कविताएँ ::
मनीष कुमार यादव
पिता और नदी
पिता एक अशेष आलिंगन हैं
जिनकी ओट में
मैं अपनी असमर्थता छिपाए बैठा रहा
एक-चौथाई उम्र
पिता नदी में देखते हुए
मेरे भविष्य के बारे में सोचते हैं
पर मैं बस नदी की
अठखेलियाँ ही देख पाता हूँ
पिता लगभग नदी होते हैं
नदी को देखते हुए
नदी हुआ जा सकता है
पर पिता को देखते हुए
पिता हो पाना लगभग असंभव है
लगभग असंभावनाओं ने घेर रखा है मुझे
मैं असंभावनाओं का समुच्चय हूँ
या अपने पिता जैसा न हो पाने के
अंतरद्वंद्वों का अतिरेक?
पिता कहते थे—
प्रौढ़ नदियाँ ज़्यादा मिट्टी काटती हैं
और परिमार्जन करके कछार बनाती हैं
पुल बन जाने से सबसे ज़्यादा उदासी
नावों को हुई
और नदियों का पानी लौट जाने पर
कछारों को
नदियों के सूखने का एक मौसम होता है
और उफान का भी
पिता एक-चौथाई उम्र तक रहे
और तीन-चौथाई रहीं उनकी स्मृतियाँ
स्मृतियाँ जब बहुत कचोटतीं
तब बुरा स्वप्न लगने लगतीं
लेकिन बादल बनकर बरसने पर भी
बारिश नहीं लगतीं
मैं एक काटी गई उम्र हूँ
जिसे नदी द्वारा काटी गई
मिट्टी का पर्याय
हो जाना चाहिए था!
आवरण
आँखों का अस्तित्व
हर तरह की सत्ता के लिए ख़तरा है
इसलिए आए दिन आँखें
फोड़ दिए जाने की ख़बरें हैं
इससे पहले आपकी भी आँखें फोड़ दी जाएँ
नज़र और धूप के चश्मे ख़रीदिए
धूप के चश्मे पूँजीवादी सभ्यताओं का आविष्कार हैं
और फूटती आँखें हमारे समय का सच
ये चश्मे हमें दुनिया में सब कुछ सही होने का भ्रम कराते हैं
दिखाते हैं कि अब भी हमारे पाँव के नीचे ज़मीन बाक़ी है
लेकिन इस दुनिया ने आवरण ओढ़ रखे हैं
हमने मूर्तियों को नैतिकताओं का आदर्श बताया
और इन्हीं मूर्तियों के अपक्षय से सहज होते गए
पलक झपकने के पहले हम कुछ और होते हैं
पलक झपकने के बाद कुछ और
परिवर्तन अनिमिष होते हैं
व्यथा यह है कि त्रासदियाँ अनिमिष नहीं होतीं
ये त्रासदियों का दौर है और हम निमित्त
शून्य हमारी संवेदनाओं का नियतांक
रिक्तता सभ्यताओं का आवृत्त सच
और त्रासदियाँ
इन्हीं रिक्तताओं को भरने की
असफल चेष्टाओं का प्रतिफल
ताम्रिकाओं पर नहीं लिखे गए
विवर्तनिक परिसीमन
सकरुण अवसान
परिष्कृत वंचनाएँ
सहस्राब्दियों का तिमिर
नैतिकताओं का आयतन
प्रतिध्वनियों के अतिशय में हम नहीं सुन पाए
नेपथ्य का कोलाहल
प्रायिकताओं का अपवर्तनांक
हमें भावशून्यता तक ले आया
और आज जब
आँखें फोड़ना राज्य प्रायोजित है
तब बेहतर यही है कि
नज़र और धूप के चश्मे ख़रीदिए!
मैं लाशें फूँकता हूँ
मेरे दुख में विसर्ग नहीं है
मेरे घर की औरतें
बिना पछाड़ खाए गिरा करती हैं
मैं लाशें फूँकता हूँ
जैसे जलती लाश की ऊष्मा से जीवन तपता है
जैसे अधजली लाशों के अस्थि-चर्म जलते हैं
जैसे वेदना से हृदय गर्हित है
विरह में आँखें रोती हैं
सुहागन के शव के गहने जलते हैं
मैं लाशें फूँकता हूँ
लेकिन उस तरह नहीं
जैसे फूँकी हैं तुमने
दंगों में बस्तियाँ
झोंकी हैं तुमने ईंट के भट्ठों में
फुलिया और गोधन की ज़िंदगियाँ
मैं लाशें फूँकता हूँ
किंतु मेरी एक जाति है
जैसे ऊना में चमड़ा खींचने वालों की
और इस देश में नाली-गटर में उतरने वालों की
समय के घूमते चक्र में क्या कुछ नहीं बदला
राजशाही से लोकशाही
बर्बरता से सभ्यता
मगर लाशों को फूँकते
ये हाथ नहीं बदले
न इनकी जाति
न मुस्तक़बिल
मात्र घाट के जलते शव
हैं, पार्श्व में सन्नाटा
और जीवन मृगतृष्णा
मैं लाशें फूँकता हूँ
मेरे दुख में विसर्ग नहीं है!
कजरी के गीत मिथ्या हैं
अगले कातिक में
मैं बारह साल की हो जाती
ऐसा माँ कहती थी
लेकिन जेठ में ही मेरा
ब्याह करा दिया गया
ब्याह शब्द से
डर लगता था
जब से पड़ोस की काकी
जल के एक दिन मर गई
मरद की मार
और पुलिस की लाठी से
मरी हुई देहों का
पंचनामा नहीं होता
न ही रपट लिखाई जाती है
नैहर में हम हर साल सावन में कजरी गाते थे—
‘तरसत जियरा हमार नैहर में
कहत छबीले पिया घर नाहीं
नाहीं भावत जिया सिंगार नैहर में’
गीतों में ससुराल जाना अच्छा लगता है
लेकिन कजरी के गीतों से
ससुराल कितना अलग होता है
नैहर और ससुराल
दो गाँवों से ज़्यादा दूरी का
मैंने व्यास नहीं देखा
न ही इससे ज़्यादा घुटन
मैं घुटन से तंग हूँ
लेकिन सब कुछ पीछे छोड़कर
कहीं नहीं जा सकती
विवाहित स्त्रियों का भाग जाना
क्षम्य नहीं होता
उनको जीवित जला दिया जाना
क्षम्य होता है
कुछ घरों की बच्चियाँ
सीधे औरत बन जाती हैं
लड़कियाँ नहीं बन पातीं
कजरी के गीत मिथ्या हैं
जीवन में कजरी के गीतों-सी मिठास नहीं होती!
मनीष कुमार यादव (जन्म : 2002) की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह इलाहाबाद से हैं और मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। इससे ज़्यादा परिचय कवि की कविताएँ दे रही हैं, जिनमें उत्कृष्टता और अचरज के नए स्तर हैं। इस प्रकार की कविताएँ इस उम्र में आना समकालीन हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है। मनीष से manishkumary346@gmail.com पर बात की जा सकती है।
दिल को छू लेने वाली कविताएं। बहुत उम्दा ❤️🙌
वाकई बहुत बेहतरीन कविताएँ हैं । मनीष को बधाई और अनंत शुभकामनाएँ 🍫
मनीष जी! आपका लेखन आपके विचारों की नवीनता और भाषा शैली की गहनता को दर्शा रहा है! विचारों का शब्दों से अद्भुत समायोजन है…. 👏👏👏
गहरी संवेदनशील कविताओं के लिये कवि को बधाई और इन्हें पढवाने के लिये सदानीरा का आभार ।
छोटे परंतु महत्वपूर्ण विषयों पर गम्भीर रचना ।आपके सुंदर भविष्य के लिए शुभकामनाएं ।
अद्भुत गहनता। जितनी प्रशंसा की जाए कम है👌👌