कविताएँ ::
देवेश तनय

देवेश तनय

मनुष्यता

आग को लगता है
पानी ज़्यादा संदिग्ध है

पानी को लगता है
आग ज़्यादा संदिग्ध है

हिंदू को लगता है
मुसलमान ज़्यादा संदिग्ध है

मुसलमान को लगता है
हिंदू ज़्यादा संदिग्ध है

पुलिस को लगता है
बंद मुट्ठियाँ ज़्यादा संदिग्ध हैं

सरकार को लगता है
किताबें ज़्यादा संदिग्ध हैं

संस्थाओं को लगता है
फ़ैज़ और हबीब जालिब की नज़्में ज़्यादा संदिग्ध हैं

राजा को लगता है
प्रजा ज़्यादा संदिग्ध है

प्रजा को लगता है
राजा ज़्यादा संदिग्ध है

ईश्वर को लगता है
मनुष्य ज़्यादा संदिग्ध है

मनुष्य को लगता है
ईश्वर ज़्यादा संदिग्ध है

लेकिन कविता को लगता है
मनुष्यता सबसे ज़्यादा संदिग्ध है

तुम

जीवन—
एक उदास वक्तव्य
और तुम
इस वक्तव्य पर
पूर्णविराम।

कुछ नहीं

हारे हुए आदमी को
किसी गहरी नदी का पुल न मिले

हारे हुए आदमी को
कोई ऊँचा पर्वत न मिले

हारे हुए आदमी को
किसी तितली के रंगों की सोहबत न मिले

हारे हुए आदमी को
धर्मस्थल न मिले

हारे हुए आदमी को
कोई मज़बूत रस्सी न मिले

हारे हुए आदमी को
ख़ूँख़ार औज़ारों पर धार देता हुआ
कोई बंजारा न दिखे

हारे हुए आदमी को
कोई मेडिकल स्टोर न मिले

हारे हुए आदमी को
दूर-दूर तक रेल की पटरियाँ न मिलें

हारे हुए आदमी के पास
अगर कुछ हो तो
कम से कम एक घर हो
जहाँ वह लौट सके
जहाँ फिर से लिख सके—
क, ख, ग , घ
और पहुँचे ण तक

और

माने
कुछ नहीं

किलकारी

कितना आसान है
एक कठिन वाक्य कहना

कितना कठिन है
एक आसान वाक्य कहना

इन दो वाक्यों के बीच
जो बह रही है
वही है एक दुधमुँहे बच्चे की दुनिया!

दृश्य

पेड़ को देखो तो
माटी का रेखाचित्र उभरता है

माटी को देखो तो
याद आती हैं
पेड़ की भंगिमाएँ

कायनात का धुँधलका
मेरी आँखों में
इतना पारदर्शी!


देवेश तनय की कविताएँ ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे geetkartanay@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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