कविताएँ ::
अमिताभ चौधरी
एक
काँख आई देह के कंप में
कितना ताप छूटा है?
कितनी मिट्टी छूटी है?
अकाल की भूमि के मध्य खड़े होकर
श्रम में डूबे किसान के पसीने से
यह प्रश्न अंकित करना कठिन है। कवि!
तुम कल्पना कर सकते हो।—
[पृष्ठ को सामने रखकर तुम कल्पना कर सकते हो।]x x x x x x x x
तुम कह सकते हो : ऊसर भूमि से पसरे हुए इन खेतों में
इतनी निकट शिरोरेखाएँ की हैं कि
एक शब्द लिखने को स्थान नहीं!
दो
“पीताभ कोपलों के मूल में
वृक्ष की शिशुता है, प्रिये!”
इस बात को तुम अपनी मातृभाषा में जानो
और कहो, “पीताभ कोपलों के मूल में वृक्ष की शिशुता है, प्रिये!”
मैं प्रार्थना करता हूँ कि तुम प्रसन्न रहो।
तीन
समय नहीं लौटा—
समय की गंध लौटी है।
[जैसे मैंने उसके लौटने की प्रतीक्षा नहीं की!]
मैं उसके समक्ष साँस रोके खड़ा हूँ
कि वह किसी लौटी हुई प्रेयसी की तथागत प्रौढ़ता से
मुझे देखता है कि कब तक साँस रोके खड़े रहोगे?
समय नहीं जानता :
मैंने प्रेयसी के आने की प्रतीक्षा की है,
तब तुम्हारी गंध शेष रही है।
चार
चित्त से उतर गया
अभी का एक उपस्थित
दृश्य
सब दृश्यों में होने की आशा रखता है।—
यदि वह विष नहीं है
तो मैं सर्प के मुख खोलने की प्रतीक्षा करूँगा?
रास्ते पर उकडूँ बैठा रहूँगा
कि यह रास्ता ख़त्म हो?
मैं कहाँ जाऊँगा
यदि मैं कहीं से चला हूँ?
मैं पैरों को उतारकर अपने स्थान पर रख दूँगा कि
“लो!”
और घिसता रहूँगा कि अब कोई उपाय नहीं है!
पाँच
अपनी स्थिरता में ढहती हुई
एक भीत है और
उस पर टिकी हुई छत के नीचे
छाया किए हुए व्यक्ति
कहीं घड़ी टाँगते।—
कहीं दर्पण टाँगते।—
किवाड़ों को खोलते/बंद करते
काठ के स्वर में
वृक्ष से विस्मृत। औ’
धातु से बिंधे हुए।
छह
भूमि भीतर बहती नदी में
लीन होने के लिए
मैं ने बहुत मिट्टी काटी है।
मेह बरसेगा तो इस भूमि पर जल भरेगा।
ओ प्यासे पथिक!
तुम यहाँ पहुँचो।— और
देखो : मैं ने तुम्हारी प्यास बुझाने के लिए असाध्य इच्छाएँ की हैं
तब इतना गहरा हुआ हूँ!
सात
गहरी साँस लो, प्रिये!
वर्षा में
एक अंग हो गई मिट्टी से
सौंध आ रही है।—
आँख मूँदकर इस ऋतु को धन्यवाद कहो!
अमिताभ चौधरी हिंदी कवि हैं। उनकी कविताओं की पहली किताब शीघ्र प्रकाश्य है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : एक टूटे हुए पत्ते की स्थिति से वसंत नहीं आना चाहिए