कविताएँ ::
राही डूमरचीर

राही डूमरचीर

सरई फूल1साल (सखुआ) का फूल जो वसंत में खिलता है।

झरिया उराँव के लिए

दरख़्तों को उनके नाम से
न पुकार पाना
अब तक की हमारी
सबसे बड़ी त्रासदी है

कहा उससे—
मुझे सखुआ का पेड़ देखना है
बुलाना चाहता हूँ उसके नाम से
सुनो! अपरिचय के बोझ से
रिसता जा रहा हूँ थोड़ा-थोड़ा

साथ चलने का इशारा कर
सारे दरख़्तों से बतियाती
उनके बीच से लहराती चली
वह गिलहरी की तरह

एक पेड़ के सामने रुक
तोड़ कर फूल उसकी डाली से
अपने जूड़े में खोंसते हुए
पलट कर कहा मुस्काते हुए—
अब चाहोगे भी
तो भुला नहीं पाओगे

हिंदी साहित्य की भूमिका
प्रणय कृष्ण के लिए

नोट्स
लेने के लिए
जैसे ही
मैंने लिखा—
‘नीची जाति’
द्विवेदी जी ने
मेरी क़लम पकड़ ली
और कहा,
लिखो—
नीची समझी जाने वाली जाति

ऑलिविये जीरूड

क्या फ़्रांस की टीम से जीरूड
अगला फीफा वर्ल्ड कप खेल पाएगा?
सत्रह साल के कमिंगवा को
उसके साथ खेलता देखते हुए
मुसलसल यह सवाल परेशान करता रहा

अपने पहाड़ी गाँव में बैठा
जियो की मदद से
मैं फ़्रांस की उस ‘राष्ट्रीय चिंता’ में मगन हूँ
जिसे फ़्रांसीसी बिल्कुल तवज्जो नहीं दे रहे
वे तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को
एक देशी पूँजीपति के हाथों मज़बूत करने में जुटे हैं

मैं रॉफ़ेल के बारे में नहीं सोच पाता
उसकी क़ीमत के बारे में झगड़ते नेताओं के बयान
अख़बारों में पढ़ता रहता हूँ
इतना जानता हूँ कि वह बहुत सारे लोगों को
नेस्तनाबूत कर सकता है
इसी से उसकी क़ीमत मेरे याद कर पाने की सीमा
अतिक्रमित कर जाती है
क़ीमतों की जगह तोपों की ज़रूरत पर सोचता हूँ
और ऑफ़ साइड देने वाले रेफ़री पर खीझता रहता हूँ

फ़िलहाल यही बड़ी चिंता है
कि क्या अगला फीफा वर्ल्ड कप होगा?
हुआ तो ख़ाली स्टेडियम में तो नहीं होगा?
मैं तब अपनी मुफ़्लिसी को धता बता
ग्रीज़मैन के हेयर स्टाइल पर खीझ तो पाऊँगा?
ऐसा नहीं कर पाया तो कहीं अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ कुछ कह तो नहीं बैठूँगा?
उम्मीद है कि बलवती है
कहती है—
ऑलिविये जीरूड अगला फीफा वर्ल्ड कप ज़रूर खेलेगा

गाडा2नदी। टोला

एक

हर बार पहाड़ से टकरा रही होती सड़क
मुड़ जाती थी
पहाड़ किनारे होते हुए
पीछे छूटते जाते थे
मेरा सफ़र जारी रहता

ज़िंदगी में कुछ ‘बनने’ की चाहत में
पहाड़ पीछे छूटते गए
नदियों को गाड़ी की खिड़की से
जी भरके देख पाता
उससे पहले ही ख़त्म होती रहीं

बचपन का हमराज़
सखुआ का जंगल भी
इधर कम आता है
गाहे-बगाहे बतियाने

सब कुछ बदलता रहा वहाँ
सब बदलते गए वहाँ
सिवाय मेरे अंदर—
जहाँ गाडा टोला के सबसे आख़िरी घर में
आज भी रहता है पुरखे बास्की वैसे ही

आह! पुरखे
तुम क्यों चले गए मिज़ोरम
सब छोड़-छाड़ के
मेरे बचपन के साथी पुरखे
क्या इतनी भी ताक़त मेरी कलम को नहीं दे सकते
कि लौटा सकूँ तुम्हें वापस
तुम्हारे उसी गाडा टोला के
सबसे आख़िरी घर में

दो

हर गाँव में अमूमन
होता था एक गाडा टोला
कभी-कभी दो भी :
चेतान3ऊपर। गाडा टोला
लातार4नीचे। गाडा टोला

नदी आते-जाते
सब बोलते-बतियाते गुज़रते थे गाडा टोला से
सबसे ज़्यादा रौनक़ होती थी गाडा टोला में

सब तरफ़ के गाँव
नाचते-नाचते थक कर जब सो जाते
थम जाती उनकी लय
तब सबसे देर तक आती थी
आवाज़ माँदर की गाडा टोला से

नदी के उल्लास की ख़ुशबू
हर ओर गूँजती थी
गाडा टोला में

फिर पुरखे बास्की चला गया मिज़ोरम
देवीलाल हेम्ब्रम कश्मीर
बेदे टुड़ू असम
बाहा किस्कू बंगाल

इस तरह
जीने-बचने की जुगत में
छोड़ते गए गाडा टोला सब
एक-एक कर

अब वहाँ एक गाँव आबाद है
जिसमें कोई संताल नहीं है

तीन

नदी कभी सूख जाएगी
सोच ही नहीं पाए कभी
लगा ही नहीं कि
पहाड़ों से बार-बार
कूदती-फाँदती आती नदी
छोड़कर चली जाएगी
हमें एक दिन

कहाँ सोचा था
हमें बिना बताए
किसी रोज़
हमारे बीच से
चला जाएगा
गाडा टोला भी
चुपचाप…

चार

मिट गया
गाडा टोला से होकर
नदी जाने वाला रास्ता

नदी भी स्मृति
हो गई है
मिटते क़दमों वाले
साथ ले गए गाडा टोला
और रूह नदी की

पाँच

हुलास मारती है नदी
सबसे पहले दिल के भीतर
नक़्शे पर
तभी जनमता है गाडा टोला

पहले अंदर मारी जाती है नदी
तब मिटता है नक़्शे से गाडा टोला

ख़त

यह ख़त लिखते हुए देर हुई
बहुत पहले लिखना था इसे

तुम्हारे हाथ में जो यह ख़त भरा लिफ़ाफ़ा है
उसके अंदर बंद पड़े हैं मेरे जज़्बात
जिन्हें अलफ़ाज़ों ने सँभाल कर रखा तुम्हारे लिए

जो कभी नहीं कह पाया साथ रहते
उन बातों को ठहर कर कर लिखा है मैंने
तुम्हारे जाने के बाद ही तो
जान पाया तुम्हें

समझना तब नहीं होता
जब आप सोच रहे होते हैं
कि आप समझ रहे हैं
यह तब घटित होता है धीरे-धीरे
जब आप समझने की कोशिश छोड़ देते हैं

लिफ़ाफ़ा खोलते हुए
तुम्हारी गहरी उदासीनता को
देखता है लिफ़ाफ़ा गहरे आश्चर्य से
लिफ़ाफ़े की रूह की बेचैनी
समझ लेता है अंदर पड़ा ख़त

वह शुरू कर देता है मिटाना अलफ़ाज़ों को
ग़ायब होने लगते हैं एक एक कर सभी अलफ़ाज़
अंततः तुम्हारे हाथ आता है ख़ाली ख़त
जो कभी भीगा हुआ था जज़्बातों से

सालों-साल
बंद रहने के बाद जिल्दों में
उकता गए हैं अलफ़ाज़
इसलिए अब वे
ग़ायब होना सीख रहे हैं

तुम्हें सोचता हूँ

एक

तुम्हें सोचता हूँ
तो
नाज़िम हिकमत ‘पत्नी की चिट्ठी’ लिए
मँडराने लगते हैं आस-पास
बालम के गेह आने की गीत
गाने लगते हैं कबीर
और तो और
अलिखित अफ़सानों के सारे किरदार
छेड़ने लगते हैं मुझे

चाहता हूँ स्थगित कर दूँ
सोचना तुम्हारे बारे में
ताकि मेरे साथ
तुम्हें भी तो चैन मिले
इतने सारे लोगों से

दो

तुम्हें याद करता हूँ तो
अमरूद की मिठास से भर जाता है मुँह
चिड़ियों की चहचहाहट से
गूँजने लगता है मन

तुम्हें याद करता हूँ जैसे
पीली साड़ी पहने बच्चियों का कोई झुंड
साइकिल चलाते गुज़र जाता है पास से

तुम्हें याद करता हूँ
जैसे नहीं याद करने को
ख़ुद को याद दिलाता ही रहता हूँ

तीन

नदियों के पानी का न रुकना ही
पगाता है हजारों गाँवों-शहरों को उनके प्यार में
नदियों को जैसे रोका नहीं जा सकता बहने से
बसंत को भी कहाँ रोका जा सकता है आने से

प्यार आता है
जैसे बसंत की थाप पर मांदर की गूँज
जैसे महुए की गंध के साथ पलाश का फूल
जैसे ख़ूब साफ़ आसमान का कोई तारा
हमारा हो जाता है

प्यार जब भी आता है
मौसम कोई भी हो
बसंत लाता है
प्यार जाता नहीं
अर्थ बदलकर फिर आ जाता है


राही डूमरचीर की कविताएँ ‘सदानीरा’ के लिए सौभाग्य बनकर आती रही हैं। उनसे और परिचय के लिए बेहतर है कि उन्हें और पढ़ा जाए : यूँ ही नहीं गँवाया शहरों ने आँखों का पानीबिखरी हुई चीज़ों के साथ

2 Comments

  1. प्रमोद मई 29, 2021 at 10:52 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर कविताएँ हैंl शुभकामनाएँl

    Reply
  2. Suman मई 29, 2021 at 5:18 अपराह्न

    So nice itane khubsurat se tu mane sari bato ko kabite me samil karne ka gun hai ise banaye rakhana

    Reply

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