कविताएँ ::
अनुज लुगुन

अनुज लुगुन

अपराध-बोध

मैंने फूलों के रंग को देखा
रंग जुटाने के उनके श्रम को नहीं देखा

चिड़ियों को गाते हुए सुना
उनके उड़ान की थकान को नहीं जाना

फ़सलों से केवल बीज लिया
अंकुरित होने की
उनकी पीड़ा को समझ नहीं पाया

अनगिनत सदियों से
मछलियों को भोजन बनाया
लेकिन सीख नहीं पाया उनके समर्पण की भाषा

कई बार मैं स्वार्थी बना रहा
अपने आदमी होने की सीमा में

कई मायनों में मैं तुम्हारा भी अपराधी हूँ
कई बार मैंने तुम्हारे ग़ुस्से को नहीं समझा
कई बार मैंने तुम्हारी लालिमा को नहीं पहचाना
कई बार मैंने पृथ्वी के
जीवित रहने की वजह को नहीं जाना।

पेड़ से गिर कर मर जाती है अस्मिता
दादी नारोडेगा के पेड़ से गिर कर मरने का शोक

बहुत मुश्किल से वे जुटा लाती हैं बच्चों के लिए
हरे छीट के कपड़े
उनके जूठे मुँह को अपने आँचल से पोंछ लेती हैं
उम्र गुज़ारती हैं वे नंगे पैर नदी किनारे चलते हुए
मछलियाँ जानती हैं उनका दुःख

औरत होना हँड़िया बेच कर जीना नहीं होता है
वे तो उस पार जाना चाहती हैं
जहाँ उनके बच्चों का जीवन बेहतर हो
वे जानती हैं अत्याचार और उपेक्षा से उलझी उनकी दुनिया
केवल पुरुषों के संघर्ष के लिए नहीं है
वे बराबर की हिस्सेदार हैं
सच तो यह है कि वे
पुरुषों से ज्यादा जोखिम उठा कर
जीवन को पटरी पर लाती हैं

लेकिन एक दिन उनके बच्चे मज़दूरी में
दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों के अश्लील सपने उठा लाते हैं
और उनके अनुभवों को ठोकर मारकर
सलमान खान या ऐश्वर्य राय हो जाना चाहते हैं
कई बार तो वे मुंबइया फ़िल्मी अंदाज़ में
विद्रोही बनकर दिशाहीन बंदूक़ लहराने लगते हैं
जिन चीज़ों के विरुद्ध उन्होंने स्वीकारी थी क़ुर्बानी
वही चीज़ें उनके खेतों में उगने लगती हैं
अकेले सँभालना मुश्किल होता है विज्ञापनों से उठती हिंसा को
उनके बुढ़ापे की पोटली से रिसता है सदियों का दुःख

वे जिस पेड़ पर चढ़कर फुटकल साग तोड़ती हैं
जिस पेड़ के पत्तों से
उनकी बकरियाँ अपने थनों में दूध भरती हैं
एक दिन वे उसी पेड़ से गिरकर मर जाती हैं
पेड़ों की मृत्यु से पहले भयावह है उनकी मृत्यु
इन औरतों के बिना पेड़ों की तहज़ीब नहीं है
पेड़ों की जो ममता है वह इन्हीं की छाया है

औरतें जो आदिवासी हैं वे विचारों में चट्टानी हैं
लेकिन चट्टानों से होकर बहता पानी उनके दिलों को भेद देता है
उनकी आँख के कोरों में है सभ्यता का महाकाव्य।

अस्तित्व की लूट

मधुमक्खियों के छत्ते पर गिद्ध के पंजे
शहद के लिए नहीं
मधुमक्खियों के लिए ख़तरनाक हैं

शहद उपज है
उपज को लूटने का इतिहास पुराना है
अराकती के दिनों की बात हो
या नीलहे किसानों की बात हो
उपज की लूट
अस्तित्व की लूट है

गिद्ध शहद पर नहीं
मधुमक्खियों की
मज़दूरी पर झपटा मारता है
मज़दूरी की लूट
अस्तित्व की लूट है

मधुमक्खियों की उपज की ओर
फिर से बढ़े हैं—
गिद्धों के पंजे।

मुझे धूप घड़ी देखनी थी

मुझे धूप घड़ी देखनी थी
उसमें विजयी होता हुआ समय देखना था
उन दिनों जब बचपन में हम हॉकी खेला करते थे
तब सूरज से एक विनती रहती थी कि वह धीरे-धीरे बढ़े
वह उस सुई तक न पहुँचे जब तक कि हम गोल न दाग दें
घड़ी की वह सुई खतरे की सुई लगती थी

मुझे देखनी थी धूप घड़ी
उसके उस समय को देखना था जिसमें कोई ख़तरा न हो
मुझे उत्साह और उल्लास देखना था
हिप-हिप हुर्रे देखना था

मुझे देखनी थी धूप घड़ी
यह कोई बीता हुआ कथन नहीं है
आज जब मैं महामारी के चपेट में लोगों को देख रहा हूँ
मज़दूरों और विद्यार्थियों की निराशा को देख रहा हूँ
तब कह रहा हूँ कि मुझे धूप घड़ी देखनी थी

हाँ, मुझे धूप घड़ी देखनी थी
लेकिन मैं देख रहा हूँ—
शमशान घाटों में जलने के इंतज़ार में बैठी चिताओं को
उन लोगों को देख रहा हूँ जो दवा लेने की क़तार में घंटों खड़े हैं
मैं शवदाह गृहों को देख रहा हूँ
अस्पताल की भीड़ देख रहा हूँ
वैक्सीन की ख़बर देख रहा हूँ
ऑनलाइन कक्षा के लिए डाटा खोजते युवाओं को देख रहा हूँ
हॉस्टल से खदेड़े जा रहे विद्यार्थियों को देख रहा हूँ
मैं चुनाव देख रहा हूँ
जुमले देख रहा हूँ
वोट की छीना-झपटी देख रहा हूँ

मुझे धूप घड़ी देखनी थी
लेकिन मैं मरी हुई आत्माओं का उपहास देख रहा हूँ
मैं सदी की भयावह त्रासदी देख रहा हूँ

मुझे धूप घड़ी देखनी थी
लेकिन मैं सत्तर साल का लोकतंत्र देख रहा हूँ
अँधेरी सुरंग में खदेड़ी गई भेड़ों को देख रहा हूँ
सोंटा घुमाते निर्दयी गड़ेरियों को देख रहा हूँ

मुझे धूप घड़ी देखनी थी
हिप-हिप हुर्रे करना था
लेकिन मैं सदन की मृत्यु देख रहा हूँ।

मृत्यु की परिभाषा

जो मरे सीमा पर वे शहीद होकर मरे
उनके लिए अख़बारों ने लंबे लेख छापे
टी.वी. वालों ने ख़ूब देशभक्ति दिखाई
चुनावी मुद्दा बना उनकी मौत

और कुछ लोग जो
रोज़गार की तलाश में मरे
सड़कों पर मरे
जुलूस में मरे
ट्रेन की जनरल बोगियों में मरे
प्रतियोगी परीक्षाओं के रिजल्ट के इंतज़ार में मरे
उनके लिए नहीं थे कहीं श्रद्धांजलि के शब्द

समय ही ऐसा निर्दयी हुआ है कि
सरकारें क्रूर हो गई हैं और
लोग अनुचर
मृत्यु की भी बन रही है अलग-अलग परिभाषा
एक भाई जो सीमा पर बंदूक़ ढो कर मरा
वह हुआ देशभक्त
और एक भाई जो सवाल उठा कर मरा
वह हुआ गद्दार

यह दौर भारत के मानचित्र पर
ज़हर बोए जाने का दौर है।

मेरा शोकगीत

मेरी आँखों में जो पानी है
वह समुद्र का खारा पानी है
इसे नहीं समझा
उसको पीने वाले जीवों ने

मछलियों ने नहीं समझा मेरी धारा को
वे उसमें गोते लगाती रहीं
वे चाहतीं तो अपने गलफड़ों से
मुझमें साँस भर सकती थीं
लेकिन वे उच्छृंखल बनी रहीं
अपनी चमक-दमक से

ग़ोताख़ोर घुसे मेरे अंदर
और उन्होंने निकाल लिया
अपने-अपने हिस्से का मोती
पर्यटक आए और
मेरी तटों को रौंद गए
अपनी छुट्टियों से

मेरे लिए कहीं नहीं था आराम
कोई छुअन नहीं थी
मेरी पलकों की कोरों के लिए
मैं जलता रहा
दिन-रात
रात- दिन और
खारे हो गए मेरे आँसू
जमे नहीं मेरे सपने।


अनुज लुगुन (जन्म : 1986) सुपरिचित और सम्मानित हिंदी कवि-लेखक हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘बाघ और सुगना मुण्डा की बेटी’ (2017) शीर्षक से वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। उनसे anujlugun@cub.ac.in पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. yogesh dhyani जुलाई 6, 2021 at 3:24 अपराह्न

    anuj ji ki kavitayen bahut shashakt hoti hain, we jis warg ka pratinidhitv apni kavitaon me kar rahe hain, us peedhi ke liye unki kavitayen ek oorja ka kaam karti hai. bahut badhai anuj ji

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