कविताएँ ::
अभिषेक सिंह
परिचय
मैं एक बड़बोले बाबू सा’ब का लड़का,
मेरी एक छोटी-सी जीवन-यात्रा रही है।
मैं किसी के प्रेम में पड़ा
और जाने कैसे पानी-सा हो गया—
बिना किसी रंग का,
हर रंग में रँग जाने वाला।
आजकल अक्सर सपने में
मैं आदिवासी मुक्ति वाहिनी के मंच से
हाथ उठाकर बोलता हूँ :
मैं आदिवासी का बेटा सलखु मुर्मू…
मैं दलित संघर्ष समिति में
अक्सर आवाज़ बुलंद करता हूँ :
मैं दलित का बेटा हूँ…
मैं अपनी प्रेमिका के
क्रांति भरे शब्दों को सुनकर
दिन भर बुदबुदाता रहता हूँ
और चहक कर कहता हूँ :
मेरी क्या पहचान!
अब मेरी क्या जात!
बीच में ही टोक कर
मेरी प्रेमिका मुझसे पूछती है
कि क्या मुझे पता है :
वह कौन-सा प्रेम होगा
वह कौन-सी होगी यात्रा
जिसमें एक दलित या आदिवासी का बेटा
यह बोल पाएगा :
अब मेरी क्या पहचान!
अब मेरी क्या जात!
विचारधारा
कम्युनिस्ट कहने से पहले
लोग मुझे पागल कहा करते थे
जब नहीं पढ़ी थीं मैंने
मार्क्स की दलीलें
जब नहीं सुना था मैंने
लेनिन का भाषण
जब भी मैं अपने अतीत मे झाँकता हूँ
मुझे अपने वर्तमान के लिए दिखता है विद्रोह
नहीं दे पाता मैं विद्रोह को उचित स्वर
कर नहीं पाता बनावटी बातें
सुना नहीं पाता
किसी किताब का कथन
मुझे लगता है—
मार्क्सवादी होने के बहुत पहले से
मैं यथार्थवादी हूँ।
स्थिति
जब कभी मैं चौरासी से चलता हूँ
और एनआरसी पर अटकता हूँ
मुझे लगता है कि
नफ़रत का भी एक विस्तार होता है
जिसके लिए नफ़रत
सतत करती है संघर्ष
कभी-कभी हम उस संघर्ष को
एक ज़रूरी यात्रा का नाम दे देते हैं
और समझा देते हैं ख़ुद को
गांधीनगर पहुँचने के लिए
गोधरा से होकर गुज़रना पड़ता है
नफ़रत कभी चूकती नहीं
हमेशा देती है पारितोषिक
इसीलिए मैं यूएपीए की धाराओं में बंद
सभी देशद्रोहियों से पूछना चाहता हूँ :
तुम्हें अपने प्रेम पर पछतावा तो नहीं?
मैं मंडी हाउस में नुक्कड़ करते
एक शरणार्थी से पूछता हूँ
क्या तुम्हें भी लगता है डर—
देशद्रोह से डर?
क्या तुम भी करते हो प्यार—
अपने देश से प्यार?
वह शरणार्थी एक सन्नाटे में जाकर कहता है :
अब नहीं डालता मैं वोट
अब कहाँ रहा मेरा देश!
संघर्ष
विनोद कुमार शुक्ल के प्रति
बहुत से लोगों को
कुछ एक लोगों से मिलना चाहिए
कुछ एक लोगों से मिलने के लिए
बहुत सारे लोगों को
बहुत सारी यात्राएँ करनी चाहिए
बहुत सारी यात्राओं में
बहुत सारे लोग
कुछ एक लोगों से
सहजता से मिल जाया करते हैं
कवि-कर्म
कुछ कवि
कवि-सम्मेलन में
कुछ कवि
न्यूज़ चैनल में
कुछ कवि
राज्यसभा में
कुछ कवि
राजनीतिक सभा में
बहुत सारे कवि
कहीं नहीं
कि कोई उनसे यह न पूछ ले :
आप करते क्या हैं?
क्या तुम कमा के खिलाते हो
मेरे पति के लिए जो थी
महज़ एक छोटी-सी बात
उस बात को लेकर
पिछले तीन दिनों से बिस्तर से नहीं उठी थी मैं—
‘‘मुझे माफ कर दो,
मुझसे ग़लती हुई!”
यह सुनकर भी नहीं।
‘‘तुमसे बहुत प्यार भी करता हूँ…’’
यह सुनकर भी नहीं।
मैं इंतज़ार में थी अपने ससुर के
जिन्होंने कॉलेज के दिनों में पढ़ाया था मुझे समाजशास्त्र।
वह गए थे किसी सेमिनार में—
स्त्रीवाद पर विमर्श करने।
आते ही मेरे ससुर ने लिया संज्ञान,
झिड़कते हुए बोले अपने बेटे से :
‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?
क्या तुम कमा के खिलाते हो?
क्या तुम इस घर का ख़र्च चलाते हो?’’
एक ही पल में मेरे शरीर में आ गया संवेग।
मैं झट उठ खड़ी हुई।
उस पल ने ही मानो मुझे तैयार किया
—किसी पथरीले अनजान रास्ते पर—
मीलों चलने के लिए…
पीछे से आती रही आवाज़ :
‘‘क्या हुआ बेटे?’’
‘‘सुनो तो!’’
‘‘कहाँ जा रही हो?’’
‘‘बड़ा वाला बैग क्यों पैक किया?’’
अभिषेक सिंह (जन्म : 1993) की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह गणित के विधार्थी और शिक्षक हैं, तथा थिएटर से भी जुड़ाव रखते हैं। वह रायबरेली (उत्तर प्रदेश) से हैं और इन दिनों दिल्ली में रहते हैं। उनसे abhisheksinghucr@gmail.com पर बात की जा सकती है।
अच्छी कविताएं, नया स्वर, मन की जटिलताओं को अभिव्यक्त करने की कोशिश।