कविताएँ ::
शचीन्द्र आर्य

शचीन्द्र आर्य

भाई के साथ रहते प्रेम

भाई के साथ रहते कैसे प्रेम किया जाता है,
यह कभी हम सीख नहीं पाए।

इसमें हुआ बस यह कि कभी किसी लड़की से अकेले नहीं मिल सका।
जब हम मिले, भाई के साथ मिले।

इस साथ में कभी उस एकांत को रच पाना
मेरे लिए संभव ही नहीं हो पाया, जिसमें सिर्फ़ हम दोनों शामिल होते।
इसके अभाव में कभी वह कह पाना भी बिलकुल असंभव था,
जिसके मिलते ही अक्सर लड़के लड़कियों को कह जाते हैं।

किसी से कभी कुछ न कह पाने का दुख मुझे नहीं है।
न एकांत रच पाने की अपनी अक्षमता पर किसी तरह का क्षोभ है।

बस सोचता हूँ,
तब कोई ऐसा मिलना चाहिए था,
जो भाई के साथ रहते, किसी लड़की के साथ प्रेम में रहना सिखा पाता।

छुओ

कभी तो मुझे लगता है,
छूने के लिए एक आदिम इच्छा का होना ज़रूरी है।

वह कौन रहा होगा,
जिसने सबसे पहले स्त्री का स्पर्श किया होगा?
किसने सबसे पहले किसी पुरुष को छुआ होगा?

असल में उन्हें छूने वाले वह ख़ुद रहे होंगे।
हमसे पहले हमें कौन छू पाएगा, यह कोई सवाल ही नहीं है।
उस गर्भ में हम अपनी उँगलियों से छूने के क़ाबिल न हों,
फ़िर भी उन असीम एकांत के क्षणों में हम ख़ुद को छूते रहे होंगे।

गर्भ से बाहर आने के एक क्षण बाद ही
हम इस स्पर्श को भूलने लगते,
भूल कर फ़िर से छूना सीखने लगते।

मेरा भी मन करता है,
किसी अनछुए स्पर्श को अपनी रगों में महसूस करते हुए
उसकी धड़कनों को सुनता रहूँ।

पर कोई नहीं सुनता अपने कानों से उन झींगुरों की छुअन,
ओस की उन बूँदों का गिरना,
वहाँ दूर खड़ी एक लड़की की आँखों में नामालूम किस कारण आ गए आँसुओं को।

मैं छूना चाहता हूँ हर बहता हुआ आँसू
सिर्फ़ हथेलियों के पोरों से नहीं,
मन के भीतर उग आई उँगलियों से भी छूना चाहता हूँ।
छूना चाहता हूँ, अम्मा के हाथों का सख़्त हो जाना।
उनकी फटी एड़ियों का दर्द। चेहरे पर उतर आई झुर्रियाँ।
पिता की आँखों को भी छूना चाहता हूँ। उन सपनों को भी छूना चाहता हूँ,
जो अनछुए वहाँ न जाने कब से हैं।

तुम्हें भी अपने सबसे कोमलतम स्पर्श से छूना चाहता हूँ।
तुम जब पास नहीं रहती, तो हर लड़की को तुम समझता हूँ।
पर मुझे पता है, उन्हें छूना नहीं है।

थक कर मन मेरा

थक कर लोग क्या-क्या करते होंगे,
इसकी कोई फ़ेहरिस्त नहीं बनाने जा रहा।
बस ऐसे ही सोच रहा था, थकना कैसी क्रिया है?

यह स्वतः घटित हो जाने वाली परिघटना है,
या किसी ऐतिहासिक अंत:क्रिया से उत्पन्न घटक का प्रदर्शित रूप है?

क्या इसे समझने के लिए कोई प्रयास किया जाना चाहिए?

मुझे लगा,
इन बातों को समझने के लिए किसी भी तरह की कोशिश करना बेवक़ूफ़ी है।
इन्हें समझने के तरीक़े भी उतने ही अपने होंगे, जितनी कि तुम्हारी-मेरी परछाई।

रातें हमेशा लट्टू की रौशनी में हों यह मुमकिन नहीं है।
वहाँ कैसी होती होंगी,
जहाँ समुद्र की लहरों की आवाज़ों से आसमान फटा जाता होगा?

और वहाँ,
जहाँ ढबरी की झिलमिल-झिलमिल करती लौ में कोई लेटा,
धुएँ में अपने कल की गंध लेता मसहरी में धँसा चला जाता होगा?

उसके सपनों में भी आवाज़ें नहीं होंगी।
वहाँ रील काले-सफ़ेद रंगों से दृश्यों को रँग रही होगी।
उसे काले घोड़े के सफ़ेद फ़र वाले मुलायम बाल बहुत पसंद थे,
ऐसा उसने कभी बताया था मुझे।

नानपारा में एक पान की आकृति वाला पक्का तालाब भी है। देखना कभी।
बिल्कुल ऐसी ही बातें कहीं किसी दिमाग़ में दर्ज नहीं होंगी।
वह लड़की जो यह सब जानती है, वह अब मेरी बीवी है।

वह भी अब उन बीती रातों को देखे जुगनुओं की कहानी कहने लगेगी।
उसे भी गोबर के कंडों की महक इस शहर से कहीं बाहर धकेल देगी।
वह भी यहाँ से वापस लौट जाना चाहेगी। मेरी तरह।
पर हम दोनों एक-दूसरे की परछाई बन चुके होंगे।

हम कहीं इस टीन वाली छत को छोड़ कर नहीं जाएँगे।
बाहर बर्फ़ गिरने लगेगी। रूई की तरह नर्म फ़ाहों वाली बर्फ़।
नाज़ुक-सी। अनछुई-सी। हम थम जाएँगे।

फ़िर एकदम हम उस तपते रेगिस्तान में कहीं
बारिश की बूँदों को ढूँढ़ते सियार की बातों में आ गए होंगे।
उसने कहीं घास के मैदानों में पुआल वाले बिस्तरों की ख़ूबी
बताकर हमसे हमारे सपने छीन लिए होंगे।

मैं भी उसके पीछे भागते-भागते सियार बन जाऊँगा।
तुम हिरण बनकर वैदेही को दिख जाओगी।

वह अपने मन में कुछ रोते हुए उस कहानी को याद करेगी,
और इस पल को भूल जाने का अभिनय करते हुए, उस
नायक पति के धनुष से निकला तीर बनकर तुम्हें जा लगेगा।

तुम मेरा स्पर्श महसूस करते ही मेरी उँगली पकड़ ऐसे दौड़ पड़ोगी
जैसे वह दुबली चींटी जो सबसे आगे थी, तुम उससे भी आगे बढ़ जाओगी।
ऐसे होने पर वह मृगनयनी नायक कभी हमें अपनी आँखों से हमें देख भी नहीं पाएगा।

तब से मसहरी पर लेटे-लेटे मेरे सपनों में कई सारे सपने इधर-उधर हो चुके हैं।
जब कुछ समझ नहीं आया, तब मैंने उस लिखने वाले बूढ़े को बताया।
कैसे वह नायक हमें देख नहीं पाया। कैसे हम आँखों से ओझल होकर ग़ायब हो गए।
उसने कहा है, वह दुबारा इस कहानी को दुरुस्त करेगा।

पानी जैसे जानना

कोई क्षण होता होगा, जब हम अपने से बाहर किसी व्यक्ति को जानने की इच्छा से भर जाते होंगे। यह इच्छा हम सबमें सामान रूप से पाई जाती है। पाए जाने का यह अर्थ नहीं हम हमेशा इस इच्छा से भरे रहते हैं। कहा न, कुछ क्षण होते हैं, जो उस ओर ढकेलते हैं। यह जान लेने की कामना हमारी जिज्ञासा नहीं है। यह ख़ुद से बाहर देखना है। उन तालाबों का बादलों से भर जाना है, जो सूख रहे हैं। तालाब बादलों को बुलाते हैं। जैसे एक तालाब हुआ ‘ताल कटोरा’। यह आपसी संबंध किसी व्यक्ति के प्रति अपने आकर्षण से भी उत्पन्न हो सकता है। आकर्षण पानी है। पानी जैसा गुण उसे ग्राह्य बनता है। यह ग्रहण कर पाने की क्षमता ही पानी को मूल्यवान बनती है। हमें पानी बन जाना चाहिए। सब हमारी इच्छा से भर जाएँ। तब हमें पल भर रूककर ख़याल करना होगा, उसमें ऐसा क्या है, जो उसे वैसा बनाता है।

सिर्फ़ जितना हमें दिख रहा है, कोई सिर्फ़ उतना ही नहीं होगा। पानी भी वाष्प बनने के बाद दिखता कहाँ है? लेकिन क्या वह कहीं नहीं होता? नहीं। शायद भूगोल या मौसम विज्ञान जैसे अनुशासनों से पहले यह हम सब जानते हैं। भाप क्या है। भाप क्या कर सकता है। भाप ही जीवन है।

वह लड़का जो किसी भाप-सी लड़की को अभी सलीक़े से जान भी नहीं पाया है, नहीं जानता उसके ताप से वह भी एक दिन भाप हो जाएगा। समानुपात में लड़की भी कुछ ऐसा हो जाने की तमन्ना से भर गई होगी, कोई कुछ नहीं कर पाएगा। वह आपस में अपनी उन रूढ़ आकृतियों में भले न मिल पाएँ, उनका साहचर्य उन्हें ‘एलियट की कल्पना’ की तरह गलाएगा। वह पिघलते हुए किसी और आकृति में ढल जाएँगे। यह इन शब्दों के असहाय हो जाने का क्षण है, जहाँ देखने वाला इन शब्दों में मांसलता खोज रहा होगा।

जो-जो उन बिम्बों को अपने भीतर टटोलना शुरू कर चुके हैं, वे थोड़ा थम जाएँ। उनकी शब्दावली में भाप अभी घर नहीं करेगी। वे अपने इस देश-काल से पीड़ित हैं।


शचीन्द्र आर्य हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-गद्यकार हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : हम भी सिर्फ़ तस्वीर में रह जाएँगे

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