कविताएँ ::
आरती अबोध
एक
नदी उच्छृंखल थी
तो आदतन अपने व्यवहार के नाते
उसने मुझे भी थामा
और यूँ अपनी उच्छृंखलता मुझे सौंप
ख़ुद एक पहाड़ हो गई
और मैं बहती रही
उसी के इर्द-गिर्द
अपने जुगनू-किरदार को छोड़कर
रात ऐसे ही स्याह नहीं है
वह मुझमें उतरती रही है लगातार
वरना तो
उसका भी रंग सफ़ेद ही था।
दो
दर्द हमेशा नीले चिह्न नहीं छोड़ते
उन्हें खुरचो तो स्याह-सफ़ेद का मध्यांतर—
स्लेटी भी उभर आया करता है
कभी-कभी
ऐसे कितने ही स्लेटी रेगिस्तान
जमा हैं मुझमें
एक तुम्हारा दिया हुआ भी…
तीन
प्रेम
‘तुम सिर्फ़ मेरे साथ रहो’
से ही नहीं
बल्कि
‘तुम मेरे साथ रहो’
की बाध्यता से भी
मुक्त रखता है।
चार
वे कौन लोग थे
जिनकी आवाज़ की छुअन से
मेरी आत्मा आज भी मौन है?
क्यों उनकी साँसों के
बढ़ते ताप की स्मृतियाँ
मेरे भीतर आज भी
वैचारिक बेचैनियाँ बढ़ा दिया करती हैं?
एक सवाल
जो मैं उन सभी से कभी न कर पाई कि
वे मनुष्य से प्रेम करते हैं
या संरचनाओं से?
वह कौन है जो उनकी ख़ातिर
मेरे ही भीतर डरा हुआ-सा है
कि कहीं उनकी विनम्रता पर
सामुदायिक गौरव हावी न हो जाए
या कि मर न जाए उनकी मनुष्यता
कहीं आरोपित संरचनाओं के बोध के बोझ से
ये मेरी तमाम अवैध प्रार्थनाएँ
जो वैध होना चाहती थीं
अगर पूरी हो जातीं
तो शायद…
खदबदा जाता जाति का पदानुक्रम
मुमकिन था—जेंडर का भी
उठते अव्यवस्थित सभ्यता के अव्यवस्थित पहाड़
जिनके नीचे सिर्फ़ आदम और हव्वा ही नहीं
बल्कि ख़ुद को इनमें न अटाने वाले भी
चखते एक साथ निर्विरोध बाधित फल को
और फिर हम एक स्वाँग रचते
जहाँ तुम एक अव्यक्त औरत का किरदार निभाते
और मैं अघोषित पुरुष
या फिर किसी भी अन्य अल्पसंख्यक यौनिकता धारक का
कैसा होता प्रेम में यह परिवर्तन!
मगर तुम सभी ने
मेरे साथ जीना अस्वीकारा
क्योंकि तुम सब किसी के प्रेम में
मरने को तैयार थे
प्रेम… जाति, जेंडर और तमाम आरोपित संरचनाओं का।
पाँच
मीरा,
अपने गर्म होंठों को
कई दफ़ा
मैंने सौंपा है ठंडे पड़े जिस्मों को
(जिसके बाद वे थिरक उठते)
मेरी ज़बान पर
आज भी
दर्जनों स्तनों के स्वाद ताज़ा हैं।
पर प्रेम में तुमने
मुझे देवता बना दिया,
जहाँ संवाद रहेंगे हमेशा… एकतरफ़ा।
मैं—मूक तुम्हें सुनने को व्याकुल
तुम—‘कोई सुन न ले’ के भय से
रहोगी सदा अशब्द।
तुम नहीं मानतीं
कि तुम्हारा प्रेम,
प्रेम नहीं आराधना है
तो यह भी तो सिर्फ़ तुम ही हो।
मुझसे प्रेम में तुमने
ख़ुद का परिष्कार किया
(यह तुमने कहा था एक रोज़)
अभागिन, तुम्हें मेरा साथ
मेरे बाद कचोटेगा
क्योंकि अपनी इच्छाओं को महत्त्व देते हुए
की
हैं
मैंने
कई
हत्याएँ।
भले तुम्हारा अंधत्व
मुझे क्षमा करे
मगर तुम्हारी चेतना
इस अकल्पित अनगढ़ को
कभी नहीं स्वीकारेगी।
तुम खुरदुरा यथार्थ
तो मैं… यूटोपियन संभावनाओं की
काल्पनिक सफलता की
…महज़ एक प्रणेता।
पानी मेरी देह
अग्नि मेरी आत्मा
अनिश्चितता मेरा जीवन
और जाति मेरा अपमान… मेरी मृत्यु।
छह
मैं चाहूँ
कि मृत्यु स्थगित की जा सके
तो क्या यह मुमकिन है?
मृत्यु का स्थानापन्न कोई नहीं
लेकिन
हत्या का…
संभवतः प्रेम है
और
इसका उलट भी।
सात
आम धारणाओं में जो विषय ख़ूबसूरत थे
मेरे लिए वे सब भयावह साबित हुए।
आठ
कल्पना
बौद्धिकता का श्रेष्ठ रूप है
और मेरी कल्पना की श्रेष्ठता हो
सिर्फ़…
नौ
मेरा चयन मृत्यु होगी
विवशता नहीं।
दस
पुदीने की चटनी-सा था
उसके स्तनों का स्वाद
और जाँघें महकती थीं
कच्चे आम की खटास-सी
माथा उसका जल-सा मीठा
तो बैंगनी होते जामुनी होंठ
मानो अक्टूबर की गुलाबी सर्दियाँ
जीभ उसकी रूह-सी
नाभि मानो दही में गुड़ की डली
उसके पोर-पोर में समाया था जीवन-स्वाद
उसे प्रत्यक्ष पा
स्वभावतः मेरा शिश्न
बढ़ता था उसकी मुख-दिशा की ओर
मेरी रोमयुक्त छाती पर
अक्सर उसकी उँगलियाँ कुछ लिखा करतीं
शायद… कोई कविता
मेरी गर्दन के पिछले हिस्से पर
उसने एक तितली बनाई थी
उसके उड़ते पंखों की स्मृतियाँ
आज भी गुदगुदा जाया करती हैं मुझे
मेरी मांसपेशियों के लिए
उसका यह स्पर्श
एकदम अनजाना और अबूझ था
मेरे जिस्म पर उगे
उसके असंख्य चुंबन
गवाह हैं मुझमें
उसकी मौजूदगी के
पर अफ़सोस
इससे पहले कि
बनती वह
मेरी जिह्वा का सुख
वह छूट गई
मेरी आँखों में उतरी
उसकी क्वियर पहचान के प्रति घृणा को
देख लिया था उसने
खंडित हो उठी थी
उसके ईश्वर की वह प्रतिमा
जो अब तक मैं था… उसके लिए
एक अफ़सोस और
कि मैं रहा पुरुष ही
और वह रही सिर्फ़ एक और योनि…
मेरे लिए
अफ़सोस!
आरती अबोध की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। इस बीच उनमें कविता-दर-कविता एक अलग प्रभाव पैदा करने की क्षमता का विस्तार नज़र आता है। प्रत्येक कविता-समय में एक ऐसी भी कविता होती है जो हो चुकी और हो रही कविताओं से टूटकर बनती है, आरती की कविताएँ हमें एक ऐसे ही बनाव में ले जाती हैं—तड़प और अफ़सोस के नए मरहलों तक। उनसे aartiabodh@gmail.com पर बात की जा सकती है।
यक़ीनन निडर होकर लिखी गई कविताएँ हैं. शब्द चुनाव से ज़्यादा ईमानदारी हमें अभिव्यक्त होनें के बाद कई पीड़ाओं से मुक्त कर देती है.