कविताएँ ::
प्रज्वल चतुर्वेदी

प्रज्वल चतुर्वेदी

रोने का स्वाद

रोने का स्वाद
पोलियो की बूँदों की तरह
होता है

पोलियो से
टेढ़े होते हैं अंग
रोने से टेढ़ी हो जाती है
दुनिया

टेढ़े जगत में
हम सीधे नहीं चल पाते
ठोकर खाते हैं
गिर जाते हैं

गिरने से
चपटा हो जाता है
मुँह
सीधे नहीं पड़ते पैर

हम बचपन में
रोने से नहीं गिरते
गिरने से
रोते हैं

पता नहीं
तब रोने से
क्या चपटा होता है

दुनिया
या
चेहरा

मुलाक़ात

इस रास्ते पर क़दमों के निशान
इतने हैं
कि निशानों के नीचे
दब गया है रास्ता—
जैसे नींद के नीचे दबी हुई मौत
हर नींद के पीछे—
रेंगती हुई

तुम आगे जाना चाहते हो
नए रास्ते पर जाना
अकेले जाना
वहाँ जहाँ कोई नहीं जाता हो
तुमको खोजना आसान होगा

विशेष परिस्थितियों में
जैसे मौत अचानक झाँक जाती है
आँखों में
चलती ट्रेन से नीचे उतरते समय

कभी हमारी निगाहें भी
ऐसे ही मिलेंगी
तुम मौत जैसे हड़बड़ाकर निकल जाओगे

मैं सहमा हुआ
अपनी साँसों को सँभालूँगा
और मुड़कर देखूँगा पीछे

हर शाख़ का उल्लू

हर जगह होने की जद्दोजहद में
वह कुछ जगहों से होकर गुज़र गया
दिनदहाड़े
जबकि उसे कुछ जगहों पर होने के लिए
हर जगह से गुज़रना पड़ता
रात-रात

आवाज़ों के आधार पर शिकार करते-करते
उसे ध्यान नहीं आया कि
वह अच्छे शब्दों का शिकार हो रहा है

किसी की नीरव अकेली रात को
उसने और भयावह बना दिया
अपने गायन से

आँखें स्थिर रखकर उसने गर्दन घुमाई

यूनान के योद्धाओं को
विजय-संदेश पहुँचाकर
सीज़र की मृत्यु की भविष्यवाणी की

परेशान लोगों का उपहास उड़ाने के लिए
जागा रात भर

भूख लगने पर दिन में भी ढूँढ़ता फिरा
किसी कमज़ोर को

दुनियावी दरख़्त की जिस-जिस शाख़ पर बैठा
सबसे की उसने उन पर बसेरा करने की बात
हर बार नई शाख़ से दुहराई पुरानी बात
रटे हुए मंत्र की तरह

तुमने अनसुना कर दिया एक उपमा को
उल्लू की तरह बुद्धिमान

उसने तुम्हें धीरे-धीरे भरोसा दिलाया कि
अँधेरे में रहने वाले भी विश्वासपात्र होते हैं

अच्छा सुनने के लालच में बोलने लगा अच्छा
उड़ा ऊपर वाली डाल पर बैठने के लिए

चाहा हुआ

मैंने जिन्हें पाने के लिए प्रार्थनाएँ कीं
वे दूसरों के लिए ईश्वर हो गए

मैंने जहाँ समझा कि
जीवन की उलझनें सुलझ गई हैं
सामने ही मिल गए तीन-चार चौराहे

मैंने रुकने के लिए
पैरों के थके होने का हवाला दिया
तो परियों के देश से उतर आया
उड़ने वाला घोड़ा

मैंने जब लौटना चाहा
तो पीछे छूटी ग़लतियों ने रोका रास्ता
भविष्य अँधेरी सुरंग से
गुज़रने वाली ट्रेन थी
जिससे मैं दो-तीन स्टेशन पहले ही
चेन खींचकर उतर गया

मैंने जहाँ अकड़ना चाहा
वहाँ ठंड से अकड़ गई पूरी देह

मैंने जब रोना चाहा
तो आँखें इतनी नीची हो गईं
कि ऊपर न उठ पाई
आँसू की एक बूँद भी

मैंने जैसी कल्पना की
सपने हू-ब-हू वैसे ही आए
मैंने जैसा चाहा
ठीक वैसा हुआ नहीं

आसमान ने नहीं कहा बारिश होगी

आज बीच दुपहर
चलने लगी ठंडी हवा
घिर आए बादल काले-नीले
जैसे लतियाए गए आसमान की
चमड़ी पर उपट आए हों
चप्पलों और बेल्टों के निशान

आज बीच दुपहर खिड़की तड़तड़ाने लगी
पन्ने बिखर गए कमरे में सब जगह
धूल ने पर्यटन किया पैर से सिर तक
और बादलों ने आश्वासन दिया
किसी चुनावी नेता की तरह
ख़ूब गरजे और बिजलियाँ पीटीं

लगा की हाँ
मौसम में आएगा परिवर्तन
झमाझम होगी बारिश

और इतना नाटक मचाने के बाद
बादल नेताओं की तरह फुर्र हो गए
हम कमरे में पन्ने उठा रहे थे
जैसे रैलियों के बाद कुर्सियाँ बटोरी जाती हैं

आसमान ऐसा हो गया
जैसे उसने कभी कहा न हो
बारिश करवाने के बारे में

किसी के इस तरह बदलने की पहली घटना नहीं थी यह

मुझे याद आने लगी तुम्हारी आदत—

पलट जाने वाली
बदलने वाली

आज रात न हुई तो

आज रात अगर रात न हुई
तो शायद तारों के सामने से
एक चलचित्र छूट जाए
चाँद अपना टेढ़ा मुँह छुपा ले
कोई अप्सरा उतरना चाहे अगर
उच्चैःश्रवा रोशनी में निकलने से मना कर दे

आज रात न हुई
तो एक सुंदर सपना हमारे हिस्से का
सोता रह जाए लंबी तानकर
कोई भूख को न ओढ़ा पाए काली चादर

आज रात न हुई अगर तो
शायद मैं चैन से सो जाऊँ
बिना सोचे तुम्हारे विषय में
झींगुरों और मच्छरों की संगीत-सभा में
अनिमंत्रित घुस जाऊँ
और उनके सामने बैठूँ कान में रूई ठूँसकर

आज रात न हो तो
पेड़ देर तक करें फ़ोटोसिंथेसिस
फूल देर तक खिले रहें
किताबें देर तक खुली रहें
दुकानें देर से खुलें
बच्चे गलियों में खेलें देर तक
अँधेरे में कोई गेंद न खो जाए

आज रात न हो तो उसको क्या
जिसके साथ हो तुम
जिसके ऊपर पड़ रही है तुम्हारी परछाई

अपरिहार्या

इस समय जब दुनिया में
आग लगी हुई है
मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि
तुम पढ़ना सीखो क्योंकि
मैं उसकी राख से स्याही बना रहा हूँ
लिखने के लिए
तुमको एक पत्र

मैं दुनिया को
फिर हरा करने के उद्यम कर रहा हूँ
इस समय जब मैं
अपने पसीने से आग बुझा रहा हूँ
तुम बताओ
क्या कर रही हो?

तुम हवा क्यों कर रही हो?
आग भड़काने के लिए?
या मुझे पसीना हो रहा है इसलिए!

तुम्हारा हवा करना
निरर्थक है
तुम आग की तरफ़ हो
या मेरी?

क्या तुम चाहती हो
राख अधिक हो उसके अनुपात में
स्याही बनाई जाए
पत्र बहुत लंबा लिखा जाए
या सारे काग़ज़ जलकर
राख हो जाएँ

जो भी हो
जब दुनिया में आग लगी हो
तो आग की और दुनिया की
सबसे अधिक ईप्सित वस्तु है हवा

क्रियाओं का दुःख

बादलों का घिर आना एक सामान्य दुःख है
जिस दुःख से कोई दुःखी नहीं होता
जब तक उसके छतें टपकती न हों
दीवारें सिल न जाती हों
और रसोई में पड़ा हुआ
नमक पसीज न जाता हो
घर के बाहर गली में पानी लग जाता हो आठ इंच तक

दुःख हमारे पश्चाताप में निहित है
हम जब बेरंग यादों के बरामदों में
सपनों का चश्मा लगाकर घुस जाते हैं
अगर हम बाहर होते तो इंद्रधनुष हमारा होता

दुखों की तुलना में बात कही जाए
किसी वृक्ष की सबसे सुदृढ़ शाख़
आँधी में टूट जाए
जिससे टिकाकर किसी परिंदे ने घर सजाया था
सब अपने लिए दुःखी हैं

मैं रोज सोता हूँ बिना किसी को दु:ख दिए
देना मूल क्रिया है
दु:ख देना असंभव है
दु:ख हमेशा अयाचित रह जाता है
आँसू से भीगे हुए
हर रूमाल या तकिए में
दबी हुई टीस उठती है—
कहीं नहीं जाने के लिए

क्रियाएँ—सकर्मक और अकर्मक
स्थावर और यायावर
एक अंतिम और एकमात्र क्रिया में लीन होने वाली हैं
कभी न कभी बहुत जल्द या कुछ समय के बाद

कर्ता का अंत कोई दुःख की बात नहीं है
क्रियाएँ जीव हैं—
ब्रह्म की श्वास हैं क्रियाएँ
क्रियाओं का अंत होना ब्रह्म के लिए त्रासदी है

मैं हूँ इसलिए

मैं
अस्तित्व में हूँ
इसलिए
बदलता हूँ

मैं ज़िंदा हूँ
इसलिए
किताबों को
इधर-उधर करता हूँ

मैं मरने का
अभ्यास कर रहा हूँ
इसलिए
बहुत सोता हूँ

मैं झूठ बोलता हूँ
क्योंकि
मैं सच से
अनभिज्ञ हूँ

मैं आँखें
खुली रखता हूँ
क्योंकि
मैंने बहुत देखा है

मैं रुक गया हूँ
क्योंकि
रुकना
कोई रास्ता नहीं होता

तीन बेकार कविताएँ

एक

यहाँ से रास्ता फाड़ा गया है
बीचों-बीच
लेकिन वे दोनों हिस्से
अँधेरे में ही घुसते हैं

रास्ते अलग होने पर भी
नहीं बदल पा रहा है
यात्रा का स्वभाव
अँधेरे से दूर जाने के प्रयास में
आँखें बंद हो जा रही हैं

दो

नए फूलों में भूल रहा है मन
पुराने काँटों के दुःख
हर मोड़ पर नज़ारे बदल रहे हैं
हर फूल पर बदल रही हैं आँखें

बदलाव डरावना हो सकता है
नुक़सानदेह भी
लेकिन बहुधा उसी के लिए नहीं
जो बदलता है

तीन

एक ट्रेन पर मैं बैठा हुआ हूँ
यही मेरा गंतव्य नहीं है
कोई प्लेटफ़ॉर्म
कोई स्टेशन भी नहीं

मेरा अगला गंतव्य है
दूसरी ट्रेन पकड़ना
उसके रुकने के बाद
तीसरी ट्रेन पकड़ना

एक ही ट्रेन के प्रति वफ़ादार होना
और कहीं भी न जाना
एक ही बात है

एक ट्रेन के लिए वफादार बने रहना
जो बहुतों के लिए चलती है


प्रज्वल चतुर्वेदी की कविताएँ इस वर्ष अप्रैल में पहली बार ‘सदानीरा’ पर ही प्रकाशित हुई थीं। यह उनकी कविताओं के प्रकाशन का दूसरा अवसर है और हमारे लिए प्रसन्नता का एक और अवसर। यह प्रसन्नता प्रज्वल सरीखी प्रतिभाओं को प्रकाशित करने से संबद्ध है। प्रज्वल इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक कर चुके हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : दूसरे का बोझ ढोने वाला नहीं मरता अचानक

4 Comments

  1. Prakhar chaturvedi अक्टूबर 25, 2021 at 12:35 अपराह्न

    Bhaut hi badhiya aise hi kosis karte rahe
    Aapka bhiwas ujwal hai

    Reply
    1. प्रज्वल चतुर्वेदी मार्च 14, 2022 at 6:13 अपराह्न

      धन्यवाद।

      Reply
  2. Rishabh bhatt फ़रवरी 25, 2022 at 2:42 अपराह्न

    U r genius

    Reply
  3. प्रज्वल चतुर्वेदी मार्च 14, 2022 at 6:13 अपराह्न

    धन्यवाद मित्र।

    Reply

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