कविताएँ ::
अमिताभ चौधरी
नगर से देहात की ओर
देहाती हवा में साँस ऐसे आई
जैसे तवे पर रोटी आती है। या
चूल्हे पर तवा आता है। किंतु, वे
नगर से देहात की ओर ऐसे नहीं आए
जैसे कोई श्रमिक
कोई किसान
साँझ के समय अपने औज़ार उठाए
थकी हुई देह को हाँकता आता है।
जैसे खेतों से
खदानों से
घर लौटते श्रमिक को
किसान को
अँधेरा हो जाता है कि
सारे औज़ार धर लेने के उपरांत भी
तवे पर रोटी आती नहीं दिखाई देती। या
चूल्हे पर तवा आता नहीं दिखाई देता।
वे नगर से देहात की ओर ऐसे आए
जैसे कोई नगर से देहात की ओर आता है।
भूख में दुःख अनुभव नहीं होता
भूख में दुःख
अनुभव नहीं होता। ऐसा नहीं कि कलेजा
नहीं कटता। किंतु
एक अन्य प्रकार से
आँखों में आँसू नहीं उतरते।
रोटी की भड़ास में लहू जलता है।—
पेट की आग में
भुनती रहती हैं अस्थियाँ।
देह की सिकुड़न में
ईश्वर का दम घुटता चला जाता है।
अनिच्छाएँ उसकी मृत्यु का संवरण करती हैं।—
अलबत्ता, इस समय में मैं नीरस कविता लिखकर
पाठक न होने के घोषणापत्र पर
हस्ताक्षर करता हूँ।
दरिद्र
मैं उस भिक्षुक से दरिद्र हूँ—प्रार्थना के बदले
जिसे देने के लिए
मेरे पास दया नहीं है।
रात के अ-श्वेत उजाले में
आँख मूँदकर देखे गए स्वप्न-सी
वे समस्त कविताएँ—जो मैंने
संसार के सो जाने के मध्य लिखीं; और
जो दिन के शुभ्र अँधेरे में पढ़ी गईं—
एक भिक्षुक की याचना से अधिक
क्या उसकी प्रार्थनाओं का फल थीं?—जिसे
पढ़ना आता यदि तो प्रार्थना नहीं पढ़ पाता!
रार
दो स्वभावों के भेद से
मनुष्य पर मनुष्य का क्रोध
कुत्ते-बिल्ली की रार है।
विचित्र है—युद्ध हो चुकने के उपरांत भी
मैदान में पड़े शव को
कोई सूँघता भी नहीं!
कुत्ता बिल्ली का मांस खाता—या बिल्ली कुत्ते का
—तो यह युद्ध रोका जा सकता था। परंतु,
अब क्या किया जाय?—कि नख मनुष्य के भी
निर्जीव होने के स्थान से बढ़ते हैं और
लहू के बाहर होकर कठोर होते हैं!
अराजकता
धरती के ऊपर होना
आकाश की अराजकता है।
[इतना ऊपर होना
कि हवा न छू पाए!]
अराजकता पुरुष की है—
लिर्लिप्त उभारों के लिङ्ग गढ़ना और
उन्हें दुहना।
[कि, आकाश के नीचे
धरती का ऊसर न होना उसकी अवशता है।
अथवा
स्वभाव है।]
व्याकरण को मादा होने से बचाना व
भाषा के सलीक़े वितरित करना।
खुली खिड़की
खुली खिड़की में रखा एक हल्के काग़ज़ का टुकड़ा
कमरे में आती हवा से
कच्ची ‘पेंसिल’ के तले दबा फड़फड़ा रहा है।
पूरा कमरा उसकी फड़फड़ाहट से भर गया है।
मैं बिस्तर पर थका हुआ निढ़ाल पड़ा
स्मरण करने की कोशिश भी नहीं कर रहा कि
मैंने कुछ लिखने के लिए उसे दबा दिया है? या
…कुछ लिखकर दबा दिया है?
काग़ज़ की ध्वनि के कारण मेरी नींद उचट गई है—
इसलिए, कमरे के भीतर मैं भी
काग़ज़ के टुकड़े की तरह फड़फड़ा रहा हूँ—जैसे थकान से उठकर
अभी खिड़की बंद कर दूँगा!
‘पेंसिल’ तोड़कर फ़र्श फर फेंक दूँगा!!
सुंदर लड़की
…लड़की!
रात को यह शहर होता है एक जंगल।
रात को इस शहर की सड़कें होती हैं गुफाएँ।
रात को यह शहर आदमी से हो जाता है सुनसान।
लड़की!
सुनसान गुफाओं में चमगादड़ पङ्ख फड़फड़ाते रहते हैं,
अँधेरा ओढ़े।
लड़की!
चमगादड़ नहीं चाहते उजाला।
वे जहाँ भी देखते हैं कुछ चमकता हुआ;
पाँखें फड़फड़ाकर झपट्टा मारते हैं और
पञ्जों से उसे आहत करने लगते हैं।
…लड़की!
…ओ सुंदर लड़की!
रात को
तुम घर से बाहर निकलो तो उरोजों को छाती पर कसकर निकलना।
और—
संभव हो तो हाथ में धारदार रखना। [यथा : नख बढ़े। और पैने।]
ओ सुंदर लड़़की!
ओ, रात को घर से बाहर निकलने वाली सुंदर लड़की!
रात में तुम्हारा चेहरा बहुत चमकता है!
नतीजा
प्रेम पर इतनी पंचायतें बैठी हैं
धरती
के
इस
कोने
से
लेकर
उस कोने तक इतने युद्ध हुए हैं
संसार में।
इतनी हत्याएँ
आत्महत्याएँ हुई हैं कि
नतीजा आ जाना चाहिए था!
सरासर ग़लत
सरासर ग़लत है—भूखे पेट नींद आ जाना।
सरासर ग़लत है—
किसी कचरे के ढेर पर ढेर हो जाना।
मरने से पहले ज़हर खाना—और धरती खुरचना।
सरासर ग़लत है मरते-मरते नीला पड़ जाना।
खुरची हुई धरती में पत्थर निकल आना
—सरासर ग़लत है।
अमिताभ चौधरी सुपरिचित कवि हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : एक टूटे हुए पत्ते की स्थिति से वसंत नहीं आना चाहिए │ आँख मूँदकर इस ऋतु को धन्यवाद कहो