कविताएँ ::
अमित तिवारी
आवाज़ें
मैं जब भी दर्ज कर रहा होता हूँ
अपनी आवाज़
तो मेरी आवाज़ के साथ ही
दर्ज हो जाती हैं और भी आवाज़ें
मसलन काम पर जाते कारीगर की साइकिल का किरकिराना
किसी स्त्री के आत्मविश्वासी स्वर में
आशंकाओं के कंपन
एक दफ़्तर से आती किसी नौजवान की याचनाएँ
बाज़ार से में तैरता गाढ़ा ठंडा शोर
और उसमें घूमते विपन्न लोगों की रिरियाहट
इस विषादपूर्ण असंगठित संगीत के बीच
मेरी आवाज़ कभी इतनी अकेली नहीं हो पाई
कि उसमें कर सकूँ
अपनी आत्मा से कुछ अंतरंग संवाद
या अकेले घूम आऊँ
दुःख के नितांत निजी इतिहास में
इस तरह अपने पूरे ठोस एकांत के बीच भी
मैं निरा सामाजिक रहा
आवाज़ों के अवसाद से बचता रहा
और परिभाषित होता रहा
उन्हीं आवाज़ों में निरंतर।
विस्मृति
मैं कितनी देर से कितनी दूर बैठा हूँ
मैं कितने अरसे से देख रहा हूँ
प्रेम, भय और अवसरों के प्रवाह
मैं कितनी देर से ठंडा और भूखा हूँ
कितना समय हुआ चुंबन की स्मृतियों को मिटे
कितने पहर से मैं सब झपट लेना चाहता हूँ
कितनी देर से मैं नुचे परों वाला कबूतर
एक बाज़ का ढोंग किए बैठा हूँ।
मुझे मत छूना
मेरी देह अब
वैसी हाड़-मांस की नहीं है
जिससे लिपट कर प्रेम किया जा सके
या जिसे पुकारा जा सके
आपद स्थितियों में बेहिचक
मैं स्मृतियों, चुंबनों, विषादों
और अंतिम भेंटों के खारेपन से बिंधा
रेत का ढूह हूँ
मैं प्रवाह की अनुपस्थिति से परिभाषित हूँ
मैं उदासी से टिक कर खड़ा हुआ हूँ
मैं फिर से बिटुर नहीं पाऊँगा
मुझे मत छूना।
हमारे हाथ
हमारे हाथ
आपस में गुँथे हुए थे
उस रस्सी की तरह
जिसके सहारे नदी में उतरा आदमी
भय से विमुक्त होकर
लगा लेता है डुबकियाँ।
हड़बड़ी
प्रेम हममें भय रोपता था
और भय बना रहा प्रेरणा
हमने एक दूसरे को इतनी हड़बड़ी में चूमा
लगता था कि
तानाशाही फ़ौजों से बचकर मिल रहे हों
किसी बदकते विद्रोह के संदेशवाहक।
तुम
मेरे लिए हो
वह लिपिहीन भाषा
जिसमें मैं नास्तिक
हताशा के समय
रुलाई रोके
किसी अज्ञात से
करता हूँ प्रार्थना।
नैश्चित्य
नाक पर टँगे चश्मे की तरह
हमेशा सामने ही रहता है
सारा नापा-जोखा हिसाब
सप्ताहांत-त्यौहार-परिवार
किलोमीटर, घंटे और किराया
ऊपर से अच्छा मौसम भी
एक आत्मीय स्पर्श की तरह
अब इस देश में अलभ्य है
और साथ ही मुझे पता है
उन तारीख़ों की गत भी
जो मेरे शुभेच्छुओं के घर में
कैलेंडर पर योजनाओं और डेडलाइंस में
घुटते हुए मिल जाते हैं
मुझे पता है
हर अगले आगंतुक का चेहरा
मुझे पता है
सभी असंभाव्यों की निश्चितता
मैं क़ब्रगाहों से भी गया-बीता हूँ
मुझे किसी की प्रतीक्षा नहीं है।
प्रेम की अराजकता
हम आख़िरी बार तब मिले
जब तय नहीं था
उस भेंट का आख़िरी होना
विरह की तमाम पीड़ाओं के बीच
हमने इतने नियोजित जीवन में
बचाए रखी प्रेम की अराजकता।
अमित तिवारी हिंदी कवि-अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें :
प्यार, परिधि और चुंबन
स्तब्धता मेरा समर्पण थी
तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है
तुम्हारी कविताएँ मुझे किसी सर्द रात में रेगिस्तान के बीचों बीच अकेले ले जाकर खड़ा कर देती हैं।