कविताएँ ::
नेहा नरूका
हड्डियाँ
हड्डियाँ तो देखी होंगी तुमने
अरे तुम तो युद्धस्थल से लौटे हो घायल सिपाही!
तुमने तो मरते हुए दोस्त
और सड़ते हुए दुश्मन देखे होंगे
मैंने तो सिर्फ़ गाय, कुत्ते और बकरी की हड्डी देखी है
हड्डी देखकर मन कैसा व्याकुल हो उठता है
बार-बार एक ही ख़याल आता है :
काश इस हड्डी पर मांस चढ़ जाए!
मैं देखना चाहती हूँ मांस चढ़ने के बाद वो हड्डी फिर कैसी दिखती होगी…
कैसे बनता होगा जीव…
चलता-बोलता जीव
सिपाही हड्डियाँ तो सभी एक जैसी दिखती हैं!
तुम अपने घावों को देखो
जिनसे बह रहा है रक्त
और मेरे अश्कों से इनकी तुलना करो
अपने प्रिय को हड्डी में बदलते देखना कितना कष्टदायक है घायल सिपाही!
कोई ये बात उससे पूछे जिसने अपने प्रिय को चिता की आग में जलाया हो
फिर उसकी हड्डियों को बीनकर गंगा में बहाया हो…
नदियाँ हड्डियों को पवित्र नहीं करतीं
न कोई आत्मा होती है हड्डियों में बदलने के बाद
चौरासी लाख योनियों में भटकने के लिए
फिर भी गंगा मैया ढो रही है हड्डियों को
घायल सिपाही तुम न कौरव हो, न पांडव हो
जिसे हस्तिनापुर का सिंहासन मिलने वाला है
तुम तो एक मज़दूर के बेटे हो
तुम्हें तो मज़दूरी के लिए भी सिर फोड़कर रक्त बहाना पड़ता है
तुम त्याग दो युद्ध से प्राप्त हुई इस निर्मम महानता को
हड्डियों से भी डरावनी होती हैं ऐसी महानता की शक्लें…
अकाल
जिसने अकाल देखा हो वह थोड़ा-सा गेहूँ हमेशा बचाकर रखता है
बेशक उस गेहूँ में घुन लग गया हो पर फिर भी
अकाल देख चुका व्यक्ति उस गेहूँ को फेंकता नहीं
वह अपना ज़रूरी समय घुन बीनने में गँवाता है
वह इंतज़ार करता है खिलकर आई धूप का
उछल-उछलकर बहते पानी का
वह धोता है गेहूँ, सुखाता है, परेवा उड़ाता है, फटकता है, बीनता है,
एक पीपा भरकर अपने घर के कोने में रखता है
जिसने अकाल देखा हो…
अकाल को देखना ऐसा ही होता है
अकाल हमेशा रहता है उसके मन में
एक समय के बाद मन से सब उतरता जाता है
पर अकाल नहीं उतरता
नहीं मिटती पेट से उसकी स्मृतियाँ
कलकत्ता की सड़कों पर भूख से मर चुके मनुष्यों की लाशें बिछी हैं
भूख से व्याकुल क़ैदी औरतें खा रही हैं अपने शिशुओं को
ईश्वर ने स्वर्ग से भेजा है अपनी संतानों के लिए अकाल
राजा ने भेंट किया है अपनी प्रिय प्रजा को अकाल
ऐसी क्रूर कल्पनाएँ करती हैं पीछा अकाल देख चुकने के बाद
मगर जो अकाल के बाद आया है उसे आश्चर्य होता है :
कोई घुन लगे गेहूँ को भला खा सकता है क्या
कीड़े भी कोई खाता है क्या?
एक नस्लद्वेषी हँसता है :
चीनी साँप खा जाते हैं
चीनी चमगादड़ खा जाते हैं
चीनी जानवरों के लिंग खा जाते हैं…
अकाल में पैदा हुआ बच्चा सब खाता है
जंगल में बड़ा हुआ मनुष्य जानवरों की तरह बोलता है
रेगिस्तान में फँसा शुद्धतावादी अपना पेशाब पीकर प्यास बुझाता है
अकाल देख चुका व्यक्ति थोड़ा-सा गेहूँ बचाकर
अहिंसक परंपरा में अपना थोड़ा-सा योगदान देता है।
इत्रवाले
वे आए इस तरह कि फैल गई पूरे क़स्बे में सुगंध ही सुगंध
सबने पूछा कहाँ से आए हो,
वे बोले मथुरा से
सबने पूछा क्या लाए हो,
वे बोले इत्र :
गुलाब का इत्र,
चमेली का इत्र,
बेला का इत्र,
चंदन का इत्र,
राधा के अधरों का इत्र
जिसमें घुल गई कृष्ण के अधरों से निकली लार…
वे कपड़ों से सुगंध इस तरह चिपका जाते कि
कई-कई दिनों तक वे सुगंध उसी जगह बनी रहती
याद दिलाती रहती उनके बूढ़े बदन से आती सुगंध
वे पोंछ देते किसी स्त्री के दुपट्टे से चंदन की महक वाले हाथ
बहुत से लोग कहते कि ठग हैं वे
मीठी-मीठी बातें करके भोली-भाली औरतों और आदमियों से ऐंठ ले जाते हैं पैसे
इत्र बेचने वाले गद्गद होते हुए आते,
गद्गद होते हुए जाते
उनके कपड़े होते बेहद साधारण, बहुत मैले, उनके पास होता चमड़े का एक बैग
और छोटी-छोटी दो ग्राम, तीन ग्राम, पाँच ग्राम और दस ग्राम की काँच की शीशियाँ
उन शीशियों में रात के अँधेरे में घोला जाता इत्र
ठहर-ठहरकर ली जाती ख़ुशबू
और याद किए जाते बिछड़े प्रेमी और प्रेमिकाएँ
याद किए जाते वे पल जिनमें एक साधारण से मनुष्य ने
एक साधारण से मनुष्य के साथ रचाया था रास
जब दुबारा मिलन होता
तो भेंट किए जाते अपनी-अपनी पसंद के इत्र
इस इत्र से महबूब को नहलाया जाता
फिर गहरी-गहरी साँस लेकर बसाया जाता
उसे अपने ज़ेहन में हमेशा-हमेशा के लिए
वियोग के दिनों में वह सुगंध साथ देती
इस तरह जैसे वियोगी और वियोगिनी के सखी और सखा देते हैं साथ
नींद आ जाती
दुःख हल्के पड़ जाते
चेहरे चमक उठते
इत्र वाले सिर्फ़ इत्र कहाँ लाते थे,
लाते थे मथुरा से इत्र में चुपचाप घोलकर एहसास
ज़िंदगी को ख़ूबसूरत, मानीख़ेज़ बनाकर
क़स्बे की सबसे खटर्रा बस में बैठकर
लौट जाते किसी दूसरे शहर की यात्रा पर इत्रवाले
बड़े मौज़ू क़िस्म के लोग थे इत्रवाले
जहाँ जाते थे ख़ुशबू बिखेर देते थे।
ग़ुलाम
पहले वे ग़ुलाम थे
फिर वे ग़ुलाम नहीं रहे
राजा ने घोषणा की अब ग़ुलाम और आज़ाद के साथ बराबरी बरती जाएगी
राज्य की सबसे ऊँची दीवार पर रोटियाँ टाँग दी गईं
और कहा जिसे भूख हो दौड़कर ले ले
आज़ाद दौड़े और रोटियाँ खा लीं
ग़ुलाम भी पहली बार दौड़े पर रोटियों तक न पहुँच पाए
राज्य के वित्तमंत्री ने मुफ़्त कपड़ों की एक दुकान खोली
दुकान पर एक बोर्ड लगवाया :
‘कोई नंगा न रहे, सभी कपड़े पहन लें’
आज़ाद आए और सबसे सुंदर कपड़े छाँटकर पहन लिए
ग़ुलामों के भाग्य में फिर से वही बचे-कुचे ख़राब कपड़े आए
राज्य के सबसे बड़े व्यापारी ने मकान बनाकर सस्ती दरों पर बेचे
आज़ाद आए और सारे मकान ख़रीद लिए
ग़ुलाम आए और ख़ाली हाथ वापस लौट गए
राज्य में एक बैठक आयोजित की गई
उसमें ग़ुलामों की क्षमताओं पर संदेह व्यक्त किया गया
निष्कर्ष निकाला गया कि मुफ़्त और सस्ते संसाधनों को बाँटने का कोई अर्थ नहीं,
राज्य के विकास के लिए संसाधनों को महँगा कर दिया जाए
ग़ुलामों ने हाय-हाय की
राज्य के सेनापति ने सबको उठाकर जेल में डाल दिया
ग़ुलाम जेल में पानी की दाल खाकर इंक़लाब की बातें करने लगे
जेल अधिकारी को बड़ी चिंता हुई
उसने राजा को पत्र लिख दिया :
‘महाराज, ग़ुलामी की प्रथा फिर से शुरू करें।’
राजा ने जवाब में लिखा :
‘तीर कमान से निकल चुका है,
अब मुझे पूरा ध्यान बस गद्दी बचाने पर लगाना है।’
राज्य के कवियों ने दरबार में जाकर विरुदावली गाई
सभी कवियों की रचनाओं के नायक आज़ाद थे
ग़ुलाम को किसी कवि ने नायक नहीं बनाया
ग़ुलाम को नायक मानने वाले कवि भी जेल में बंद कर दिए गए थे
क्योंकि उन्होंने अपनी कविताओं में लिखा था :
‘ग़ुलाम को बराबरी के साथ थोड़े ज़्यादा दुलार की
थोड़ी ज़्यादा देखभाल की
थोड़े ज़्यादा प्यार की ज़रूरत है’
आज़ाद बुदबुदाए :
‘आरक्षण मांग रहे हैं साले!’
राज्य के विद्वानों ने कहा :
‘न भाषा, न शिल्प; ये कवि नहीं हो सकते,
ये कुंठा अभिव्यक्त करने वाले ग़ुलाम हैं, ख़ारिज करो इन्हें…’
ग़ुलामों ने जेल में एक सुर में नारे लगाए, गीत गाए, कविताएँ सुनाईं, बहसें कीं…
राज्य कुछ नहीं कर सका
क्योंकि वह जानता था
मौत से बदतर ज़िंदगी जीने वाला ग़ुलाम मौत से नहीं डरता!
नेहा नरूका हिंदी की सुपरिचित कवयित्री हैं। आज से क़रीब चार वर्ष पूर्व ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताएँ पहली बार इस परिचय के साथ प्रकाशित हुई थीं : ‘‘नेहा नरूका (जिनकी अब तक प्रकाशित कविताओं के साथ उनका नाम नेहा नरुका देखने में आता है) अपनी ‘पार्वती योनि’ शीर्षक कविता से साल 2013 में चर्चा के केंद्र में आई थीं। बाद में उनकी कविताएँ कुछेक वेब और प्रिंट पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं और इनमें एक ख़ास क़िस्म के विद्रोह और स्थानीयता की आवाज़ें लक्षित की गईं। हिंदी में इन दिनों जो दृश्य है, उसमें इस स्वीकार्यता से काफ़ी कुछ पाया जा सकता था—कविता और विद्रोह को छोड़कर। लेकिन नेहा में मौजूद कविपन और उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि उन्होंने ख़ुद को हिंदी के उस समकालीन संसार से जिसमें आधी कौड़ी की रचनाएँ भी रचनाकार की मार्केटिंग का हिस्सा हो गई हैं, भरसक बचाए रखा है। नेहा से nehadora72@gmail.com पर बात की जा सकती है।’’
बहुत अच्छी कविताएं
बहुत ही सुंदर कविताएँ👌