कविताएँ ::
अंकिता आनंद

अंकिता आनंद

प्रश्नावली

जिसे आपके हाथों ने थामा न हो उसे जाने देने की प्रक्रिया क्या है?
अजन्मे सपने को कैसे दफ़नाते हैं?
पंक्तियों के बीच पढ़ने को कहा जाता है
पर उतनी-सी कोरी जगह में नई पक्तियाँ लिखी कैसे जाएँ?
उन शब्दों को धैर्य से कैसे सुना जाए
जिन्हें इस क्रम में पहले कभी साथ लाया ही नहीं गया?
कोई पीड़ा लगातार शरीर में अपनी जगह बदले तो उसकी कैसी चिकित्सा हो?
उस रास्ते से मोह कैसे जताया जाए जिधर कभी मुड़े नहीं, बस दूर से देखा हो?
ढीला कैसे छोड़ें उस देह को जो बिना तनाव के जी ही न हो?
‘साँस बाहर’ की क्रिया कैसे करें जब इतनी देर से साँस थामे बैठे थे कि अब वजह याद नहीं,
और फिर थामे रह गए कि कहीं बाद में याद आ जाए?
कोख की हरीतिमा को सहलाया कैसे जाए जो उसका आकार मालूम न हो?
ग्लोब इस ढंग से कैसे पकड़ें कि आपकी उँगलियों की छुअन से कोई भी हिस्सा अछूता न रहे?
उन हाथों को गालों पर कैसे टिकाएँ ताकि किन्हीं अनछुई लकीरों की स्मृति त्वचा को जला न दे?

अवरुद्ध

किसी क़ातिल या अपहरणकर्ता की तरह
छपे पन्नों से काटे गए शब्दों के
कोलाज वाली चिट्ठी भेजी तुम्हें।

इससे दो फ़ायदे हुए।

तुम्हें पता चला किस क़दर फँस जाती है
मेरी आवाज़ तुम्हारे नाम के इर्द-गिर्द
चाह सकने और न रो पाने के बीच।
अल्फ़ाज़ों के बीच के फ़ासलों में
कई बार जीना-मरना हो जाता है मेरा।

और तुम्हें बता सकी कि कितनी महानताएँ
उधार ली मैंने प्रतिष्ठित कवियों से
अपना क़द ऊँचा करने के लिए
ताकि पहुँच सकूँ तुम तक।

हर रात मेरे सिर और पाँव के सिरे
तने होते हैं तुम्हें न छू सकने की छटपटाहट में—
(तभी खिंचाव के साथ संतुलन रख पाना योग कहलाया होगा)
अपहरणकर्ता मैं नहीं,
मैंने रोज़ अपने हाथों को बँधा पाया है।

मृत घोषित

उसके आख़िरी दिनों में
कभी टूथपेस्ट के ट्यूब को
दो टुकड़ों में काटा हो,
तो तुमने देखा होगा
कितना कुछ बचा रह जाता है

तब भी जब लगता है
सब ख़त्म हो गया।

ज़िंदगी का कितना बड़ा टुकड़ा
अक्सर फ़ेंक दिया जाता है
उसे मरा समझ।

सबूत

हाँ, आप सही थे
एक बार फिर

हाँ, आपने तो पहले ही कहा था
एक दिन मुझे एहसास होगा
कितना मुश्किल है
अकेली औरत होना

हाँ, मुझे याद है
मैंने आपकी बात नहीं सुनी थी
जब आपने कहा था

पर दरअसल
सुन तो मैं रही थी
हर रोज़
आपसे, कि कितना मुश्किल है ये

देख रही थी
आपको रोज़ ये कहते हुए,
मेरे लिए
ऐसा होना
मुश्किल बनाते हुए।

सकारात्मक

अपने व्यक्तिगत शोक के उत्तरदायी आप स्वयं हैं।

लज्जाजनक कुछ नहीं—
इस दुर्बलता में भी
सेल्फ़-हेल्प उद्योग के सक्षम निवेशक हैं आप।

कश्मीर से लेकर कुमारी
कन्याओं तक की कहानियाँ
अगर निजी तौर पर आपकी छाती में बर्फ़ जमाने लगें,
तो बदलाव की ज़रूरत व्यवस्था को नहीं
आपके नज़रिए को है,

और यही है
आपकी हैसियत के भीतर।

ठगी

क्या ही खीझ भरा पल होता है
आप अंदर महसूस कर रहे हों
गूढ़ पेंटिंग-सा कसा हुआ और उन्नत
और शीशे से मिलने पर
एक भयभीत क्षमा-याचना दिख जाए
या तो रेत रगड़ ली जाए चेहरे पर
या नाक बंद कर
कहीं विलीन डुबकी का प्रावधान हो
पर माँ कसम
इस उधर-इधर के छल को
आज जड़ से मिटाने का
इंतज़ाम कर ही लिया जाए।

वाष्पीकरण

अगर आपके यहाँ सुबह
कुहरा ओढ़ कर आती है,
आपको पता होगा
अक्सर लोग चलते रहते हैं
इसलिए नहीं क्योंकि उन्हें रास्ता साफ़ नज़र आ रहा है,
बल्कि इसलिए क्योंकि उनके पास और कोई रास्ता नहीं।
जहाँ धुँध का डेरा होता है
वहाँ सबसे बेहतर समझ होती है
वादों के अस्थायी व्यक्तित्व की :
कहे को भाप बन उड़ते देर नहीं लगती।
सब फिर भी साथ रहते हैं
जाड़े के विरुद्ध
संयुक्त मोर्चा प्रस्तुत करने के लिए।

कुछ औरतें

कुछ औरतें अपने बुने को उधेड़ देती थीं

कुछ चूल्हे के बुझ जाने पर देर तक
नज़र गड़ाए रखती थीं अंगारों में,
आँखों में उगाती थीं नसों के लाल पेड़

कुछ कुएँ से पानी निकालते हुए बहुत
ज़्यादा भीतर तक डूबने देती थीं बाल्टी को
आने देती थीं ऊपर जो भी आना चाहता था

कुछ घरवालों से छिपकर उस गाय को
गुड़ दे आती थीं जो फिर गाभिन नहीं होती,
और कुछ देर शांत बैठती थीं
उस दशहरे प्रसाद होने वाले पठरू1बकरा के साथ

कुछ रोज़ जाती थीं आत्मकामी या बेरुख़े पति की शैय्या पर,
और सोती थीं रात के संग, अगले पहर जागती हुई

कुछ बेटे को भी ओढ़नी बाँध खेलने देती थीं
और हाथ की सफ़ाई से टपका देती थीं
बेटी की थाली में घी

कुछ सुबह की चाय में देरी के लिए रोज़ उलाहने सुनतीं
और नहीं बतातीं किसी को कि सुबह नदी के लिए
जाते हुए वो आम के बग़ीचे में रुकी थीं,
न ये खुलासा करतीं कि क्या घटा दोनों के बीच

कुछ ने डरती सहेलियों के हाथ दबा
उनके इलज़ाम अपने सर ले लिए थे,
और उनके निशान भी

कुछ औरतें सालों पहले अन्य जाति के लड़के को देख मुस्कुराई थीं
और सालों बाद भी खुले दालान में सबके साथ बैठीं
उसे अंदर कहीं बंद रखती थीं सुरक्षित,
और इस जीत को सोचकर फिर से मुस्कुराती थीं

क्योंकि कुछ औरतों को आता था
आने के साथ जाना भी,
उनसे सब डरने लगे
घोषित करने लगे उनके पाँवों को उल्टा

जब कहा कुछ औरतों ने कि वो कई मर्तबे
झुलसी हैं जिस इंसान के साथ सोने पर
अब उसकी चिता पर तो वो साथ नहीं लेटेंगी
तो होम किया गया उन्हें

और उस भभूत से बहुत रोती बहुत औरतों ने
रगड़ डाली कई कड़ाहियाँ
जब तक कुछ औरतों की शक्ल
नहीं झलक आई लोहे पर

और बहुत औरतों ने अंदर कहीं बंद रख लिया सुरक्षित
उन चेहरों को
और इस जीत को सोचकर फिर मुस्कुराने लगीं।

अंकिता आनंद हिंदी कवयित्री हैं। उनकी कविताओं की पहली किताब प्रकाशनाधीन है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : मैं देश हो गई

1 Comment

  1. मीता दास जनवरी 9, 2021 at 4:48 पूर्वाह्न

    अच्ची रचनाएँ

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