कविताएँ ::
मनोज कुमार झा

मनोज कुमार झा

जैसा कि देखा गया

वे न प्रेम की कमी से मरे
न साहस की कमी से
वे नमक की कमी से मरे

प्रेम अच्छी शै है—
कीड़ों की तलाश में आई एक चिड़ी ने कहा
फिर वह कहाँ ग़ायब हो गई
बरसों से ढूँढ़ रहा हूँ

एक स्त्री कितनी प्रेम-कविताओं का भार साह सकती है—
वह स्त्री बता रही थी कि उसके उन्मत्त प्रेमी ने
उसके माथे पर एक और कविता पटक दी
और वह स्त्री दर्द से बिलबिलाती हुई
अस्पताल की तरफ़ भागी कि तभी
वह प्रेम-कवि उसे कथा में खींचने लगा

यह जो प्रेम की झिलमिल है—
यह कथा के भीतर है
कथा के बाहर रेत का मैदान है
जिसमें ऊँट और ऊँटनिया लड़ रहे हैं।

एक मतदाता की ओर से

दो सौ रुपए में
मतचिह्न बदले जा सकते हैं
विचार की पेटी नहीं

जिस पर बटन दबेगा
वह चित्र बदला जा सकता है
माथे के भीतर का चित्रहार नहीं

और मतचिह्न भी क्यों बदला जा सकता है
यह जानने के लिए फ़र्ज़ करो कि
घर की आख़िरी बाल्टी टूट गई है

और बाल्टी न हो तो
न देह का पानी बचेगा
न आँख का।

कमज़ोर की हँसी

राम आए
गूँगे ने प्रणाम किया

राम के धनुष ने टंकारा
थोड़ा डरा गूँगा

फिर याद किया :
यह तो उसी के मुहल्ले का है
उसे कुछ नहीं होगा

जोकर ने जब गूँगे का स्वाँग धरा
तो गूँगे को हँसी आई
उसे बुरा नहीं लगा

एक बार फिर अनुभव को लगा कि
दुर्बल वहाँ भी हँसते हैं
जहाँ दूसरे छुरी पजाते हैं
और आत्मसम्मान की नाव पर बैठने के
सबके अलग-अलग घाट हैं।

डूब

डूबते हुए को कौन बचाता है!

मसान की अधजली लकड़ी,
नैर्माल्य के फूल,
शराब की फूटी बोतल,
भिखारी का चाटा हुआ पत्तल
सभी धँस रहे धूसर गंतव्य में

डूबता हुआ देखता कि डूबता हुआ भी नहीं इधर

डूबते हुए को कौन बचाता है!
कोई नहीं
कोई नहीं
एक तिनका इधर आ रहा था
अभी-अभी उड़ी एक पंछी—चोंच में दबाकर
उसे घोंसले में जोड़ने।

अकथनीय

कथा बिखरकर अकथनीय रह गई है
जोड़-तोड़कर जो कथरी बनी है
उसकी बुनावट स्मृति को गड़ती है

पिछले दिसंबर एक स्त्री ख़ुश थी
कि उसके सात प्रेमी हैं
इस दिसंबर वह सात से अधिक धोखों से घायल है

एक दर्ज़ी कपड़ा सिलता जाता है
और एक सरकारी आदमी कपड़ा फाड़ता जाता है
वह इतनी बार कपड़ा फाड़ चुका है
कि दर्ज़ी कपड़ा सिलना भूल चुका है

तुम्हारी स्मृति में जो कुछ है
वह मृत नाख़ून की तरह फ़ालतू है
एक बूट की धमक से यह सूचना फैलती है
और एक अत्याधुनिक मशीन इसे दुहराती है

अंतिम व्यक्ति के सारे सहारे छिन चुके हैं
और यह कथा बिखरकर अकथनीय हो गई है।


मनोज कुमार झा इस सदी में सामने आई भारतीय कविता के अप्रतिम कवि हैं। ‘किस्सागो रो रहा है’ उनका नवीनतम कविता-संग्रह है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : किंचित नवल, किंचित पुरातन

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