कविताएँ ::
अतुल
निर्वेद
रेत के स्वाद से दिनों में महीन खुरदुरी-
सी रातें, किवाड़ बंद कमरे में
गूँजता, एक नितांत अकेलापन
खुली खिड़की से अचानक से आती कोई तेज़ हवा
और झुलसा जाता मन चिमनी के भीतर रेंगता
ज़बान पर आते-आते अटक जाता
वो मनबढ़-सा गाना और
किसी और पल में
किसी और गाने के बीच अड़ा देता अपनी टाँग
जैसे किसी बेकार पड़े म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट
के तारों-सा उलझा जीवन,
तीलियाँ, चारों तरफ़ बिखरी पड़ी
किसी पानी के सोते में डूब कर गीली
जलने की कहानी के हिस्सों से दूर
दुनिया लहकाने-भभकाने के संगीत से और दूर
कि जैसे किसी बजते हुए ‘ट्रम्पेट’
की ‘जिनपिंग’ से ठंडी अनबन
घरों की दीवारों पे चिपके वायरस के ख़याल के अलावा
चश्मदीद पान के धब्बे
जैसे मानव की आदिमानव पे चस्पा सेमी/सूडो-विज़िबल सभ्यता की खाल
ज़हीन-महीन नुस्ख़ों में साँस टिकाने
और मनुष्यता बचाने की जिरह में
उलझती एक सनकी डाक्टरनी
या ख़ामख़ा कुछ देनदारी से ग़रीब बचा पाने
की क़वायद में जूझता वो नक्सल अर्बन
जैसे होंठों की चिमनियों में धुएँ से इकट्ठा
होती एक गर्द गर्दन के पिछले हिस्से में, वैसे
किन्हीं कमरों में क़ैद एक कहानी
इकट्ठा करती अवसाद में गहरे डूबे क्षण—
बजाय धम्म से आवाज़ कर गिरने के
आसमान के सब तरफ़ से उतरती मौत की ख़बरें
मानो बिना चीनी-अदरक की काली चाय जीभ पे फैलते हुए
घूँट-घूँट उतरती, आहिस्ता
आहिस्ता।
विस्मृति
क्या बीत जाने से
सचमुच बीत जाती है बात?—
फिर दूर तलक फैले एक बंजर रेगिस्तान को
याद नहीं रहता हो
सालों पहले झुलसता जंगल
किसी वीरान कँटीली झाड़ी को कभी विस्मृत हो जाता
उसका पहला फूल
रात के गहरे सन्नाटे में दिन की चहल का नहीं रहता भान कोई
और दुपहर की नींद की बेला
ठीक-ठीक रात के चौथे पहर का एहसास नहीं लाती
मृत्यु की आहट गिनते धीमे बुढ़ापे
को याद बचती नहीं होगी
छलाँगते बचपन की
जैसे अवसाद में डूबता मन मुस्कुराता न हो
बचकानी बेहयाइयों को ताड़ते
अतीत की खिड़कियों में
होता होगा ठीक-ठीक शायद ऐसा ही,
तभी, कि शायद एक वक़्त के बाद
मैं भुला दूँगा हर उस बात को
एक वक़्त बीत जाने पर भूल जाऊँगा
कि ठीक-ठीक मुझे तुम्हें भूलना है।
कीड़ा
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
मेरी आँखों में तुम्हारे सूरत-ओ-जमाल के सिवा
किसी भूख से दम तोड़ते बच्चे की
भात की थाली भी होती
और मैं ज़ेहन में उतार पाता एक दुःख
जो कि जबरन उतारे गए कपड़ों में
चीख़ बनकर गुज़रता है।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
मैं बन सकता था, काफ़्का का रक़ीब,
एक कीड़ा अपनी कहानियों में
जो मैं अस्ल में हो चुका हूँ
और डूब सकता था
जीवन की अंतरतम पहेलियों में
जुटा के हौसला किसी अज्ञेय का।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता
साथी
तो मैं दाढ़ी काढ़े उस शख़्स की तरह निकल सकता था
एक क़लम से दुनिया बदलने का ख़्वाब लेकर
और बना सकता था
नाख़ूनों को छील सकने वाली चमड़ियाँ
पहचान पाता
चूल्हे में झुलसती देह की गंध,
और लगा सकता हिसाब झुलसती देह की गिनतियों का।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
मैं सँवार सकता अपनी कल्पना में ही
एक उनतालीस की औरत के केश,
जो सिर पर उठाए हुए चलती है
गुह से भरी हुई टोकरी
लेता जायज़ा
कि फ़सलें कौन-सी ऋतु में घूमकर
फंदे का आकार लेती हैं
और एक जेब की मोटाई
दूर, सैकड़ों गर्दनों की लंबाई कैसे बदल देती है।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
तो मैं जानता कि ग़मों का क्या है?
वो तुम्हारे होने, न होने से बेपरवाह हैं,
ज़माने भर की गलियों में भरपूर,
अख़बार की क़तरन से होकर
सीरिया या इराक़ की बस्तियों में ही नहीं,
बल्कि मेरे घर के अगले नुक्कड़ के पास
कोटेदार के अहाते पे भी।
मगर मेरा सच है कि मेरे पास
ग़मों के नाम पे सिर्फ़ तुम हो
और है, तुम्हारा न होना मेरे पास
ज़रा भी।
तो मैंने ख़ारिज कर दिए हैं
ये ‘सारे ग़म इस ज़माने के मोहब्बत के सिवा’
और फैज़ और बाक़ियों के वो सारे पैग़ाम
जो कि लिखे गए हैं
मेरे हिस्से के इस ग़म की मुख़ालफ़त में।
कि इस ग़म को पालने में,
मैंने ख़र्च कर दी है अपने हिस्से की सारी संवेदना
जो मुझे एक कवि, एक शाइर, या उससे पहले
एक मनुष्य बना सकती थी।
मैं अब एक कीड़ा हूँ,
जो किसी कालजयी कहानी का हिस्सा नहीं है।
पत्र
तुम जो देखते हो ग़रीब की ठठरियाँ और उसमें निहार लेते हो तुम्हारा सौंदर्यबोध
तुम्हें चाहिए एक ढाँचे में बदलता हुआ मनुष्य
जिससे तुम दिखा सको संवेदना
पर जिसके मुँह से न भूख निकले
न प्यास
और न रोज़ी
तुम जो बैठते हो लेके क़लम की कुल्हाड़ी
ताकि बुआई वाले के छाले वाले हाथ मशाल न थाम लें
और जला न दें बरसों की तुम्हारी इस सड़ी गली व्यवस्था को
तुम फ़रेबी हो
और तुम्हारी कहानियाँ तुम्हारे फ़रेब की ढाल
इसलिए तुम लिखते जा रहे हो
उनके हवाले से प्रेम-पत्र
जिनमें वे अपने छाले, अपने ज़ख़्म और अपने निशान
प्रेमिका के केश की तरह सुघर समझते हैं।
तुम नक़ली हो
और इसलिए ‘नैरेटिव’ की आड़ में
दुत्कारते हो हर किसी को
जो बात कर रहा है कि कुछ बीस उँगलियों में दस पे फोकचे
और बाकी दस में अँगूठियाँ क्यूँ हैं?
तुम्हें वो फोकचे और उनसे बहता मवाद
दोनों तस्वीरों में फ़्रेम कराने हैं
जिससे अँगूठी जड़ी हथेलियाँ उन्हें सहलाते हुए
‘उफ़्’ कर सकें।
एक औरत है
जिसकी बीस से अधिक पुरुष ख़ाकी पहने
बोटियाँ नोच रहे हैं
तुम्हें उस औरत से भयानक सहानुभूति है
मगर तुम चाहते हो कि वो ढूँढ़ ले अपना मुक्ति-मार्ग
चुपचाप
बिना किसी शोर के उठे
तुम जानते हो जड़ना कविता की चाबुक प्रतिरोध की आवाज़ पे
तुम्हें नुकीले दाँत और नाख़ून दोनों छुपाने आते हैं
इसलिए तुम बोलते भी नहीं अपने नाम में
बल्कि गाड़ते हो दस्तावेज़
समय की दहलीज़ में
जिनमें एक भूखा बच्चा, एक नंगी औरत और एक गोलियों से सनी लाश
ऊँची आवाज़ में चीख़ रहे हैं :
‘‘भूख की बात बंद हो’’
‘‘देह की बात बंद हो’’
‘‘हत्या की बात बंद हो’’
एग्रीमेंट
रूमी की याद में
कहाँ मिलूँगा मैं तुझे?
है क्या कोई ख़ानक़ाह सही-ग़लत के परे?
किसी हबीब ने बताई थी एक जगह,
किसी मैदान का पता,
पर पूछने पर मालूम पड़ा है
किसी बनिए ने पीट दी हैं इमारतें वहाँ
निकाल दिया गया है
सभी भेड़, बकरी, चरवाहों को
गाय बुत बनकर खड़ी है बाहर
गले में माला लिए
इतना ही आया था उसके हिस्से
एग्रीमेंट में।
गलियों में, छतों पर
घूम रहे हैं एंटी-रोमियो स्क्वाड,
हमें ज़िबह करने को,
तुमसे मिलने को अब नहीं रही
कोई जगह
उम्मीद है
जल्द ही कोई वजह भी नहीं होगी।
अतुल की कविताओं के किसी प्रतिष्ठित प्रकाशन स्थल पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह आई.आई.टी. तिरुपति में भाषा के कुछ सामाजिक-राजनीतिक सवालों से रूबरू शोध-छात्र हैं। इससे पहले उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से भाषा-विज्ञान और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी तथा अँग्रेज़ी साहित्य की पढ़ाई की है। उनसे atulksinghh@gmail.com पर बात की जा सकती है।
उम्दा लिखते हैं हमेशा से अतुल जी का प्रशंसक रहा हूं, रूमी की याद में कविता बेहद पसंद आयी. शुभकामनाएं
बहुत बहुत शुक्रिया चिरंजीव भाई।