पाठ ::
तसनीफ़ हैदर

चीनी लेखक यान लियांके का एक दिलचस्प मज़मून कोरोना काल के दौरान ही सामने आया। वो दरअसल उनका एक ई-लेक्चर था, जिसमें उन्होंने याददाश्तों की अहमियत पर ज़ोर दिया था। इसी लेख में कुछ चीनी लेखकों के हवाले भी थे। लू शुन की दो कहानियों का ज़िक्र था। मैंने वो दो कहानियाँ तो नहीं पढ़ीं। अलबत्ता मुझे ज़्वे अंसारी की तर्जुमा की हुई उनकी एक कहानी ‘एक पागल की डायरी’ उर्दू में मिल गई थी। उसमें भी एक ऐसे शख़्स की रूदाद थी जिसे ये भरम हो जाता है कि सारी दुनिया उस के ख़िलाफ़ हो गई है और उसकी जान लेना चाहती है। चुनांचे इस पागलपन में मुब्तला होकर उसने अपने अंदेशों को एक डायरी में लिखना शुरू कर दिया था। कहानी का केंद्रीय बिंदु ये था कि अंदेशों में घिरा हुआ आदमी कैसे धीरे-धीरे सबके ख़िलाफ़ हो जाता है, उसे यही लगता है कि जो कुछ हो रहा है, उसी के ख़िलाफ़ हो रहा है। इसी वजह से वो बात-बात पर विरोध पर उतर आता है। ये सूरत-ए-हाल हमारी क़ौमी सूरत-ए-हाल से थोड़ी अलग हो सकती है, मगर व्यक्तिगत तौर पर इसने हमें उदास और झगड़ालू तो बनाया ही है। बहरहाल, मैं यादों के ज़िक्र पर वापिस आता हूँ। यान लियांके के इस मज़मून के बाद मुझे अब तक चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के तीन लेखकों को पढ़ने का इत्तिफ़ाक़ हुआ है। यासूनारी कावाबाता की बात अलग है कि मैं उसे दिल से पसंद करता हूँ और उसके लिखे साहित्य पर अलग से कभी बात करूँगा। मगर जिन लेखकों का ये ज़िक्र है वो हैं चीन के मो यान, जापान की योको ओगावा और दक्षिण कोरिया की हैन कैंग। मो यान और हैन कैंग पर अलग से लिखना चाहिए, मगर एक समान बात जो इन तीनों लिखने वालों के यहाँ है वो है वातावरण का बयान और उसके ज़रिए इंसानी साइकोलॉजी पर पड़ने वाला असर। इन तीनों की कहानियों में मुख्य किरदारों के यहाँ शख़्सियत में जो टेढ़ापन या ग़ुलामाना ज़ेहनियत पैदा होती है। उसका बीज बचपन में ही बो दिया जाता है। मो यान और हैन कैंग के हवाले से फ़िलहाल इतनी ही बात कहनी काफ़ी है। इस वक़्त मैं ख़ास तौर पर योको ओगावा के नॉविल पर बात करना चाहता हूँ।

फ़र्ज़ कीजिए, आप एक ऐसे शहर में रहते हैं जहाँ कोई भी चीज़, मामूली से मामूली—एक रोज़ अचानक ग़ायब हो जाती है और आपको अपनी ज़ेहन की स्लेट से भी उसे मिटाना है। ये इतना ज़रूरी है कि अगर आप ऐसा नहीं कर पाते तो यादों को कंट्रोल करने वाली पुलिस आपको गिरफ़्तार कर सकती है, आपको सज़ा सुना सकती है और जान से भी मार सकती है। पुलिस का ये ज़ुल्म ही योको ओगावा के उपन्यास का मुख्य ख़याल है। इसलिए ही उनके नॉविल का नाम ही है—‘मेमोरी पुलिस’। उर्दू या हिंदी में इसका कोई ठीक-ठीक पर्यायवाची मुमकिन नहीं फिर भी ‘यादों वाली पुलिस’ कहकर आप अपना जी हल्का कर सकते हैं। योको ओगावा के इस नॉविल को बुकर प्राइज़ के लिए नामज़द किया गया था। मगर बुकर तक पहुँचने का उसका सफ़र क़रीब पच्चीस साल का रहा है, क्योंकि असल में ये नॉविल 1994 मैं प्रकाशित हुआ था। इस अनूदित नॉविल को पढ़ते वक़्त भी जैसे आप एक अजीब से ख़ौफ़ में घिर जाते हैं। नॉविल में तीन अहम किरदार हैं। मुख्य किरदार एक नॉवलिस्ट औरत का है जिसने बचपन से ही अपने टापू पर चीज़ों के गुम होने और उन्हें भूल जाने के तरीक़े को समझ लिया था और जो बड़े होते-होते बहुत से दूसरे बाशिंदों की तरह अचानक किसी चीज़ के ग़ायब कर दिए जाने के हुक्म पर अमल करने की आदी हो जाती है, कहा जा सकता है कि चीज़ों से उसका लगाव सिर्फ़ ज़रूरत की हद तक ही रह जाना चाहिए था। मगर फिर भी वो ऐसा कर नहीं पाती और इसके दो सुबूत नॉविल में मौजूद है। एक बार जब अनोय परिवार ख़ामोशी से लेखिका के घर आता है और उसे ख़बर देता है कि मेमोरी पुलिस चूँकि प्रोफ़ेसर अनोय को तलब कर रही है और वो उनके पास जाने का अंजाम जानता है और इस वजह से वो अपने परिवार समेत, जिसमें दो लड़कियाँ, एक छोटा बच्चा और उसकी पत्नी है, कहीं छुपने के लिए जा रहा है और अपनी बिल्ली को पीछे छोड़े जा रहा है तब लेखिका को उन्हें विदा करने के बाद ख़याल आता है कि उसे उस बेचारी बिल्ली को अपने पास रख लेना चाहिए था। इसी तरह उसके पड़ोस का एक ख़ानदान, किसी को अपने यहाँ पनाह देने के जुर्म में गिरफ़्तार कर लिया जाता है और उनके सुनसान घर में सिवा एक पालतू कुत्ते के और कोई नहीं रह जाता तो लेखिका उसे डरते-डरते ही सही मगर अपने घर ले आती है और पालने-पोसने लगती है। ये बात बताती है कि इंसानी भावनाओं को किसी भी तरह के ख़ौफ़ से कंट्रोल करना मुमकिन नहीं है।

कहानी के दूसरे किरदारों में एक बूढ़ा शख़्स है जो पहले मल्लाह हुआ करता था और लोगों को टापू के पार ले जाया करता था, और अब जबसे किसी को टापू से बाहर जाने की इजाज़त नहीं है, वो अपनी कश्ती में घर बनाकर रह रहा है। ये एक बेहद दिलचस्प किरदार है। जिसने उस जगह के वो दिन भी देखे हैं, जब यहाँ तमाम चीज़ें मौजूद थीं। तरह-तरह के फल थे, फूल थे, लोगों को कहीं आने-जाने से रोका नहीं जाता था। उन्हें अपनी पसंद की चीज़ें चुनने, उन्हें सँभालने की आज़ादी थी और उस द्वीप पर ख़ौफ़ और भय का राज नहीं था। इस किरदार के साथ मेरी ज़बरदस्त हमदर्दी रही है। किताब के अध्ययन के दौरान मुझे हमेशा यही महसूस होता रहा है कि मैं इस बूढ़े से अपने आपको ज़्यादा वाबस्ता कर पा रहा हूँ, क्योंकि मैं भी बहुत कुछ बदलता हुआ देख रहा हूँ। मेरे आस-पास भी चीज़ें बहुत तेज़ी से तब्दील हो रही हैं। नए-नए क़ानून आ रहे हैं और ऐसा लगता है जैसे एक दिन मैं जिस जगह पर रहता हूँ, उस का हुलिया बिल्कुल बदल जाएगा और तब मेरा अंजाम भी वही होगा जो इस बूढ़े मल्लाह का हुआ।

तीसरा किरदार एक संपादक का है। ये उस प्रकाशन संस्था का संपादक है, जो लेखिका के तीन नॉविल प्रकाशित कर चुका है और हर नॉविल की नोक-पलक को इसी संपादक ने सँवारा था। ये शादीशुदा शख़्स है और उम्र में भी लेखिका से काफ़ी बड़ा है। चूँकि रचनात्मक हिस्सों से बहुत गहरे हद तक जुड़ा हुआ ये शख़्स कुछ भी भूल सकने की शक्ति ख़ुद में नहीं पाता। इसलिए उसे आशंका होती है कि बहुत जल्द मेमोरी पुलिस उसे गिरफ़्तार कर लेगी और या तो वो किसी काल-कोठरी में सड़ रहा होगा या फिर उसे मौत के घाट उतार दिया जाएगा। इसी वजह से लेखिका ये तय करती है कि संपादक को जिसका नाम ‘आर’ है, वो अपने घर में छिपा लेगी । इस वजह से घर में तहख़ाने की शक्ल के एक कमरे को रहने के लायक़ बनाया जाता है और उसमें संपादक को मुंतक़िल कर दिया जाता है। इस पूरी योजना का हर हिस्सा इतना दिलचस्प है कि आप हैरान-ओ-परेशान उसे पढ़ते चले जाऐंगे, जैसे कि एक सर्द इलाक़े में , ढलते-चढ़ते अँधेरों के दरमियान किसी बूढ़े पेड़ के खोखले तने से झाँककर आप ये सारा मंज़र देख रहे हों।

मैं कहानी का प्लॉट बताने लगा, मगर किरदारों से इस हद तक शनासाई ज़रूरी थी। चलिए आगे कुछ नहीं बताता हूँ। मगर योको ओगावा की लेखन-शैली की दाद दिए बग़ैर नहीं रह सकता। जहाँ तक चीज़ों के ग़ायब होने का सवाल है। यान लियांके के उस लेक्चर से ये बात मुझे समझ में आ गई थी कि चीन और जापान के विषयों में भूल जाने या ग़ायब हो जाने का रूपक बहुत अहम है। वहाँ इस विषय पर बहुत कुछ लिखा गया है। मैंने भी जब तलाश किया तो ऐसी कई कहानियों और नॉविलों के नाम मिले जिनमें चीज़ों के ग़ायब हो जाने का तसव्वुर या उन्हें भुला दिए जाने की बात बहुत हद तक हावी थी। जापान की एक मशहूर कहानी जिसकी महज़ जापान में दस लाख से ऊपर कापियाँ बिक चुकी हैं, गेंकी कावामुरा की ‘अगर दुनिया से बिल्लियाँ ग़ायब हो जाएँ’ है। इस पर एक फ़िल्म भी बन चुकी है। ये ग़ायब होना, चीज़ों का हाथों से फिसल जाना, उन्हें भुला दिया जाना या जबरन चीज़ों को भूलने पर लोगों को मजबूर करना, उन्हें बे-हिस बनाना। ये सब हमारे भी इतने ही क़रीबी मुआमले हैं। अगर में ये कहूँ कि मेरे आस-पास की दुनिया का हर इंसान सख़्त किस्म का बे-हिस और ज़ालिम बन चुका है तो कुछ ग़लत नहीं होगा। मैं भी अपने ही लोगों में शामिल हूँ, बस रचनाओं से जुड़े रहने और नॉविलों को पढ़ने के मेरे शौक़ ने मुझे अपनी ही इस कमज़ोरी से बहुत हद तक आगाह किया है। हम सब एक ऐसे भविष्य की तरफ़ बढ़ रहे हैं, जिसका कोई अतीत ही नहीं है। हर दिन हमारे रहने और जीने के तरीक़े बदल रहे हैं या बदल दिए जा रहे हैं । मगर हम इस पर ग़ौर तक नहीं कर सकते, क्योंकि रफ़्तार हमें इसका मौक़ा नहीं दे रही। इस बात के सबूत में आपसे दो ख़बरों का ज़िक्र करता हूँ। मैंने एक ख़बर पढ़ी जिसमें एक आदमी ने अपनी पत्नी की शर्मगाह को ताँबे के तार से सी दिया, क्योंकि उसे शक था कि उसकी बीवी का किसी और के साथ ताल्लुक़ क़ायम हो गया है। दूसरी तरफ़ मैंने एक वीडियो देखा जिसमें एक अपाहिज को एक हट्टा-कट्टा इंसान बुरी तरह पीट रहा था, उसे मुक्के मार रहा था, उसे उठा-उठाकर पटख़ रहा था और आस-पास खड़े लोग गालियाँ बक रहे थे, वीडियो बना रहे थे। यक़ीन जानिए कि मेरी तंत्रिकाओं पर इन दोनों ख़बरों ने एक लम्हे भर के झटके से ज़्यादा कोई गहरा असर नहीं डाला। मैं इन ख़बरों को स्क्रॉल करता हुआ आगे बढ़ गया और बुनियादी इंसानी अहसास से महरूम अपनी आँखों के जनाज़े को किसी ख़ुश कर देने वाली वीडियो की दहलीज़ पर रख आया।

अब सब कुछ मुमकिन है। जिस किस्म के दबाव, मीडिया की दलाली और पुलिस के ख़ौफ़ का हम शिकार हैं। उसके बाद हमारे लिए मुमकिन ही नहीं कि किसी बात पर तुरंत परेशान होकर विरोध की आवाज़ बुलंद करें। इस दबाव का असर ये है कि अब हमारे अंदरून में करप्शन के कीड़े तक सड़ने लगे हैं। हम ख़यालों में भी गहरे करप्ट और सच्चाई से दूर भागने वाले, अपनी ग़लतियों को क़ौमपरस्ती और मुल्कपरस्ती की चादरों में छिपाने वाले लोग बन गए हैं। हमारे हर अनैतिक काम का एक नैतिक तर्क हमारे पास मौजूद है। और ये सब हमें इसी दुनिया ने दिया है, जिसमें हम अपने अतीत और अपनी याददाश्तों को दफ़नाते चले जाने के लिए मजबूर हैं।

ग़ौर कीजिए कि आपका जिस्म भी एक द्वीप है और इससे ग़ायब होने वाली चीज़ें बहुत मामूली हैं, जिनके ग़ायब होने से आप सोचते हैं कि कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता। आप उनके बग़ैर भी जी सकते हैं और अच्छी तरह जी सकते हैं। इस आज्ञाकारिता का नतीजा ये होता है कि धीरे-धीरे आप अपना ज़ेहन, अपनी आँखें, अपना ज़मीर और अपना दिल सभी कुछ खोने लगते हैं। आपको बताया जाता है कि आपका कोई अतीत नहीं है, कभी कोई ऐसी चीज़ होती ही नहीं थी और आप इस पर बग़ैर किसी शक-ओ-शुबह के ईमान ले आते हैं। इसीलिए आपसे कहा जाता है कि जो बात भी आपसे कही जाए उस पर ईमान लाइए, और अगर आप ऐसा नहीं करेंगे , शक करेंगे, सवाल करेंगे तो आप मुजरिम हैं। आपको इस बात की सज़ा दी जाएगी। फिर आप यही करते हैं, फिर आपको बताया जाता है कि आप पिछली किसी भी चीज़ के बग़ैर आसानी से जी सकते हैं, नौकरी पा सकते हैं, पैसे कमा सकते हैं, पित्ज़ा और डोनट खा सकते हैं, गर्लफ़्रेंड बना सकते हैं। मगर आप किस बात पर बोलेंगे, किस पर नहीं, किसे दोस्त समझेंगे किसे दुश्मन, किसके साथ शादी करेंगे, किसके साथ नहीं। ये सब कुछ मेमोरी पुलिस तय करेगी। मेमोरी पुलिस, यानी पिछली यादें मिटाकर नई बातें आपके ज़ेहन में उड़ेलने वाली मेमोरी पुलिस और आपको इस हद तक ग़ुलाम बनाया जाएगा कि जिस चीज़ को मिटाने का हुक्म दिया जाए आप उसे ख़ुद अपने हाथों से मिटाएँगे, उस का नाम-ओ-निशान मिटा देंगे, उसे भूल जाएँगे और फिर इस नुक़सान पर जश्न भी मनाएँगे और अगले दिन इस तरह जागेंगे, जैसे आपने कुछ खोया ही नहीं है। और ये मेमोरी पुलिस कोई और नहीं, हर वो राज्य या व्यक्ति है, जो आपसे कहता है कि शक मत करो, पीछे मत देखो, सवाल मत करो, ग़ौर मत करो। इसमें सभी लोग शामिल हैं, आपके माँ-बाप भी, दोस्त भी, रिश्तेदार भी, पड़ोसी भी और थोड़े बहुत ख़ुद आप भी।

नई दुनिया या आगे बढ़ती हुई दुनिया में तब तक कोई बुराई नहीं, जब तक वो अपने गुज़रे हुए कल से ख़ौफ़ न खाए। ऐसी दुनिया जो किसी भी तरह की याद से ख़ौफ़ खाती है, अपने पुराने तरीक़ों को बदलने में ज़्यादा तेज़ी दिखाती है। इसलिए जब किसी न्यूज़ चैनल का एंकर चिल्लाकर कहता है कि हिंदुस्तान का हर मुसलमान दहशतगर्द है तो उसे सुनने वाला हिंदू भूल जाता है कि वो पिछली कई सदियों से इसी मुल्क में मुस्लमानों के साथ रह रहा है या जब कोई मुसलमान अपनी मज़हबी शनाख़्त को हवाला बनाकर इस बात पर अड़ जाता है कि वो शादी के लिए अपने महबूब का धर्म परिवर्तन कराकर रहेगा तो वो भूल जाता है कि अभी कुछ वक़्त पहले जब उसने किसी इंसान से मुहब्बत की थी तो महज़ इंसान से की थी, उसकी मज़हबी पहचान से नहीं। हम भुलक्कड़ बना दिए जा रहे हैं, भ्रष्ट बना दिए जा रहे हैं और हमारे अंदर की कड़वाहटें इसीलिए गहरी हो रही हैं; क्योंकि हम कुछ भी याद करना नहीं चाहते। न अपनी अच्छाइयाँ, न बुराइयाँ। हम अपने आज के बनाए हुए सख़्त-गीर क़िस्म के उसूलों पुर इसरार करते हैं क्योंकि हमसे ऐसा करने के लिए कहा गया है, इसीके लिए हमारी तरबियत की गई है। ये बरसों की तरबियत का नतीजा है, इसलिए इतनी आसानी से हमें इस कमज़ोरी से छुटकारा भी मिलना मुश्किल है। बस ज़रूरत है तो इसे जानने की, अपनी इस कमज़ोरी को देखने की।

हमारी नई सियासत ने पुराने मज़हबी इंकिलाबों से जो बात सीखी है वो यही है कि आज से पहले जो कुछ भी था, वो मिटा देने और भुला देने के लायक़ है, बुरा है और हम इतने कोरे हैं कि इन बातों पर यक़ीन करके ख़ुद ही तमाम पुरानी निशानियाँ मिटाने के लिए उठ खड़े होते हैं।


तसनीफ़ हैदर उर्दू की नई नस्ल से वाबस्ता कवि-लेखक हैं। उनका उपन्यास ‘नया नगर’ शीर्षक से हाल ही में प्रकाशित होकर चर्चा के केंद्र में है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए : सारे शहर को तुमसे सीखनी चाहिए तन्हाई और ख़ूबसूरती

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