरी छाँव में बैठ सुस्ता रहे एक पेड़ ने सुनाई थी।
(इन दिनों ईश्वर कहाँ है?)
एक चित्रकार सूरज को रोज़ाना इस आश्वासन पर अपने लहू से रँगा करता था
कि ये राज़ सिर्फ़ उन दोनों के बीच रहेगा।
(ये चित्रकार कौन था?)
आसमान की बंद पलकें रात हैं और पुतलियाँ दिन,
रात के सन्नाटे से अधिक दिन का बियाबान अखरता है।
इसलिए नींद की क्रिया के निर्वाह हेतु रात को चुना गया।
(ये निर्णायक कौन था?)
दृष्टि का विस्तार समंदर ईजाद करता है
और यदि समंदर खड़ा हो जाए तो आसमान का निर्माण होता है।
(दृष्टि क्या है?)
ऐसे ही एक रोज़ नीत्शे ने कहा : ईश्वर मर गया।
वाजिब सवाल तो यह है कि
क्या कभी वह था भी?
प्रेम के परिणाम से आतंकित
मेरे प्रेम में तपती तपस्विनी ने
एक रोज़ मुझे शाप दिया था
जिस तरह नहीं हूँ क़ुबूल मैं तुमको
अस्वीकार कर दिया जाएगा
तुम्हारा भी निवेदन कभी।
उसके इस कथन के कारण
एक जोगी से प्रेम करके
मैं तपस्विनी-सा तपा।
मैं
मैं कोई दुनियावी व्यक्ति नहीं हूँ
इसलिए प्रेम का पाश मुझे बाँध नहीं पाया।
मेरे इस संवाद पर,
देवताओं के कंधे झुक आए।
एक क्षण में प्रेम
उल्लास और उत्तेजना से
हताशा में अट गया।
लोरियाँ गाते जुगनुओं की आवाज़ मंद पड़ गई
और इंद्रधनुष को रँगती तितलियों के पंख टूटने लगे
अचानक बादलों का संतुलन बिगड़ गया
शनि की चाल धीमी हो गई और बृहस्पति पर चाँद मिटने लगे।
तभी मुझसे प्रेम करती एक तपस्विनी ने कहा :
मेरा प्रेम वासना हो रहा है तुम्हारे प्रति,
अब मुझे लौट जाना चाहिए…
उसका यह कथन मुझे शूल-सा चुभा,
मगर प्रेम, उल्लास और उत्तेजना बन धड़कने लगा मेरे भीतर कहीं।
किसी का प्रेम तुम्हें नहीं बाँधता
वरन् भेद जाता है प्रेम करते हृदय का जीवन से चले जाने का भय।
क्योंकि :
‘जाना’ आज भी हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है।1केदारनाथ सिंह की कविता ‘जाना’ का संदर्भ।
मौन
अर्धविकसित चेतना के बहेलिए ने
अव्यक्त आकांक्षाओं के मेरे मृग की हत्या कर दी
जिस संग मुझे मरने का सुख भोगना था
उसके न होने का संताप मेरी आत्मा में उतर आया
और इस तरह प्रेम में मेरी भाषा मौन बनकर बही।
आरती अबोध दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधरत हैं। उनकी कुछ रचनाएँ और आलेख विभिन्न प्रकाशन-स्थलों पर प्रकाशित हो चुके हैं। उनसे aartiabodh@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बेहतरीन कविताओं का बेहतरीन संग्रह..!
“मैं कोई दुनियावी व्यक्ति नहीं हूँ
इसलिए प्रेम का पाश मुझे बाँध नहीं पाया।”
“एक जोगी से प्रेम करके
मैं तपस्विनी-सा तपा।”
“तुम्हारी प्रतीक्षा की घंटियाँ संगीत करती रहेंगी अविरत
संगीत—जिसमें डूब सकेगा मेरा आह्वान… तुम्हारे लिए।”
परिकल्पना और परिपक्वता की पराकाष्ठा हैं ये रचनाएँ
#शुभकामनाएं