कविताएँ ::
अखिलेश सिंह

अखिलेश सिंह | क्लिक : आशिता सेंगर

फागुनी हवाएँ

फागुन पीछे मुड़कर देखता है तो
कोई भी महीना
खड़ा नज़र नहीं आता
सभी महीनों को
इन हवाओं की टीस खा लेती है

ये हवाएँ
जंगल को खोजने निकलती हैं
रास्ते में खड़े एक-एक पेड़ से
पत्ते माँगती हैं

सेमल की देह को
इस तरह ग्रस लेता है फागुन
कि वह मद में डूबकर
अपनी ही छाया को दाग़दार करता है

पुष्प-छटाओं में इतराता हुआ
दिवस ऐसा है कि
धूप में जो औंधे पड़े हैं
उनकी भी परछाई है

विन्ध्य की पहाड़ियों से
मौसम के गुनगुनेपन के संकेत
आ रहे हैं
मुझे जाना ही होगा
जेब में एक मुट्ठी गुलाल छुपाए
कि जाने कौन-कौन-सी
आकृतियाँ बन रही हों
जिनमें रंग भरने से ही
महुवारी में कोयल कूकना शुरू करेगी।

यूँ नहीं

जीवन ऐसा नहीं होना चाहिए
कि दो टाँगों के बीच की दूरी बहुत बढ़ जाए

मौसम ऐसा नहीं होना चाहिए
कि जंजाल के छातों को वह भेद न सके

किसानी ऐसी नहीं होनी चाहिए
कि खेतों को आसमान से चुगली करनी पड़े

विचार ऐसे नहीं होने चाहिए
कि तीस सेकेंड में उनकी रेसिपी स्पष्ट हो जाए

रेल ऐसी नहीं होनी चाहिए
कि उसमें मूँगफली के छिलके तक न मिलें

बुराई ऐसी नहीं होनी चाहिए
कि झट से अच्छाइयों से दोस्ती कर बैठे

रौशनी ऐसी नहीं होनी चाहिए
कि उसे आपस में विमाएँ भटकाती रहें

मर्मस्थल ऐसे नहीं होने चाहिए
कि झपट्टा मारकर कोई उन्हें चुरा ले जाए

प्रतिभा ऐसी नहीं होनी चाहिए
कि तारीफ़ों की सूती से उसे छील दिया जाए।

वह जहाँ है

वह जहाँ पर समर्पित है
वहीं तिरस्कृत

जहाँ अदृश्य है
वहीं पर चिह्नित

जहाँ नत है
वहीं पर पतित

तकलीफ़ें उससे गुज़रती हैं
अपनी पहचान के लिए

विचारों से वह वैसा नहीं गुज़र पाया
कि दैनिक प्रवंचनाओं को उनसे सिद्ध कर सके

शब्दों को वह वैसा नहीं बोल पाया
कि ज़रूरतों के लिए टोकन बना सके

उसके विस्मय के चिह्न ही
उसके विराम के चिह्न थे

उससे अधिक
वह कहीं रुका ही नहीं

कहाँ तो सोचा था
कि हर दृश्य उसे बसा लेगा

कहाँ तो पाता है
कि हर दृश्य गणना भर है।

शरद के साथ

रात झरती ओस नहीं
उन्हें मोती बनाती हुई
पत्तियों की कोर सुंदर है

सूरज की किरणें नहीं
उनके समागम के लिए
पृथ्वी की व्यवस्था सुंदर है

चलते हुए क़दम नहीं
हमें सम्यक् बनाने वाले
पथ की दिशा सुंदर है

मेरे शब्द नहीं
उनके अर्थ सहेजती हुईं
तुम्हारी बरौनियाँ सुंदर हैं।

मुद्रा

दिन भर में
तीन लोगों का हाल सुना
पहले को डाँटा कि वह हरामी है
दूसरे को सतर्क किया कि हरामियों से बचो
तीसरे को सबक़ दिया कि हरामी बनो…

यक़ीन मानो,
इससे भाषा का कुछ नहीं बिगड़ा
उन लोगों को भी बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा

मैं भी वही हूँ
अभी आधी रात तक

मेरे बग़ल में
संतुलन लेटा हुआ है
वह मुस्कुरा रहा है
और
मैं झेंप रहा हूँ।

एक और बात

यह जान पाना विस्मयकारी है
कि जिसे मैंने देखा
वह तुम हो ही नहीं सकते
बावजूद इसके
कि वह तुम ही हो सकते हो
जिसे मैं देखती रहती हूँ हर जगह

अभी तक पानी, बादल, फूल
और अन्य दृश्यों ने
मुझसे कभी शिकायत न की :
मेरी आँखों और उनके बीच
एक ही व्यापार था
वे मुझे सौंपते थे—
नानारूप तुम को
मेरी आँखें सौंपती थीं—
अनुसमर्थन उनको

अब मुझे पता चला है :
तुमने ख़ुद कहा है :
तुम नहीं थे कहीं भी—
फ़ितूर था

अब मैं कह रही हूँ :
मेरी आँखों में ही
तुम फिर भी हो :
फ़ितूर हो उसके बाहर हो
जो भी तुम।

अप्रायोजित

फूल की काया
मंच की सजावट में नहीं दिखती
फूल हर मौसम में खिलता है
वसंत के बही-खाता आयोजनों से दूर

प्रणय का निश्चित महीना नहीं होता
वैशाख से कातिक तक
कबूतर से कुक्कुर तक
चढ़ता है सबको मौसम रस भरपूर

भूख हो तो
अन्न हर तरह से महकता है
आँखें ही उठा लेती हैं जेवनार
सभी इंद्रियों के ज़ोर से

फूल का खिलना
रस का चढ़ना
और अन्न का महकना
प्रायोजित नहीं हो सकता।

इति दृश्यम

वह जो कुछ कह न पाए
वह जिससे कुछ छिप न पाए
ऐसे सिकुड़े-भीगे-पूरे चाँद को
ऐसे ही जाने न दो

उसे अपलक निहारो
दृष्टि के अंधराने तक

तुम्हारी आँख की पंखुड़ियों को
डंक मारकर
मधु की रानी
वहीं भागी जा रही है।


अखिलेश सिंह की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह दूसरा अवसर है। तीन वर्ष बस होने को ही हैं, जब ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में उनकी कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित हुई थीं। इस बीच उनकी ज़िंदगी में काफ़ी कुछ द्वंद्वमय, तनावपूर्ण और सुंदर (भी) घटित हुआ। यहाँ प्रस्तुत आठ कविताओं में द्वंद्व और तनाव की सुंदरता—आवेगयुक्त और प्रकाशमय हो उठी है। इन कविताओं के विषय में इस प्रकार के प्रशंसात्मक वाक्यों को बदल-बदलकर इतना बढ़ाया जा सकता है कि वे कविताओं से भी ज़्यादा दीखने लगें, इसलिए यहाँ इन कविताओं पर कोई समीक्षापरक टिप्पणी नहीं की जा रही है। अखिलेश सिंह की कविताओं पर अब तक समीक्षापरक टिप्पणियाँ नहीं की गई हैं, जबकि वह इधर के उन अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक हैं, जिन पर सबसे अधिक टिप्पणियाँ किए जाने की ज़रूरत है। कवि से akhianarchist22@gmail.com पर बात की जा सकती है।

6 Comments

  1. Nishi kaushal नवम्बर 16, 2022 at 5:09 पूर्वाह्न

    जीवन के आधुनिक द्वन्दों से निकली कविताएं बहुत खूबसूरत हैं, भैया!!
    💐

    Reply
  2. RAMA SHANKER SINGH नवम्बर 16, 2022 at 11:07 पूर्वाह्न

    अखिलेश शायद सबसे ज्यादा मुझसे गुस्सा और क्षोभ प्रकट करते रहे हैं. ऐसे अवसरों पर मैं चुप्पी साध लेता हूँ. इधर उनके अंदर एक ठहराव सा आया है कि गुस्से को वह जज्ब करने लगे हैं, शायद कभी-कभी वह निसहाय भी महसूस करता हो. ऐसी दशा में भाषा उसका हाथ गह लेती होगी. वही उसे गढ़ती है. भाषा ही सबको गढ़ती है जीवन का कच्चा माल लेकर-प्रशंसा, अपमान, क्षोभ और सबसे बढ़कर प्रेम.
    यह सबके जीवन में हरहराता हुआ या सुरसुराता हुआ आता है लेकिन आता है तो बदलता ज़रूर है. पिछले छह-सात वर्षों में अखिलेश ने औपचारिक शिक्षा और नौकरी के बीच जो काव्य-विवेक अर्जित किया है, वह काबिले तारीफ़ है.
    सीमित संख्या में कविताएँ लिखने के बावजूद उन्होंने अपना एक पाठक वर्ग भी तैयार किया है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि वे अपनी भावभूमि पर अपने बहुत सारे पाठकों को लाने में सफल हुए हैं.

    Reply
    1. Aashita नवम्बर 19, 2022 at 12:50 अपराह्न

      मेरे..
      मेरे प्रिय..
      मेरे प्रिय कवि।

      Reply
  3. Avneesh Kumar नवम्बर 16, 2022 at 2:52 अपराह्न

    बहुत ही सुंदर कविताएँ 👌👌

    Reply
    1. Shikha Tiwari नवम्बर 19, 2022 at 6:29 अपराह्न

      Bahut hi badhiya shabdo ko gdha h no

      Reply
  4. सुमित त्रिपाठी नवम्बर 28, 2022 at 6:28 पूर्वाह्न

    कविताएँ सुंदर हैं। एक कवि इन पंक्तियों में बसा हुआ है।

    Reply

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