कविताएँ ::
कुशाग्र अद्वैत

कुशाग्र अद्वैत

बहुत नहीं जीना

गई सर्दियाँ
आख़िरी सर्दियाँ थीं
उतनी ख़ुशनुमा

कहाँ पता था
आख़िरी-सा लगता
वह चुम्बन
सचमुच, आख़िरी हो जाएगा

किसी भी क्षण
थम जाएँगे हाथ
जो देते रहे थाप,
बजाते रहे
जीवन ढोलक
चलते-चलते थकेगा,
रुक जाएगा
यह गतायु लोलक

एक पेड़ छतनार ढाँप देगा
झरोखे से तनि-तुनि दिखता
बदराया आकाश

आएगी तुम्हारी सिरफिरी याद
दूर रेडियो पर बजते
किसी पुराने फ़िल्मी गीत के
खंडित स्वरों की तरह
छन-छन

बग़ल वाले घर में लगेगा छौंका
मैं खाँसूँगा बेसाख़्ता,
गीले तौलिए से पोछूँगा अपनी भूख,
रोना आएगा और डबडबा जाएँगी आँखें,
जब तक नहीं आएगी नींद
सुनता रहूँगा किवाड़ का चरचराना

नहीं रह जाएगा
कुछ भी वैसा,
वैसी बुद्धि-वैसा बल
कि कर सकूँ भेद
तुममें, तुम्हारी याद में,
सोचता रहूँगा
कुछ भी निर्वात में

जब तक बनी रहेगी
गति प्राण में
दौड़ता रहूँगा

तुम्हारा हाथ थामे
किसी अनजान अधित्यका का
चक्कर लगाऊँगा,
जब लगोगी तुम हाँफने
पास बह रही
किसी झिलमिलाती झील से
तुम्हारी प्यास जितना पानी लाऊँगा

यह जो भी है
कितना सुंदर है

कितना अच्छा
कि बहुत नहीं खींचना
यूँ घिसट-घिसट कर

तय है
बहुत नहीं जीना।

ढूँढ़ना, मिल जाऊँगा

एक अरसे से चाहता रहा हूँ खोना

अगर, खो ही गया कभी
गुमशुदगी की रपट-वपट मत लिखाने लगना
कोर्ट-कचहरी, थाना-पुलिस से
हमेशा रहा हूँ बचता
यह सब बिल्कुल नहीं जँचता

ढूँढ़ना,
मिल जाऊँगा,
कहाँ चला जाऊँगा?
कितना खो पाऊँगा?

कितना खो पाया है कोई!

स्वदेश दीपक नहीं मिला यार
लेकिन, वह खोए बग़ैर भी खोया था
वह खो सकता है,
फिर कभी नहीं मिलने जितना
मैं स्वदेश दीपक तो नहीं
मैं ज़रूर मिल जाऊँगा

तुम्हारी आसानी के लिए बता दूँ―
शहर में मकान हैं
कुछ प्रेमिकाओं के
जहाँ जाता रहा हूँ गुपचुप
खोने के लिए
आदतन एकाध बार पहले भी खोया हूँ
तब वहीं से हुआ हूँ बरामद

दो-चार दोस्त हैं
उनसे भी कर लेना दरियाफ़्त
बस, उन्हें बेजा हैरान मत करने लगना

यूनिवर्सिटी का कोई कोना न छोड़ना
कुछेक प्रोफ़ेसरों के यहाँ भी देखना

ढूँढ़ना,
मिल जाऊँगा
कहाँ चला जाऊँगा

बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ,
दिल्ली, कलकत्ता के आस-पास ही
होऊँगा कहीं

अगर नहीं मिलूँ वहाँ
तब, जिस भी शहर के किनारे बहती मिले
कोई सँवलाई नदी
उस शहर के हर चौक पर ढूँढ़ना

एक भाषा है
थका-हारा जाता हूँ सुस्ताने
जिसकी गोद में,
उस परतदार भाषा की
हर परत में मुझको
विधिवत ढूँढ़ना

ऐसे बताता जा रहा हूँ अपना एक-एक ठिकाना
मानो इसलिए चाहता होऊँ खो जाना
कि ढूँढ़ ले कोई!

प्रतिज्ञा

इस भाषा के घर में
जब-जैसे जी चाहे
आ धमकने की इजाज़त है
लेकिन, मैं हर बार
साँकल खटखटाकर प्रवेश करूँगा

इस भाषा के सुंदर-सुवासित एकांत में
अयाचित विघ्न नहीं बनूँगा

जितना माँ-बाप से न रहा
न किसी प्रेयसी से,
इस भरे-पूरे संसार में किसी से भी नहीं
इस भाषा से उतना ईमानदार रहूँगा

इस भाषा में रोऊँगा आँसू,
इस भाषा में बोऊँगा आँसू
इस भाषा में गूँजेगी मेरी सुबक देर तलक

पाप धोने होंगे तो गंगा में लगाऊँगा डुबकी
इस भाषा में डूबते बखत
नहीं रखूँगा पाप-मुक्ति की ओछी कामना

जिन दिनों इस भाषा से
बरतनी पड़ेगी
एक संयत दूरी
उन रातों को घर आकर
टेबल लैम्प की मद्धम रोशनी में
कोरे काग़ज़ों के सामने
इस भाषा से माफ़ी माँगूँगा

जब आएँगे आत्महत्या के उत्पाती विचार
किसी दूसरी भाषा में लिखूँगा अंतिम पत्र
कि सब देख भी लें मुझे मरते हुए
यह भाषा कैसे देखेगी!

कुशाग्र अद्वैत इधर चमत्कृत करते हुए कविताएँ लिख रहे हैं। उनकी रचनात्मक-दृष्टि उनके नामानुकूल है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुत से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : हम हारे हुए लोग हैं

 

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