कविताएँ ::
अनुराग अनंत

अनुराग अनंत

यह कौन-सी जगह है

मुझे नहीं पता यह कौन-सी जगह है
किसी शीर्षकहीन कविता का वक्ष है
या किसी पुराने शहर का सीलन भरा कमरा
यहाँ से हवा में तैरता हुआ दिखता है गुम्बद

यहाँ बहुत सारी रेत है
जिसे बादल कहने को जी चाहता है
पानी है पर उसे पिया नहीं जा सकता
हवा है पर उसके होने से होती है घुटन

एक नदी भी होनी चाहिए थी यहीं कहीं
जिसके किनारे पर बैठा था वह हठयोगी
आकाश की ओर हाथ उठाए
ईश्वर को ललकारता हुआ
पीछे से आनी चाहिए थी—
हरे राम-हरे कृष्ण की मद्धम ध्वनि
सिर मुँडाए हुए दो उघार आदमी और एक बच्चा
नदी में नहाने को तैयार खड़े रहने चाहिए थे
और एक बेवा औरत भी होनी थी
जो घर में इन तीनों के लौटने का इंतज़ार करती

पर यहाँ सिर्फ़ अँधेरा है
अँधेरे में क्या है?
वह जो कुछ भी होना चाहिए था
क्या पता अँधेरे में ही हो
और दिख न रहा हो

मुझे डाकिया होना था
पर मैं लिफ़ाफ़ा हो गया हूँ
मैं जानता हूँ किस दुःख से सनी है यह चिट्ठी
क्या स्वाद है इसका और किस रंग में रँगी है यह

लौट आने के रास्ते पर बहुत सारे चौराहे हैं
इसलिए लौटते हुए हर बार भटक जाता हूँ
एक बार भटक कर पहुँच गया था
एक स्वप्न में
जिसमें तुम मेरे बाल सँवार रही थीं
और मैं तुम्हारी गोद में बच्चे-सा बैठा था
तुम मुझे अपनी पैदाइश का शहर घुमाती रहीं
और मैं तुमसे पूछता रहा—
तुम्हारे प्रेमी का घर कहाँ था माँ?

कहाँ मिली थी उससे पहली बार
और आख़िरी बार भी
कैसे बिछड़ गए
और बिछड़कर फिर कभी मिले भी या नहीं?
उसका चेहरा याद है?
और उसकी बातें?
क्यों मुस्काती हो जब कोई आधे बाज़ू तक
चढ़ा लेता है अपनी कमीज़
कहाँ खो जाती हो जब बरसते हैं बादल
मैं जानता हूँ यह तुम्हारे और मेरे भीतर
बहुत कुछ तोड़ देगा
पर मैं देखना चाहता हूँ
तुम्हें एक लड़की की तरह प्रेम में डूबी हुई
ग़लतियाँ करते हुए,
रातों को जागते,
सिसकियाँ भरते
और सपनों का कपास कातते हुए
यह अपराध के आस-पास की कोई चीज़ है
पर बता सकती हो तो बताओ
प्रेमी के पहले स्पर्श का महात्म्य
प्रथम चुम्बन का महत्त्व
जैसे चलना सीखा है तुमसे
वैसे ही प्रेम करना भी सीखना चाहता हूँ
ग़लतियाँ करूँ तो सहारा देना माँ

माँ! पुरुष से प्रेमी बनना है मुझे
तुमने ही बनाया है मेरा हृदय
तुम ही बना सकती हो मुझे सहृदय

तुम्हारे कमर में उन दिनों बँधे रहते थे
चाबी के गुच्छे
जब तुम्हारे शहर में टहलता था
वह ताले जैसा आदमी

तुम किसी दिन पुराने संदूक़ की तरह खोल देती यदि उसे
तो आकाश में तैरता गुम्बद पक्षी में बदल जाता
मुझे नहीं पता इस बात का क्या मतलब होगा
पर उसी दिन स्नान करते
वे दोनों आदमी और वह बच्चा
उसी दिन प्रकट होती नदी और उस पर पुल
उसी दिन अपना हाथ नीचे करता वह हठयोगी
उसी दिन छँटता अँधेरा और
उसी दिन मुझे पता चलता
यह कौन-सी जगह है
जहाँ मैं क़ैद हूँ
अपनी पहचान अपने आपसे पूछता हुआ

माँ को छिपकर देखना

मैं अपनी माँ को छिपकर देखता रहा हूँ
माँ को जब ऐसा लगता है
कि उसे कोई नहीं देख रहा
तो माँ, माँ होने के अलावा भी ‘कुछ और’ होती है

हालाँकि माँ को हमेशा ही लगता है कि कोई उसे देख रहा है। उसे हमेशा एक तीसरी आँख की निगरानी में रहने का आभास होता है। बहाना बनाते हुए वह उस तीसरी आँख को भगवान कहती है। सच में वह इस तीसरी आँख को किस नाम से जानती है। माँ के अलावा कोई नहीं जानता। मैं भी नहीं।

माँ को हम इस तरह पहचानते थे
कि उसके भीतर रह रही
उस ‘कुछ और’ से अपरिचित थे

मैं उस ‘कुछ और’ से पूछना चाहता था—
माँ होने का अर्थ
मुझे लगता है इस दुनिया में यदि कोई है
जो सही सही बता सकता है माँ होने का अर्थ
तो वही है जिसे मैं छिपकर देखता हूँ
और जो मेरी माँ में कोई और बनकर रहती है

किसी स्त्री को छिपकर देखना पाप है
पर माँ को छिपकर देखने से ही पता चलता है
कि वह भी एक स्त्री है

एक स्त्री जिसके सौभाग्य और दुर्भाग्य में
इतना महीन अंतर है कि
दरअस्ल कोई अंतर ही नहीं है

तवायफ़ का बेटा

वह सब माँओं की तरह नहीं थी
पर थी तो माँ ही
उसने भी रखा था नौ महीने गर्भ में एक बच्चा
और दिया था जन्म उसी योनि से
जिसे बेच-बेचकर बची रही वह
और वह बच्चा भी

वह एक तवायफ़ का बेटा था
वह सब बेटों की तरह नहीं था
पर था तो बेटा ही
वह भी रहा था नौ महीने तक गर्भ में
और निकला था उसी योनि से बाहर
जिस योनि में यह सारी दुनिया
समा जाना चाहती थी

किसी न किसी योनि से निकली है यह दुनिया
किसी न किसी योनि में समा जाएगी एक दिन
शायद किसी तवायफ़ की योनि से निकली हो यह दुनिया
शायद किसी तवायफ़ की ही योनि में समा जाएगी
एक दिन

मुझे नहीं मालूम उसका बाप कौन है
इस बात की फ़िक्र न कभी उसकी माँ को थी
और न कभी उसे ही हुई
पर दुनिया को बहुत फ़िक्र थी
उसकी या उनकी माँ की नहीं, उसके बाप की

दुनिया ने उसे हरामज़ादा कहा
और उसने दुनिया को हरामज़ादी
इस तरह दुनिया और वह
भाई-बहन थे
यह बात वह जानता था
मैं जानता था
दुनिया की दुनिया जाने

हम कभी नहीं समझ सकते उसके दुःख
हमारे दुःखों को वह दुःख ही नहीं मानता
ख़रगोश के टूटे हुए रेशमी बाल लगते हैं
उसे हमारे दुःख
उसके पास है
अपनी माँ के लिए ग्राहक खोजने का दुःख
हमारे पास ऐसा कौन-सा दुःख है
जो उसके दुःख के सामने खड़ा हो सके

सुबह से शाम तक शहर भर को चूमने के बाद
जब चूमती है उसकी माँ उसका माथा
तो एक पीड़ा बहने लगती है
उसकी आत्मा की नसों में
वह भी भोग लेता है वह यातना
जिसे यातना नहीं कहती दुनिया
उसे मालूम है उसकी पहचान को
गाली बना दिया गया
गाली बकता है शायद इसीलिए वह बात बात पर
उसने अपनी माँ के देह पर लदा देखा है शहर
लार टपकाते हुए भद्र जन
अपनी माँ को पेट भरने के लिए
कपड़े उतारते हुए देखा हो जिसने
उसके सामने आँख झुकाकर खड़ा होना चाहिए हमें

तवायफ़ के बेटे से माफ़ी माँगता हूँ मैं
उस पर कविता लिखने के लिए
उसके बारे में लिखते हुए कविता
मैं अनजाने में ही कर रहा हूँ उसके प्रति हिंसा
इतनी संवेदना मैं कहाँ अर्जित कर सका
कि उसकी पीड़ा को कविता में बाँध सकूँ
मेरी कविता के लिए वह दे सकता है मुझे सज़ा
या चाहे तो माफ़ भी कर सकता
जैसे ज़्यादातर को कर दिया है उसने

गुमशुदा की तलाश

मेरी इसी देह में एक बच्चा था
इसी देह में रहेगा एक बूढ़ा भी
आज इस देह में एक जवान आदमी रहता है
जिसके अँगड़ाई लेने भर से हो जाते हैं दर्जनों पाप-पुण्य

मैं अगर मर गया भरी जवानी में
तो फूल बनूँगा
बचपन में मरता तो ईश्वर का आँसू बनता
बुढापे में मरूँगा तो राख के सिवा क्या ही बन सकूँगा

वह जो बच्चा किसी ज़माने में रहता था
मेरी देह में
न जाने कहाँ गया
गुमशुदगी की कोई रपट भी नहीं लिखाई किसी ने
कोई नहीं तो कम से कम
मेरी माँ को तो लिखानी चाहिए थी
अपने बच्चे के खो जाने की रपट

मेरी माँ मेरी देह में रहते
इस जवान आदमी को मानती है अपना बच्चा
मेरी माँ बच्ची है
नासमझ है
उसे नहीं पता
उसके बच्चे जितना नहीं हूँ मैं पवित्र
न उतना भोला और न उतना सच्चा
मेरे चित्त में उभरते हैं ताक़त के द्वीप
उग आए हैं महत्त्वाकांक्षा के कँटीले पौधे
स्त्रियों की देह में प्रकटता है चुम्बक
मेरी नसों में दौड़ने लगा है इस्पाती लहू
जो हर अगले पल मुझे थोड़ा-सा कम मनुष्य
थोड़ा-सा ज़्यादा मशीन बना रहा है
मैं मेरी माँ का वह बच्चा क़तई नहीं
जो कभी मेरी देह में रहता था

मेरी माँ को उसके बच्चे के खो जाने पर रोना चाहिए
मुझे मेरी माँ के नहीं रोने पर रोना चाहिए
और आपको रोना चाहिए उस बच्चे की याद में
जो कभी आपके भीतर रहता था
पर अब कहीं खो गया है
और कोई उसकी गुमशुदगी की रपट भी नहीं लिखा रहा

हम सब पैदा होते हैं और एक दिन खो जाते हैं
हमारे लापता हो जाने की
कहीं कोई रपट नहीं लिखाई जाती
कोई कहीं नहीं तलाशता हमें
हम ख़ुद हमें भूल जाते हैं

अब आप ही बताइए
इस बात पर रोने के अलावा
और क्या किया जा सकता है?

स्मृति का तमाशा

न जाने क्यों याद आती है
अहमदाबाद की वह सुबह
जो सड़क पर फैल गई थी
और सड़क में दिख रहा था चेहरा

वह दुपहर जब बरस रहे थे बदल
और मैं चाय पीते हुए रो रहा था

उस आदमी की स्मृति अभी भी आती है
एकदम समीप
जिसे मैं न तब जानता था न अब
किसी अनजानी भाषा में उसने पूछी थी
मेरे रोने की वजह
कैसा तो बच्चों-सा उत्तर दिया था उसे
मनुष्य हूँ सो रो रहा हूँ

क्या पशु नहीं रोते?
इस प्रश्न के साथ ही
मुझे याद आता है चम्पी
मेरा पिल्ला जिसकी कमर पे चढ़ गई थी
लाल मोटर-साइकिल
उसके रोने की स्मृति इस तरह समाई है भीतर
कि उसी की आवाज़ में रोता हूँ
और लोग मुझसे कहते हैं
क्या तुम मनुष्यों की तरह नहीं रो सकते?

लाल मोटर-साइकिल हर लाल वस्तु में उभरती है
कोई गुलाब भी दे मुझे
तो लगता है कि मोटर-साइकिल से दबकर मरूँगा

रात भर जागने की स्मृति दिन भर सोने नहीं देती
उँगली के पोरों में उतर आती है नींद
गिनता हूँ कितनी अधूरी नींद है हथेली पर

पिता की स्मृति में उगे हैं काँटे
माँ की स्मृति में हृदय भेदने वाला मौन
रोटी में महकती है
भूख की स्मृति
और भूख में याद आती है
सिविल अस्पताल के सामने वाली लाइब्रेरी
और पसीने से भीगा हुआ कुर्ता

बचपन में खाए चीनी के पराठे नहीं होते
तो कितना कड़वा होता जीवन
और वह टूटी कढ़ाई जिसमें माँ बनाती थी खाना
उसकी स्मृति ही है जिसने मुझे बचाए रखा है
यह कहते हुए कि
कितना भी टूट जाए कुछ
यदि चलना चाहे कोई तो काम चला ही सकता है

मैं ख़ुद से काम चला रहा हूँ
जबकि मुझे बदले जाने की ज़रूरत है

पूर्वजन्म का स्वप्न

ऐसा नहीं कि अक्सर ही ऐसा सोचता हूँ
पर कभी-कभी मुझे मेरी प्रेमिका
मेरे पूर्वजन्म की माँ लगती है
जैसे मैं पिछले जन्म में हिरनी का शावक था
और मेरी माँ की छाती में धँसा था तीर
मेरी प्रेमिका की आवाज़ एक हिरनी की कराह है
इस बात को मैं नहीं बता पाता अपनी प्रेमिका को
बस उसे उस तरह चूमता हूँ
जैसे मरते समय उस हिरनी के शावक ने
आख़िरी बार चूमा था अपनी माँ को

मेरे पिता एक व्यापारी की उदारता थे पूर्वजन्म में
इस जन्म में एक संयोग है कि जिससे बँधे हैं हम दोनों
मैं उन्हें ऐसे देखता हूँ
जैसे कृतज्ञता से नहीं देखा जा सकता
उस देखने में कितना क्षोभ है
कितना क्रोध
कितनी व्यर्थता
और कितनी नियति
गणित का व्याकरण समझने वाला
कोई कवि ही बता सकेगा
मैं तो बस पिता में पिता तलाशता हूँ
और मुझे दिखती है एक व्यापारी की खोखली उदारता

मेरी माँ को देखते हुए मुझे लगता है
मेरे पूर्वजन्म में मेरा असफल प्रेम सुफल हुआ है
वह धरती है मेरे माथे पर हाथ
और स्मृति में बहने लगती है कोई नदी
कि जैसे किसी मृत देह में बहने लगा हो रक्त
माँ से लिपटकर मैं स्मृति में प्रवेश करता हूँ
स्मृति जहाँ एक वटवृक्ष है
और मैं उसके नीचे बैठा हूँ
मुस्काते हुए
कोई कहना चाहे तो कह सकता है बुद्ध
न कहना चाहे तो दृश्य देखते हुए रहे
मेरी तरह मौन

मेरे जीवन में जो कुछ भी है
सब पूर्वजन्म का है
यह जन्म भी पूर्वजन्म का ही शेष है
विस्तार नहीं कहूँगा
जानता हूँ यह एक व्यर्थ शब्द है
जिसमें अर्थ भरने की अब तक की कोशिश व्यर्थ रही है

मैं अपने पूर्वजन्म का कोई अधूरा स्वप्न हूँ
जो नींद की कमी से जूझता रहा है पिछले जन्म में
इस जन्म में अगर किसी स्वप्न के लिए दे दूँ प्राण
तो आश्चर्य न करना कोई
यदि किसी स्वप्न में प्रवेश करूँ
और फिर कभी लौटूँ ही न
तो कोई प्रतीक्षा मेरी राह न देखे

परिवार

मेरे पिता इतने सीधे थे
कि पागलपन की सरहद के इधर-उधर होते रहते थे
मेरी माँ इतनी पतिव्रता
कि हमेशा पीड़ित ही दिखी मुझे

मेरी बहन एक स्वप्नजीवी लड़की थी
प्रेम में डूबी हुई
मैंने बहुत चाहा कि उसका चेहरा मुझे
बुद्ध की तरह दिखे
पर वह मुझे एक नरम चारे की तरह दिखती रही
मैं डरता रहा कि कहीं कोई चबा न जाए उसे
और अफ़सोस मेरा डर सच हुआ एक दिन
वह एक दिन ऐसे आया कि फिर कभी नहीं गया

मेरा भाई पहाड़ के सामने खड़ा होता
तो पहाड़ अपनी देह टटोलने लगता था
पहाड़ को पहाड़ होने पर संदेह होता उसके सामने
वह नायक बनना चाहता था
इसलिए चोरी-चोरी आँसू पीता था
और खुलेआम ग़ुस्सा
वह एक स्वप्न का नागरिक था
और नहीं चाहता था
कि कोई उसकी नागरिकता का प्रमाण माँगे
वह अपने निजी यथार्थ में छिनी उँगली पर
उठाए रहता था गोबर्धन
और सारी दुनिया उसके नीचे खड़ी गाती रहती थी
उसके स्वेद की सुगंध
उसकी इच्छा थी कि वह जिस भी दृश्य में रहे
वह उसकी तस्वीर में बदल जाए
वह इस तरह होना चाहता था
कि उसके होने के नीचे खींची जाए रेखा
उसके होने पर चलाया जाए हाइलाइटर
पर प्रेम की गुलेल से घायल हुआ वह
अब एक पक्षी की तरह देखता है आसमान
एक यात्री की तरह निहारता है घर से बाहर
मैं उसकी यात्रा और उड़ान के लिए करता हूँ प्रार्थना
पर ईश्वर है कि कान में ईयरफ़ोन लगाए सुन रहा है
ग़ुलाम अली की ग़ज़ल

मैं परिवार वह सदस्य
जिसे छोड़ना था अश्वमेध का घोड़ा
काल के कंधे पर चढ़ कर नाचना था
मैं बन गया कवि
रह-रह कर लौटता रहा स्मृति की तरफ़
स्मृति जो कि अतीत की बेटी है
ब्याही गई मुझसे
मैं बन गया अतीत का दामाद
जबकि मुझे भविष्य का जमाई होना था
न चाहते हुए भी मैंने अपने वर्तमान को छला
मैं अपने वर्तमान का अपराधी हूँ
मैं वर्तमान को छलने की सजा भोग रहा हूँ
मैं मेरे वर्तमान के आँसुओं से भीग रहा हूँ

गर्भवती स्त्री

तुम्हारी याद में पेड़ से पत्ते टूटे
और नदियों का जल सूख गया
पर्वतों से चट्टाने गिरीं
और पत्थर से टकराकर पत्थर टूटते रहे

मैं बरसात के दिनों में रोया
गर्मियों के दिनों में जला
सर्दियों में बर्फ़-सा जमता रहा
और पतझड़ में उजड़ गया
ऐसे बीता समय
या ऐसे धँस गया समय जिगर के बीचोबीच

लोक-कथाओं में मेरा सूखे पत्तों की तरह टूटना
बर्फ़-सा जमना
जंगलों की तरह जलना
और आदमी से नदी बन जाना
सब दर्ज किया जाएगा

लिखी जाएगी आत्मा से बिछड़ी देह की त्रासदी
कवि अपनी स्याही से करेंगे मेरा तर्पण
और एक उमस भरी शाम जब तुम पढ़ोगे मेरी कविता
तुम्हारा मन तड़पकर रोने को करेगा
और तुम कपूर की तरह हवा में उड़ जाओगे
‘मैं’ जिसे दुनिया भर की चिंता रही है
मैं अभी-अभी भविष्य में बहने वाले
तुम्हारे उन आँसुओं में बहा जा रहा हूँ

किसी से बिछड़ने के लिए भी
उससे आख़िरी बार मिलना होता है
किसी को भूलने के लिए भी
उसे याद करना पड़ता है
उबरने के लिए तैरना पड़ता है
और जीने के लिए मरना पड़ता है
ये विरोधाभास वे पंजे हैं
जो मेरे रक्त से रँगे जाएँगे

रेडियो मेरा दुश्मन है
जब मैं यह चित्र बना रहा हूँ
‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है’
गा रहा है रेडियो और मेरे शहर के
यमुना पुल पर खड़े-खड़े
एक टूटा हुआ आदमी नदी की धार देख रहा है
गाना बदल गया है
अब ‘तेरे बिना जिया जाए न’ बज रहा है रेडियो पर
और मैं सोच रहा हूँ
जब जिया नहीं जा रहा हो
तब भी मरा नहीं जा सकता

पैरों में ज़ंजीरें दिखती नहीं पर होती हैं
माँ ने नीचे कमरे से बेटा कहाँ हो आवाज़ लगाई
और मेरे पैरों में ज़ंजीर उभर आई

तुम कहाँ होगी, कैसी होगी, क्या सोचती होगी
जैसे सवालों का कविता में आने का मतलब
कविता का मर जाना है
और ये सवाल जो जीवन में आ गए हैं
उनका क्या किया जाए

मैं गणित में कमज़ोर नहीं था
लेकिन मैं नहीं जान सका कि
तुमसे घटकर मैं शून्य बचूँगा
दुनिया की परिभाषा किताबों में कुछ भी हो
मेरे लिए दुनिया
किसी गर्भवती स्त्री का उभरा हुआ पेट है

मुझे नहीं पता था कि
तुम्हारा गर्भवती होना
मेरी दुनिया की परिभाषा बदल देगा

अगला मौसम और इस पार
और उस पार का फ़र्क़

ख़ुद के लिए
ख़ुद को लिए हुए लौट आना
जाने से भी ज़्यादा ख़तरनाक क्रिया है

इस तरह अकेले होना कि अपनी ही आवाज़
पराई लगने लगे
और बतियाने लगना अपने आपसे ही
पागलपन के साथ कबड्डी खेलने जैसा है कुछ

बेसहारा होने का अहसास सूरज डूबने के साथ उगता है
और मुझे मेरे पिता का पसीना महकने लगता है
चौखट पर सिर पे हाथ धरे बैठी अम्मा दिखने लगती है
पाँवों में टूटी चप्पल पहने मैं लौट रहा होता हूँ
किसी उलझन से किसी दूसरी उलझन की तरफ़
कि तुम्हारा नाम भी साथ नहीं होता इन दिनों
हाय! कैसी तो मुसीबत है
कि इसका नाम भी ढंग से नहीं जानता मैं

सुबह उठते ही टकराती है
मुझसे यह मुसीबत
बेडरूम और टॉयलेट के बीच
रास्ते में
और मैं अपना बटुआ खोलकर देखता हूँ
कि जैसे किसी अस्थमा के मरीज़ ने
इन्हेलर से ली हो साँस

देखो ऐसा है
कि यह एक अँधेरा कमरा है
जहाँ दीवारों का रंग भी नहीं दिखता
यह बात बहुत उदास करेगी तुम्हें और शायद सबको
कि चाँद को देखते हुए रुलाई छूटती है इन दिनों

माँ जो हमेशा से बच्ची ही थी
उसे नहीं बता सकता
कि साँसों में उग आए हैं काँटे
लँगड़ाकर चलता हूँ
जब सोचता हूँ भविष्य के बारे में
अतीत बीतता ही नहीं
वर्तमान किसे कहते हैं
खोजता रहता हूँ दिन-रात
शब्दकोशों के तहख़ानों में

इस पार खड़ा हो देखता हूँ उस पार
कि इच्छा ही नहीं इस मौसम में
नदी पार करने की
अगला मौसम बरसात का मौसम है
मुझे लगता है
इस पार—उस पार का फ़र्क़ मिटने वाला है

नहीं यह डूबने की इच्छा पर लिखा गया निबंध नहीं है
यह अवसाद के सामने खड़ा हुआ आईना है
मेरा अवसाद दर्पण देख रहा है
सज-सँवर रहा है
मैं उसे विदा करने वाला हूँ
वह जाने वाला है
कि फिर उस पार—
इस पार का फ़र्क़ मिट जाएगा
पर जब तक है यह मेरे घर
मेरा अवसाद मेरा अतिथि है

हाँ! मैंने अपने अवसाद से कभी घृणा नहीं की
जब भी आया वह
मैंने इसी तरह उसकी आवभगत की
और ख़ुशी-ख़ुशी विदा किया उसे

और अपने आपसे बस इतना कहा—
कि अगला मौसम बरसात का मौसम है
इस पार—उस पार का फ़र्क मिटने वाला है

तुम्हारी आवाज़ से पकी नींद

मैं आकाश की तरफ़ देखकर बड़बड़ाया
किसी की नींद टूटी हो
तो इसमें नींद की ग़लती है, मेरी नहीं!

मेरी आवाज़ ने वर्ज़िश की है
और संभव है जिसकी नींद टूटी हो
वह रात में तारे गिनता हो
उसकी नींद रखती हो सोमवार का व्रत
जिसकी वजह से मांस न चढ़ता हो—
उसके बदन पर

कमरे में रखकर भूली हुई
किसी चीज़ की तरह रोशनी ढूँढ़ते हुए
तुम्हारे घर तक जाता था
कि सूरज वहीं डूबता था रोज़
उगता शायद तुम्हारी हँसी से था
जिस दिन देर तक सोती थी तुम
कुहासे में डूबा रहता था सूरज
बाद में जब सूरज उदास रहने लगा
मैं जान गया ख़ुश नहीं हो तुम ससुराल में
तुम्हें चाय में चीनी कम डालनी चाहिए
तुम्हारे पति को नमक की ज़रूरत है

मैं भी भटक जाता हूँ
मुझे जाना होता है नाक की सीध पर
और मैं अतीत की नाक बचाने लगता हूँ
मैं नहीं चाहता
कि कोई कहे कि हमारा अतीत नक्ककटा है

इस तरह नहीं हुआ
कि हम अपने आपको समझते बस मनुष्य
तुम इतना त्याग न करती
और मैं आसमान की तरफ़ न देखता
कितना अच्छा होता
कि तुम मेरी क़लम की नोक पर बैठती
और मैं उतर जाता कविता के हृदय में
तुम मुझे छूती और छत पर उगती धूप
मैं तुम्हें निहारता और हो जाती शाम

कितना अच्छा होता हम जीवन में रचते कविता
पर इतना भी बुरा नहीं कविता में जीवन रचना

माँ के हाथों की रोटी और तुम्हारी आवाज़ से पकी नींद
अब शायद नहीं मिलेगी इस दुनिया में
अब शायद सारा जीवन भूखा ही रहूँगा
नींद को तरसता हुआ
आसमान की तरफ देखता और बड़बड़ाता हुआ


अनुराग अनंत (जन्म : 1989) हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध अत्यंत समर्थ कवि-कहानीकार हैं। उनकी रचनाएँ महत्त्वपूर्ण प्रकाशन स्थलों से प्रकाशित और पुरस्कृत हो चुकी हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : अँधेरे की शक्ल मेंमहामारी का साल : बारह महीने—बारह कविताएँ

3 Comments

  1. सुमित त्रिपाठी जनवरी 22, 2023 at 4:13 अपराह्न

    कुछ बहुत सुंदर कविताएँ। कमाल की पोएटिक सेंसिबिलिटी है। क्या ख़ूब।

    Reply
    1. Arbind kumar Poddar फ़रवरी 5, 2023 at 1:13 अपराह्न

      चरण वंदन, एक घूँट मे नही पी पाया आपकी रचनाओ को, बार बार कई बार दोहरा रहा हूँ आपकी पंक्ति को, गला भी रुंध गया है!!
      “तवायफ़ का बेटा ” जीवन दर्शन!!
      धन्यवाद!!

      Reply
  2. Chinmayi जनवरी 29, 2023 at 11:05 पूर्वाह्न

    अद्भुत कविताएं हैं ये…शेयर करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

    Reply

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