कविताएँ ::
निधि समर
जगहें
सूखे पत्ते
अक्सर बताते हैं कि
ज़र्द हो जाने के बाद भी
धूल में मिलकर
उग आएँगे आप
कहीं किसी दूसरी डाल पर।
खंडहर दिलाते हैं याद
कि ज़िंदगी कभी दीवारों में
दर्ज थी वहाँ
और आप बना सकते हैं
अपने लिए हमेशा
एक नया
सहज जीवंत घोंसला।
किसी एक जगह से
उखड़े लोग और पौधे
हमेशा नहीं खोते
दुबारा जड़ें जमा लेने की फ़ितरत
बस बात इतनी ही है
कितनी बचा ली गई है तुम में
नया गढ़ लेने की जिजीविषा
तुम्हारा सृजन
यह जानते हुए भी
कि हम सबमें अटका हुआ है
एक ज़र्द पत्ता
एक ढहता खंडहर।
पीले स्वेटर में ज़ाहिद
मैं गाँव के ठाकुर की बिटिया
गरम-गरम रजाई में
अलसाई जमुहाई
तपते में भुनी शकरकंदी
निमोना अम्मा के हाथ का
पिछले जन्मदिन पर मिला
नया कोट पहनने का मौक़ा
स्कूल से ढेरों छुट्टी मारने का भी
यह है शुरुआत मेरी सर्दियों की
‘अम्मा माई तनि से तेल मांगिन है’—
आवाज़ आई चौखटे से
तेल और मिट्टी मे काला पड़ा
पीला स्वेटर पहने
टखनों से ऊपर टँगी पैंट
फटे गालों पर कत्थई पपड़ी
पिछले साल दिए मेरे जूते के छेद से
निकला छिला हुआ अँगूठा
‘तेल काहें चाही’—
यह हैं मेरी अम्मा
ठकुराइन—
‘बिहानै तो देहे रहे रोज रोज मांगत है सब’
भंडार में उनका भनभनाना
मेरा मुँह बिचकाना
ज़ाहिद का मुस्कराना
वह मुझे दिखता है
बबूल की टहनियाँ काटते
बाँधते
सिर पर रख घर पहुँचाते
अपने और ‘मेरे’
‘अम्मा हमार अंगूठा छिलि ग रहा
तपता बदे लकड़ी काटत की
तेले से सेंकब’
ज़ाहिद की अम्मा माँग लाती हैं
पुरानी साड़ियाँ और कतरने
ठकुराइनों के बड़े-बड़े बक्सों से
बनाती हैं कथरियाँ और बिछौने
और ज़ाहिद…
वह लाता है पुआल
बिछाता है उस पर बिछौने पर बिछौना
बछिया को सिरहाने बाँध
वह छिप जाता है उस गुदड़ी में
गिनता है तारे
सुनता है
अब्बा के हुक्के की गुड़-गुड़
कल शाम मैंने दे दी थी
उसे अपने हिस्से की शकरकंदी
उसने बताया जो था अपना राज़
कि कथरी में दोनों हाथ रगड़ने से
गरम हो जाती है कथरी
वह मेरे तपते पर आग सेंकने आता है
मैं लिखती हूँ अपना होमवर्क
वह लकड़ियों से खेलता है
चिनगारी से करतब दिखाता है,
अक्सर लगाता है गरम तेल
‘मेरे पापा’ के तलुवों में
मिलते हैं उसे दस रुपए
जिससे ख़रीदेगा वह अम्मा का सुई-धागा
और ‘हम दोनों’ खाएँगे
खिचड़ी के मेले में जलेबी
ज़ाहिद की अम्मा बताती हैं मेरी अम्मा से
मुस्तक़ीम भाई घर नहीं आएँगे
मना कर दिया फिर से
उन्होंने निकाह के लिए
सड़क किनारे झुग्गी में जगह नहीं है
दिल्ली में लेंगे कमरा किराए पर
पहले लेंगे बैटरी रिक्शा
बनाएँगे उत्तर वाली कोठरी
फिर लाएँगे कुछ ज़ाहिद के लिए
और करेंगे शायद निकाह
फ़िलहाल उनकी अम्मा उनसे नाराज़ हैं
ख़ैर,
मुझे ज़ाहिद के बालों से खेलना पसंद है
लेकिन उसे छूने पर धुलवाती हैं हाथ अम्मा
ठंडे पानी से
ज़ाहिद से वह घर के सारे तख़्त धुलवाती हैं
ठंडे पानी से
हम दोनों के एक साथ ठंडे होने का मौक़ा
हम दोनों के सर्दियों में जुड़ने का मौक़ा
ज़ाहिद अंदर से ज़्यादा ठंडा है
कम बोलता है
घूरता है
मेरी कॉपी
शकरकंदी और कोट
या करता रहता है ऊबड़-खाबड़ काम
उसकी आँखें
उसके हाथ
सब सर्द हैं
सर्दियों से ज़्यादा सर्द दिखते ज़ाहिद से
पूछूँगी मैं एक दिन
कैसे होती है उसकी सर्दी की शुरुआत?
कठिनता
सच्चा झूठा
ठीक-बेठीक
कैसे तय हो पता नहीं
ऐसे साँचे-खाँचे को मानना
हार जाना था
जब पहली दफ़ा
मुँहफट या बदतमीज़ होने की
घोषणा की गई होगी
तब बस प्रतिरोध दर्ज किया गया था
दोयम क़रार दिए जाने का।
कच्ची उम्र में जब सिखाए जा रहे थे
आदर्श लड़की होने के पाठ
कहाँ बूझती थी—
तमीज़ और बदतमीज़ी!
कैसे ध्वन्यार्थ बदलता है शब्दों का
अलग-अलग किरदारों के लिए
दो पाटों में बँटी परिभाषाएँ
षड्यंत्र जान पड़ती हैं
अब जबकि वह अपना नया गढ़ती है
उमस, घुटन, चुप्पी, दोहरा नहीं गढ़ पाती
तेईस की उम्र में जब
किसी भी आदर्श से कोसों परे
बकलोल, झक्की, आवारा तक का
सफ़र तय हो गया है
जो उसकी अपनी ख़ास प्रिविलेज भी है
उसके आदर्श खाँचों में नहीं निर्धारित होते
दो पाटों के बीच की धूमिल जगह पर
उम्मीद, स्नेह, विश्वास, धूप-छाँव, सख़्ती-नरमी से
उगता है उसका सृजन।
जैसे—
प्रेम करना निर्बाध बह जाना है
इत्मिनान से प्रेमिल पौधा उगाना है
अधिकार जताना बेईमानी है
असुरक्षित महसूस करना सीमा है
उम्मीद करना दबाव बनाना है
सपने देखना सहारा देना है
बाँटना ज़िम्मेदार होना है
प्रेमी, प्रेमिका के पूर्व प्रेमी, प्रेमिका
हमेशा रक़ीब नहीं
अतीत के ऐसे किरदार हैं
जो वर्तमान में सहज दोस्त भी हो जाते हैं
ख़ुद को अतीत हो जाने के लिए
मज़बूती से तैयार पाना
प्रेम में होने से पहले
ख़ुद को प्रेम कर पाना
प्रेम में निर्बाध बह जाना
ऐसा गढ़ने की कोशिश में
दिवालिया घोषित किया जाना
विरोध है उसके सृजन का
लेकिन तृप्ति-संतुष्टि अभी कहाँ
वह तो सशंकित रहती है
अपने सृजन के खाँचों में बदल जाने की
संभावना भर से।
कठिन है :
सृजन का मूल्य तय कर पाना
प्रेम में निर्बाध बह पाना।
अस्ल में अस्ल
कभी-कभी लगता है
जो सोचा-समझा है
सब कितना थोथा है
अमलतास एक छलावा है
नशे में असल का पता नहीं लगता
खिड़की से छनती धूप पसंद है
दिन चढ़ते जो अब झेली नहीं जाती
पसंद-नापसंद का खेल भरमाता है
सूरत-सीरत के जाल से परे
सामने वाले चेहरे पर झलकती
तुम्हारे लिए संवेदना और भावना
गढ़ती है अमलताश या कड़ी धूप
बौराए हुए दिमाग़ में
टूटते हैं अपने लिए गढ़े गए
ख़ुशफ़हमी के फ़्रेम।
समझ आता है अपने देवत्व के पीछे छिपी
लिजलिजी रीढ़-सी आसक्ति
नहीं होते हैं आज़ाद
न कर पाते हैं
और अंत की शुरुआत होती है,
मुस्कुराहट के बाद अचानक
दूसरी ओर फिर गई नज़र से
कहीं दूर से आती आवाज़ की तरह
धीमे होते जाते संवादों से
जब नया पौधा लाना
एकल निर्णय होने लगे
सहमति-आपत्ति के बजाय
शांत घर में कूकर की सीटी बज जाए
सड़क घर से ज़्यादा अपनी लगे
मान लेती हूँ ऐसी हालत में
अपने अंदर के दैत्य को मैंने ज़्यादा छूट दी है।
मन जो यूटोपिया गढ़ता है
अस्ल उसका प्रतिबिंब हमेशा नहीं हो पाता
जिन खाँचों को बाहर तोड़ने का
ज़िम्मा लिए हम फिरते हैं
कहीं भीतर ही भीतर वही खाँचा
हमें बुरी तरह तोड़ देता है
मन कभी नहीं मानता—
अमलतास गढ़ा हुआ बिंब है
अस्ल न झेली जाने वाली कड़ी धूप।
निधि समर की कविताओं के कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से पीएच.डी शोधार्थी हैं। उनसे nidhisamarsingh96@gmail.com पर बात की जा सकती है।