शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी की नज़्में ::
लिप्यंतरण : मुमताज़ इक़बाल
तीन शामों की एक शाम
ये सुरमई-सी शाम
रगों में जिसकी दौड़ता है ख़ून शफ़क़ के लालाज़ार का
किसी हसीना की उतारी ओढ़नी की तरह
मलगिजी-सी शाम
जो लम्हा-लम्हा ख़ामुशी के बंद की असीर है
ये आसमाँ की सम्त मुँह उठा के किसको याद करती है?
ये मिस्ल-ए-दाग़ लाला-ए-चमन
सियाह आँखों में जो आँसुओं का नूर भरती है,
तो क्या उसे भी है ख़बर कि आँसुओं की रौशनी
चराग़-ए-रोज़-ओ-शब से शोख़तर
है रंग-ओ-नूर में?
ये धीरे-धीरे उठ के आसमाँ
पे नश्शे की तरह से छाई जाती है
इशारा करती है तो
तारे रौशनी की सम्त खिंच के आए जाते हैं।
सियाहियों में सुर्ख़ियों
सियाहियों में रौशनी
का ये हुजूम देखना
तो उंगलियों से पाँव की कमर तक
कमर से ता बा-रूए-अं’बरीं
न जाने सर्द क्यों है शाम?
ये तुझसे किसने कह दिया कि दामन-ए-चमन
में आफ़ताब को
ज़मीं ने दफ़्न कर दिया?
अजनबी की मौत
अकेली जान चौपायों के जंगल में भटकती है
घने गुंजान बालों से लदे जिस्मों पे काली मक्खियाँ
मह्व-ए-गुलगश्त-ए-चमन हैं
अकेली जान
किसी सूरत से अपने दामन-ए-अस्मत की उजली दूधिया चाँदी-सी
सर अफ़राज़ पाकी को बचाए है
सदाए-दश्त
रग-ए-गुल से नाज़ुक ये दामन
यहाँ की हवा को परखने से मजबूर है
उसे पारा-पारा ही होना पड़ेगा
क़दआवर सरबुलंद अश्जार
चौपायों की टांगों से फूटी हैं उलझी जटाएँ
जटाओं से चिपकी घनेरी लताएँ
सदाए-ज़मीर-ए-अर्ज़
कोई राह फूटे कोई बात निकले
तो दामन बचा लाएँ हम…
अकेली जान चौपायों के जंगल में भटकती है
बचा लाएँ हम
छुड़ा लाएँ हम
असरार
सफ़ेद कासनी निबोई सुर्ख़
सीना ताने सर उठाए
जगमगा रही थी लौ, मुस्कुरा रही थी लौ
न जाने कौन डस गया कि तिलमिला उठा चराग़
चराग़ के मुवक्किलों ने दूधिया धुएँ से झाँक कर
दिखाए दाँत…?
कौन डर गया?
किसे डरा दिया?
किसे भगा दिया?
सफ़ेद झिलमिलाते मोतियों से दाँत
नन्ही-मुन्नी सीपियों के हार की तरह
बड़ी-बड़ी सियाह आँखों वाली मुन्नी
फूल तोड़ती हुई
गुलाबी बैगनी फ़्राक… हवा के दोश पर वो
कासनी दुपट्टा उड़ रहा है हर तरफ़
छनछना के टूटती-बिखरती वो हँसी की चूड़ियाँ
मगर ये क्या हुआ?
वो खेल-खेल में ही रो पड़ी है क्यों?
कौन उसे रुला गया?
कौन उसे डरा गया?
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सरर-सरर वो सरसराती-डोलती हवाए-तुंद
ग़ुबार-ओ-ख़स उड़ाए जा रही थी शाम से, वो ऊँचे-ऊँचे पेड़
उनकी पत्तियाँ मुक़ाबला हवा के जोश का जो कर न पाईं, नीचे आ रहीं
गुलाब-ओ-ख़स के दरमियाँ न फ़र्क़ कुछ भी रह गया… मगर
ये क्या हुआ? ये दफ़्अतन हवा ठहर गई है क्यों?
न जाने किसने उसको नाफ़ अर्ज़ में सुला दिया
कौन उसे…कौन उसे डरा गया?
काले फूलों का रंग
कौन था
सर्द बिस्तर पर पड़ा, लंबा
किसी साये से हरगिज़ कम न था
किस क़दर बा-वज़्न, कितना बे-बदन
गोल काला मुँह, चमकती आँखें, फिर भी ज़र्द-रू
घर के इस दरवाज़े से उस कोने तक फैला हुआ
दोनों दीवारों से टकराते हुए हाथों में टेढ़े काले फूल
देव क़ामत देवता
देवता क़ामत मगर बे-वज़्न देव
कौन से रुस्तम का वो सोहराब था
संग बिस्तर पर पड़ा
फूलों का रंग
सारी दीवारों को काला कर गया
मेरा सारा जिस्म नीला कर गया
जंगल के ग़ुलामों का ख़्वाब
जंगल की बस्तियों पर पाला ग़ज़ब का था
ठंडा लतीफ़ दामन शब भर निचोड़ कर
ख़ामोश डालियों के होंटों को चीर कर
चादर से अपनी ढक कर
मुट्ठी में अपनी लेकर एक-इक शजर का दिल
अफ़यून से भी नाज़ुक चुपके से ज़हर से
क़तरा ही क़तरा करके सैराब कर गया
नंगी हवा को बिल्कुल रस्ता न मिल सका
दरवाज़े पूछना क्या रौज़न भी बंद थे
इक ग़ोल-सा बनाकर गुमकर्दा राहियाँ
कोड़े लगा रही थीं
अंधी-सी चार-सू
चकराती फिर रही थी
शबनम गिरी तो इकदम साकित हुई हवा
भीगी ज़मीं को देखा, कुछ ख़ौफ़ कम हुआ
आहिस्ता चलते लम्हे सब काम कर गए
जंगल का ज़हर सारा ज़र्रों ने पी लिया
जब दूर धुंध में गुम चोटी की आड़ से
सूरज ने सर निकाला
लंबी-सी थूथनी
छोटी-सी आँख काले भारी गठे बदन
नेज़ों से तेज़ टेढ़े मज़बूत दाँत, और
हँसते हुए दहानों, लट्ठे-सी गर्दनें
छोटे सियाह कानों, इन सबसे लैस
इक जंगल की डार निकली
भीगी कुँवारी मिट्टी दाँतों से खोद कर
जो कुछ मिला उखाड़ा
इक भूक थी जो सब कुछ खाने पे तुल गई
मिट्टी उधड़ गई
ज़रख़ेज़ हो गई
बस्ती सदाओं
से लबरेज़ हो गई, फिर
रंगीन हो गई
तंग तन्हाई में बातचीत
आसमाँ चीर के आ। सामने आ
मेरी पेशानी पे लिख। नीला क़लम ज़र्द लकीर
मोर के पर की दमक सब्ज़ चमक शेर की रफ़्तार का रंग
सुनहरा, कभी काला, कभी रौशन
सर्द झोंके की वो सफ़्फ़ाक जिगर चाक चुभन
पर्दा-ए-रंग
वो शफ़्फ़ाफ़ हवाएँ कि घनेरा जंग
में सियह फ़ाम
कि बर्फ़ीले बयाबाँ में सफ़ेदी का शिकार
बर्फ़ है या कि सियाही है जो मा’दूम किए देती है
ख़्वाब बन-बन के उड़ा
पारा-ए-नूर हो या पारा-ए-जंग
मगर टूट के गिर। मुझमें चमक जा
आ जा मिरे टुकड़े कर दे
मेरे पुर ख़ौफ़ ख़ुदा
मौत के लिए नज़्म
‘सुनो सुनो’—परिंदे ने कहा—
‘यहाँ कुछ ही फ़ासले पे एक शहर बस रहा है
शहर की फ़सील बैज़्वी है, उस पे चार बैज़्वी मिनारें हैं
सफ़ेद, सब्ज़
सियाह, सुर्ख़
मगर जो सुर्ख़ है वही सफ़ेद है, जो सब्ज़ है वही सियाह है।’
‘तो क्या वो सब मिनार एकरंग हैं?’
‘नहीं वो एक… रंग हैं
तो तय करोगे तुम वो फ़ासला जो ऐ’तिबार-ए-वक़्त है?’
जो एक लम्हे का सफ़र है, एक उ’म्र का सफ़र।
तो जाओ, बैज़्वी फ़सील के परे सियाह आतिशीं सुतूनों पर खड़ा वो शहर
जिसमें ख़ुश्बूओं की-सी कशिश है
तुम पे अपने सारे राज़
फ़ाश करने पर मुसिर है।’
‘क्या वो राज़ तुम न फ़ाश कर सकोगे?
सुर्ख़ ख़ौफ़ है, सियाह ख़ौफ़ है, सफ़ेद-ओ-सब्ज़ भी तो ख़ौफ़ हैं
फ़सील की वो देव पैकरी, वो शहर जो अज़ल को भी मुहीत है
अबद को भी मुहीत है
जो हर जगह मिसाल-ए-अब्लक़-ए-ख़याल है। ये क्या ज़रूर है
कि मैं फ़सील फांद कर ही शहर को समझ सकूँ, धुआँ-धुआँ
अमक़ के थाह का गुज़र कहाँ, जो मैं पलट न पाऊँ तो…?’
‘… भी जाओ-जाओ,” उस परिंदे ने कहा, ‘कि ख़ुश्बुएँ तुम्हें बुला रही हैं दूर से, मफ़र कहाँ।’
तो फिर मैं आँख बंद करके जस्त कर गया, चला गया
नज़्म 15
जंगली बिल्लियो,
नर्म पंजों में पोशीदा तीखे हलाहल में डूबे
नकेलों के चमकीलेपन की क़सम
खा के कहना
तुम अपने ही अहल-ए-क़बीला की दावत उड़ाओ तो कैसी रहे
लुक़मा-ए-मौत का ज़ाइक़ा ही अजब है
लुक़मा-ए-मौत तन्हा है उसका न कोई हसब है
न कोई नसब है
ये लुक़मा गले में अटकता है
लेकिन सभी उसकी तेज़ाबियत के क़दीम परस्तार हैं
बस यही है कि उसके तसव्वुर को उससे ज़ियादा समझे हैं।
सब्ज़ सूरज की किरन
सब्ज़ बिल्ली सब्ज़
आँखें सब्ज़
सूरज की किरन जब नीमख़्वाबी की तरह उस आँख ऊपर
झूलती है
झूमती है,
सब्ज़ आँखें आँखें रौशन
रंग की बारीक लहरें
अर्ग़वानी क़िर्मिज़ी थोड़ा बहुत सोने का झिलमिल रंग…
आँखें ज़िंदगी बनती हैं।
धुंधली रौशनी में
सब्ज़ भूरी आँखें खुलती हैं तो फ़ौरन
क़ुमक़ुमे-सी खिलखिलाती
बे-मुहाबा रौशनी हर गोशे से खिंच कर सिमट आती है भूरी सब्ज़
चश्म-ए-बे-हिजाबी कौंदती है
धूप की गर्मी-ए-नज़र
बेबाक उ’र्यां
फैलते पारे की सूरत शहराहों और घरों में
मौजज़न है। सब्ज़ आँखें सब्ज़
शफ़्फ़ाफ़ आबगीना बन गई हैं
आख़िरी तमाशाई
उठो कि वक़्त ख़त्म हो गया
तमाशबीनों में तुम आख़िरी ही रह गए हो
अब चलो
यहाँ से आसमान तक तमाम शहर चादरें लपेट ली गईं
ज़मीन संगरेज़ा सख़्त
दाँत-सी सफ़ेद मलगिजी दिखाई दे रही है हर तरफ़
तुम्हें जहाँ गुमान-ए-सब्ज़ा था
वहाँ झलक रही है कुहना काग़ज़ों की बर्फ़
वो जो चले गए उन्हें तो इख़्तितामिए के सब सियाह मंज़रों का इल्म था
वो पहले आए थे इसीलिए वो अ’क़्ल-मंद थे,
तुम्हें तो सुब्ह का पता न शाम की ख़बर,
तुम्हें तो इसकी भी ख़बर नहीं कि खेल ख़त्म हो तो उसको शाम कहते हैं।
ऐ नन्हे शाइक़ान-ए-रक़्स!
अब घरों को जाओ
शोर थमने के बा’द
अब शोर थमा तो मैंने जाना
आधी के क़रीब रह चुकी है
शब, गर्द को अश्क धो चुकी है
चादर काली ख़ला की मुझ पर
भारी है मिस्ल-ए-मौत शह पर
है साँस को रुकने का बहाना
तस्बीह से टूटता है दाना
मैं नुक़्ता-ए-हक़ीर आसमानी
बे-फ़स्ल है बे-ज़माँ है तू भी
कहती है ये फ़लसफ़ा तराज़ी
लेकिन ये सनसनाती वुस्अ’त
इतनी बे-हर्फ़-ओ-बे-मुरव्वत
आमादा -ए-हरब-ए-ला-ज़मानी
दुश्मन की अजनबी निशानी
रात शहर और उसके बच्चे
सर्द मैदानों पे शबनम सख़्त
सुकड़ी शाहराहों, मुंजमिद गलियों पे
जाला नींद का
मसरूफ़ लोगों, बे-इरादा घूमते आवारागर्दों का
हुजूम-ए-बे-दिमाग़ अब थम गया है।
रंडियों ज़न्ख़ों उचक्कों जेबकतरों लूतियों की फ़ौज इस्ति’मालकर्दा
जिस्म की मानिंद ढीली पड़ गई है।
सनसनाती रौशनी तन्हा हवाओं की फिसलती
गोद में चुप
ऊँघती है।
फ़र्श और दीवार-ओ-दर
फ़ुटपाथ
खम्बे
धुंधली मेहराबें
दुकानों के सियह वीरान ज़ीने…
सबके नंगे जिस्म में शब
नम हवा की सुइयाँ बे-ख़ौफ़
उतरती कूदती धूमें मचाती हैं
कुछ शिकस्ता तख़्तों के पीछे कई
मासूम जानें हैं
ख़्वाब-ए-कमख़्वाबी में लर्ज़ां
बाल-ओ-पर में सर्द नश्तर
बाँस की हल्की इकहरी बे-हिफ़ाज़त
टोकरी में
दर्जनों मजबूर ताइर
ज़ेर-ए-पर मिनक़ार,
मुँह ढाँपे ख़मोशी के समुंदर-ए-बे-निशाँ में
ग़र्क़, बाज़ू पस्ता, चुप
मख़्लूक़-ए-खु़दा जो गोल काली गहरी आँखों के
न जाने कौन-से मंज़र में गुम है।
नफ़रत भरी दुआ’ से बचो
उससे कहना
अभी मैं ज़िंदा हूँ
उससे कहना
कमर नहीं टूटी
झुक के कच्ची कमाँ बनी है ज़रूर
देखो नफ़रत भरी दुआ’ से बचो
हँस के अल्लाह से कहो
मालिक तेरा बन्दा जिसे कि छोड़ दिया
मैंने। मुझको थे और काम बहुत।
तू उसे छोड़ दे ये ठीक नहीं
बोझ था दिल पे मेरे अब वो ज़मीं
प तिरी क्यों ही बार बन के रहे
उसको मालिक बुला ले अपने पास
तेरे घर से भली पनाह कहाँ
उसे जिसको कि मैंने घर न दिया
न तो दिल में
न अपनी चौखट पर।
अब तुम्हारी ख़ुदकुशी
दुश्मनों ने उसके घर को दाब रक्खा है। कोई दीवार अब बाक़ी नहीं है। ईंट पत्थर सब्ज़ा-ओ-बर्ग-ओ-शजर के दरमियाँ अब कुछ नहीं है। दोस्तों ने उसके बच्चे काट डाले। उसके आँगन को धुएँ से भर दिया। और उसके सीने में सलाख़ें गाड़ दीं। जंगल धनी है ज़ात का, वो लौट आना चाहता है। फिर से उगना चाहता है। नसीबा फोड़ कर न बैठो ऐ आदम की औलाद। अब तुम्हारी ख़ुदकुशी और बेघरी उसकी बराबर हैं।
मौसम की आख़िरी नज़्म
तुमसे किसने कहा था
तुम मुझको भरी बरसात के धुंदलके में
नीम तारीक नीम नारंजी
बादलों के तलाए-दस्त-ए-अफ़शार के हाथों
संदेसा भिजवाओ?
गर्म नमकीन बूँदियाँ बौछार।
तुम्हारे लबों का भीगा लम्स
जवानी की बिसरी तस्वीरें
जो मिरी मेज़ की दराज़ में दफ़्न
अपने रंगों को रो चुकीं कब की
और मैं भागता हुआ बेसुध
उस दोराहे पे आ गया हूँ जहाँ
हमने इक-दूसरे को खोया था।
लेकिन अब मैं
कहीं न जाऊँगा। सुनती हो?
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी (1935–2020) एक बेहतरीन अफ़सानानिगार, एक दृष्टिवान आलोचक और एक अग्रणी संपादक के रूप में समादृत और संसारप्रसिद्ध हैं। यहाँ प्रस्तुत नज़्में उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरण के लिए उनके कुल्लियात-ए-नज़्म से ली गई हैं, जो ‘मज्लिस-ए-आफ़ाक़ में परवाना-साँ’ के नाम से एम.आर. पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित है। मुमताज़ इक़बाल उर्दू-हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : जन्नती औरतो, अपने ज़िंदाँ में आबाद हो?
पाठ में मुश्किल लग रहे शब्दों के अर्थ जानने के लिए यहाँ देखें : शब्दकोश