कविताएँ ::
देवेश

देवेश

गर्म समय

ये समय गर्म है
पिघल रहे हैं बर्फ़ के पहाड़,
पत्थर बन रहे हैं लावा,
पिघल रहा है आसमान
क़तरा-क़तरा पिघल रहे हैं
चाँद, सूरज, ब्रह्मांड

वर्तमान भी पिघल रहा है
और जम रहा है
बिल्कुल वैसे ही,
जैसे
जमाया जा रहा है
अतीत पिघलाकर

रिश्ते भी अब पिघल रहे हैं
इनके साथ ही,
पिघल रही हैं खिड़कियाँ, चौखटें और मचान

ये समय नया है
इसलिए
पिघल रहा है दिल, दिमाग़ और रीढ़
रीढ़ पिघलकर बन रही है केंचुआ

किंतु,
यहाँ विचित्र बात यह है कि
इस पिघलने का ताप से कोई संबंध नहीं।

क़ैदख़ाने

ये क़ैदख़ानों का जो विस्तार है न
ये ज़िंदगी का धोख़ा है
जो रौशनी दिखती है
वह बस जुगनू की चमक भर है
इतनी ठंडक जो हवाओं में घुली है
ये भी इंसानी करिश्मा है

अपने चेहरे की हँसी देखो
कितना बढ़िया छलते हो तुम
चलो कोई बात नहीं
हम कुछ नए रंग के कपड़े पहन लेते हैं,
सब ढक जाएगा,
तन-मन
मन-तन
दोनों ही हमारे क़ैदख़ाने हैं
और इन क़ैदख़ानों की कोई अदालत भी नहीं।

लौटना

कहीं भी घूमकर
मेरे पाँव मुझ तक लौट आते हैं
मेरी साँसें जो किसी दिन मुझे छोड़ गई थीं
लौटती हैं किसी स्वप्न की तरह

मैंने कभी नहीं चाहा
मुझसे छूटे हुए लोग मुझ तक लौटें
मुझसे खो गई चीज़ें मुझे मिल जाएँ
लेकिन अतीत रह-रहकर लौटता है

मैं नहीं चाहता
लौट आए तुम्हारी छुअन
जिसे उस शाम वहीं छोड़ आया था
तुम्हारे कहे शब्द
तुमसे मिली पीड़ाएँ
मगर छूटती नहीं
मैं चाहता हूँ
मुझे सभी छोड़ दें
यहाँ,
जहाँ मैं और मेरे एकांत के बीच कोई नहीं है

यहाँ,
जहाँ मुझे कुछ होना नहीं है
गलना नहीं है
बनना नहीं है

लेकिन
ऐन इसी जगह रहते हुए
मैं रोज़ वापस घर लौट जाता हूँ।

तस्वीरें

तस्वीरें
उनकी सच्चाइयाँ,
और उनके फैले कैनवस के पीछे सिमटा सच,
अनछुआ, पारदर्शी सच
तस्वीरों की जीवित प्रतीति
संबंधतत्त्व होता है,
प्राण और निष्प्राण का,
साथ ही
रंग और सूनेपन का भी

ये तस्वीरें,
जिनमें न साँस है
न आवाज़ें
उनकी खिलकटियाँ कैसे सुनाती हैं
जो पीछे छूट गए?

ये वक़्त को रोक देने जैसा है

असत्य और सत्य मात्र,
असल की नक़ल की नक़ल जैसा

तस्वीरों के उभार में ही
उसके खोखलेपन की छवि है,
उसके खोखलेपन में भी गहराई है
मानवीय मस्तिष्क की तरह

तस्वीरें अब बदल रही हैं,
साथ ही भावनाएँ भी
चेहरे और भाव भी

ये तस्वीरें गवाह हैं,
इन बदलते चेहरों, भावों और मनःस्थितियों की,
बदलते समाजों, रिवाजों की।

तस्वीरों की न जाति है
न पंथ,
ये अपनी निर्जीव देह में
बस जीवन का आभास लिए हैं

तस्वीरें
जीवन-पद्धति और परंपराओं के संबंध
कहाँ से कहाँ जोड़ देती हैं

प्रिय और अप्रिय की हदों से पार
तस्वीरें परछाइयाँ हैं—
गुज़रे वक़्त की

पता नहीं तस्वीरें अपना महत्त्व जानती हैं या नहीं?
हृदय-विदारक संगीत सुनकर
छलछलाती हैं या नहीं?
या हो सकता है
अपने आँसुओं को पीने की क्षमताएँ
अब विकसित कर ली हों तस्वीरों ने,
वे रोती भी हों तो बस आँखों के अंदर ही

कितना अंतर्द्वंद्व है न इन सभी बातों में,
शायद तस्वीरें अंतर्द्वंद्व की ही अभिव्यक्ति होती हों

परत-दर-परत बँधती तस्वीरें,
किसी दौर में या तो दीवार जड़ दी जाती हैं
या दमघोंटू एल्बमों में सहेज दी जाती हैं,
या फिर
किसी दिन हम
उन्हें खो बैठते हैं।

यूँ लिखना मुझे

यूँ लिखना मुझे
जैसे पत्ते लिखते हैं
पेड़ों की कहानी

मुझे वैसे बनाना
जैसे मोची बनाता है जूते
और मौसम बनाते हैं इंसान

मेरे चेहरे में तुम रचाना उसे
जिसने कभी किसी को
छुआ ना हो

जितना मुझे लिख दो उतना दे देना उसे
जिसे मेरी बिल्कुल भी चाह न हो
वह परखेगा तुम्हारा लिखा बेहतर

पर मेरी एक शर्त यही है
कि जैसा लिखो मुझे
फिर वैसा किसी को मत लिखना।

साभार

मेरे समय के कवि
लिखते रहे
भेजते रहे
संपादकों और प्रकाशकों को अपनी कविताएँ
उन्हें कभी नहीं लगा
उनकी कविता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत
मुझे है

उन्हें कभी पता नहीं चला
मुझे प्रेम चाहिए
उन्हें पता भी कैसे चलता
वे जानते ही नहीं मैं कौन हूँ

जब संपादकों को विज्ञापन मिले
तो मैंने उन्हें पत्र लिखना छोड़ दिया
अगर मैं पत्र लिखता
तो लिखता
कि सारे कहानीकार कवि होते हैं
कुछ कवि कहानीकार होते हैं
सारे गद्यकार कवि होते हैं

ये तेरह के बाद की बात है
ये तरह की बात है
कि जिस तरह कहानी मरी थी
उसी तरह राजेंद्र यादव भी मर गए

वे आज होते तो मैं लिखता—
आदरणीय,
नमस्ते,
मैं कहानीकार हूँ।
कृपया मेरी कविताएँ छाप दीजिए।
साभार।


देवेश की कविताओं के कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। उनसे devesh95.du@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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