कविताएँ ::
कुशाग्र अद्वैत

कुशाग्र अद्वैत

फ़ंतासी

जैसे आया
पूर्व-सूचना के साथ―
एक सूचना की ही शक्ल में―
वैसे न जाऊँ

जिस दिन जाऊँ
उसमें पर्याप्त रोज़मर्रापन हो

उस दिन के बाबत
आकाश
किंचित् भी बड़बोला न हो,
सूरज हो
और दिनों-सा ताप लिए हुए,
सुबह हो
बिस्तर छोड़ने के अनमनेपन से भरी हुई

किसी की न फड़के
बाईं आँख,
किसी के ऊप्पर
न बैठे काग,
इस संबंध में
किसी को
न हो कोई
पूर्वाभास
और जिसके ऊप्पर
बैठे काग,
जिसकी फड़के
बाईं आँख
वह न मानता हो
यह सब
आदम,
घिसे-पिटे
अंधविश्वास

फिर, किसी को भी
मेरा जाना
जाना न लगे

कहीं कोई
रिक्तता न आए,
कहीं कोई अपूर्णता

कि वाक़ई जाने के पहले
लगभग जा चुका होऊँ―
उन सबके जीवन से
जिनके जीवन में
थोड़ा-बहुत भी
था―
और, इस वाक़ई और लगभग के बीच
एक लंबी और अलंघ्य दूरी हो
किसी ने बाक़ायदे
मेरी जगह ले ली हो

सब मेरी अनुपस्थिति के
इतने आदी हो चुके हों
कि जब ख़बर लगे
मेरे जा चुकने की
तब किसी को रत्ती भर
न महसूस हो अकेलापन,
किसी को खटके
न खले, लेशमात्र

आराम से टूटें निवाले―
हलक़ में किसी के
रोटियाँ न अटकें,
किसी की बिरयानी का
ज़ाइक़ा न बिगड़े

किसी को न देकर जाऊँ
मसान-बैराग
सब वैसे के वैसे रहें
घर-बार, गिरस्ती आदि की
उलझनों में उलझे हुए,
काम-धंधों से पटे हुए

सब वैसा का वैसा रहे
हाँ, असुंदर, सुंदर हो
और सुंदर को सौंदर्य की किसी
पुरातन परिभाषा के अंतर्गत
परिभाषित न किया जाए

किसी भी देश का झंडा
न झुकाया जाए,
न तोपें चलें,
न बलवा मचे,
कोई हो-हल्ला न हो

बस चला जाऊँ
और किसी को
कानों-कान ख़बर तक न हो

देरी

थोड़ी नहीं, बहुत नकचढ़ी थी
मुझसे एकाध बरस बड़ी थी
लेकिन थी मेरे ही दर्जे में
लिहाज़ा, मुझसे पहले
सजाए उसने
छुटपन के सारे सपने
उसकी साइकिल मुझसे
काफ़ी पहले आई

और जब मेरी नई-नवेली
नीली साइकिल आई
जो बाद में चोरी गई
वो उसने थी सिखाई,
जब-जब चैन गिरी
उसने ही चढ़ाई

मैं नहीं जानता उसने
कैसे और कहाँ से
यह सब कुछ सीखा
हाँ, उस पर सब मुसीबत
मुझसे बहुत पहले आई,
जब मुझ पर कुछ भी पड़ा
वह पास खड़ी नज़र आई

सो, उसका हक़ बनता था
कि जब कविताई शुरु करूँ
पहले-पहल उसको दर्ज करूँ
लेकिन, दे खो ऐ सा न हु आ

और अब जब लिखता हूँ
जैसे खानापूर्ति करता हूँ

भूलो

कुछ बोलना शुरू करो
और बात की लीक छोड़
कहीं और निकल जाओ
कुछ और करने लगो
मसलन, बाँधने लगो बाल,
सरियाने लगो बिस्तर,
कुछ जल तो नहीं रहा
एकबारगी हो आओ
रसोई की तरफ़

उन्हीं चंद मिनटों के लिए
इतनी मसरूफ़ हो जाओ
कि बिल्कुल भूल जाओ
क्या बोल रही थी
अभी उठने से ज़रा पहले

बाद उसके, पेशानी पर
कितना ही ज़ोर डालो
कुछ याद न आए
आख़िरश,
जिससे मुख़ातिब होओ
उससे ही पूछना पड़े―
“मैं क्या बोल रही थी?”

मगर अब तक
उसने भी
छोड़ दिया हो
बात का
आख़िरी सिरा

फिर हार मान दोनों जन
कोई नई बात शुरू करो
और उसकी भी
वही गत करो

चुम्बन काम न आएगा

छिल चुकी हैं उँगलियाँ
अब रहने दो
गर इससे ज़ियादा कट गईं
चुम्बन काम न आएगा
फिर तुम बैंडेड भी
लगाने से रही
कहती हो―
काम करते नहीं बनता

रियाज़ की एक मियाद होती है
तुम उसको कब का
पार कर चुकी,
कि अब साज़ भी
थक चुका
और तुम भी
काफ़ी
थक चुकी

नाराज़ हो मुझसे?
बताती क्यों नहीं
या उस दोस्त से…
क्या नाम था उसका?

चाहती हो
मैं ख़ुद जानूँ?

बेहतर जानती हो
कच्चा हूँ
इन मामलों में

आओ इधर
पहलू में बैठो
ज़िद छोड़ भी दो
कि छिल चुकी हैं उँगलियाँ
गर इससे ज़ियादा कट गईं
चुम्बन काम न आएगा

करीमा बलोच [1983-2020] तस्वीर सौजन्य : times now

करीमा बलोच*

करीमा बलोच, जिसकी उर्दू में
इक बलूची छटपटाहट थी,
ताज़िंदगी जिसको घेरे
मौत की आहट थी

करीमा बलोच―
जिसकी अब बस याद बाक़ी है–
को जब भी याद किया जाए
उसका पूरा नाम लिया जाए

बस करीमा कहने से बात नहीं बनती―
शौहरों, बच्चों, बावर्चीख़ानों से
किसी तरह नजात पा
जेठ की लंबी दुपहरों को
‘हम टीवी’ के ड्रामों से भरती
कुछ लाख करीमा पाकिस्तान में होंगी,
हिंदुस्तान, ओमान, ईरान-ओ-कुवैत में
हज़ारों ख़्वातीन होंगी उसकी हमनाम

लिहाज़ा, करीमा के लिए
एक ही ख़िताब मुमकिन है,
जो काफ़ से शुरू होकर चे पर ख़त्म होता है―
वह है करीमा बलोच
हिंदुस्तान के वज़ीर-ए-आज़म को**
राखी भेजने से,
या कनाडा में पनाह पा लेने से***
जो नहीं बदलेगा।

*महज़ सैंतीस बरस की करीमा बलोच बलूचिस्तान की जानी-मानी मानवाधिकार कार्यकर्ता थीं। बलोच राष्ट्रीय आंदोलन को महिलाओं के मध्य ले जाने का श्रेय उनको ही जाता है। बीबीसी ने उनका नाम दुनिया की सौ सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची में शामिल किया था।

**कुछ वर्ष पूर्व रक्षाबंधन के मौक़े पर करीमा बलोच ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बलूचिस्तान में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की अपील की थी।

***जब पाकिस्तान में हालात बहुत ख़राब होने लगे तब करीमा बलोच ने कनाडा में शरण ली, जहाँ से 22 दिसंबर 2020 को संदिग्ध परिस्थितियों में उनका शव बरामद किया गया।


कुशाग्र अद्वैत की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह तीसरा अवसर है। कुशाग्र ने इस दरमियान बहुत चुपचाप कुछ इस प्रकार की कविताएँ संभव की हैं कि प्रशंसा के वाक्य कम पड़ जाएँ। हम पुराना परिचय दुहरा रहे हैं : कुशाग्र अद्वैत इधर चमत्कृत करते हुए कविताएँ लिख रहे हैं। उनकी रचनात्मक-दृष्टि उनके नामानुकूल है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुत से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : हम हारे हुए लोग हैंइस भाषा के घर में

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *