कविताएँ ::
उपांशु

उपांशु

और… प्रेम?!

और क्या ही मिला रातों की बेपरवाही में उन्हें,
दैहिक सुख की लालसा में जो, क्षीण होते रहे परस्पर?
स्पर्श?
बाँहों का रोओं पर,
गर्दन का छाती पर,
अंगूठों-नखों का पाँवों के तलवों पर।
प्रेम?!

टूट जाने की हद तक पूछता रहा अब तक साथ न होने के मायने
और सवालों का बोझ डाल रात
निरुत्तरता में सीमित करती रही मेरा अब तक न बिखरना।
देखा दैहिक वो सब जो उन्माद के शिखर पर मुमकिन है।
हाथों में हाथ, दाँतों पर वक्ष, होंठों पर नाम,
तुम्हारा मेरे, मेरा तुम्हारे; प्रेम? केवल एक अधूरी कल्पना है।
क्यों टूट न जाऊँ इस हद तक कि अपने टुकड़े समेटना भी अधूरी कल्पना हो जाए?

मिला ही क्या हमें रातों की बेपरवाही में
इस निश्चितता के अलावा कि सारे सुख़न हमारे
दिल नोच फेंक देने पर मजबूर कर देंगे।
उन सबों की ग़ुलामी में…
उनकी ख़ुशी की ग़ुलामी में…
मेरा-तुम्हारे-तुम्हारा-मेरे साथ न हो पाना…

आवाज़ों और तस्वीरों के सहारे…
किसी तरह… समय गुज़र जाए भी… फिर
उस दिन का क्या जब ये ख़ुदग़र्ज़ रोते हुए
अपना मालिकाना हक़ माँगने आएँगे।
कौन पोंछेगा हमारे बदन पर पड़े इनके आँसुओं के छाले?

जब नाम बदल देने से
ग़ुलामी की कोई भी गाथा प्रेमकथा नहीं हो सकती;
क्यों न राख हो जाने दें ख़ाक-सी इनकी ख़ुशी
तुमसे-मेरे-मुझसे-तुम्हारे इस लगाव के लिए।

अपनी ज़मीन

हरे समंदर की करियाती गहराई आवास जिस किसी दैत्यकायी जंतु का हो आसरे से बढ़कर और क्या हो सकता है?
क्या आसरा नहीं छोटी-छोटी ईंटों के ये दैत्यकायी मकान दीवारों पर अमूमन खोई रहने वाली छिपकलियों का?
कल्पना, आसरों पर अपने अधिकार की, उन्माद जब भरने लगी मानवीय इंद्रियों में शक्ति के प्रदर्शन की—अम्बर तले पसरे पाताली गहराइयों में सभा क्यों नहीं बुलाई गई कंकड़कायियों और पर्वतदैहियों की?

मुझे बताया था तुम्हीं ने कभी कि इलाक़ों में कुत्तों और जंगलों में शेरों के मूतने की आदत शक्ति-प्रदर्शन नहीं इतिहास है अटूट प्रेम का।

भीड़ का उन्माद और शेर का विलाप, खाई भर दूरी सलाख़ों की मजबूरी, निश्चित यही इतिहास है कि घर लौटते ही अपने कुत्ते को पुचकार लेने के बाद सुर बिना बदले तुम करते हो चाय की गुहार और मैं सोचती हूँ गुर्रा कर काट लेने का वक़्त कब बीत गया।

सोचती हूँ, धरती निश्चित एक औरत है कि प्रेम-गाथाओं से हुई पोषित बँटती रही टुकड़ों में और निगल भी न पाई इलाक़ों में आग मूत रहे इन ऐतिहासिक प्रेमियों को।

हक़ हमारे वायदों में रंजिशों की आह सहकर भी जूझता रहा।
आह दर आह लेकिन टुकड़ों में बिखरता भी रहा मेरे तुम्हारे मायनों में मुझ पर तुम्हारा और तुम पर मेरा ये हक़।
वीर्य का हर स्खलन इस क़दर कोख बनाता रहा तुम्हारी इच्छाओं का मुझे कि प्रेम के नाम पर पोषित करती रही तुम्हारे सभी अधिकारों को मेरी हर कोशिका।
मेरा प्रेम, तुम्हारा अधिकार।
मेरे लिए तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा अधिकार।
मेरे लिए मेरा प्रेम, वो भी तुम्हारा ही अधिकार।

यूँ ही किसी दिन दैत्यकायी जंतुओं का हुजूम पाताल के अंधियाले तल तक खींच ले जाएगा अधिकारों की रक्षा कर रहे युद्धपोतों को और मालिकों को हाथ मलने की फ़ुर्सत भी नहीं होगी।

ईंटों से भी छोटी छिपकलियाँ उनके आसरों पर अपना अधिकार जता रहीं होंगी और इंद्रियों के उन्माद में मालिक मूतकर अपना शक्ति-प्रदर्शन कर रहा होगा।

ऐसे किसी दिन तुम्हारे अधिकारों का प्रजनन मुझसे और न हो पाएगा

और तुम्हारी आँखों के सामने ही तलाश लूँगी मैं अपनी ज़मीन।

मेरी अमानत

एक

याद दो वक़्त ही सही आ जाती है किसी दूसरे शहर की गली में आहिस्ता क़दम बढ़ाते हुए
भले ही गलियाँ हर शहर की एक-सी होती हैं, हर शहर में तुम्हारा साथ नहीं होता
तुम्हारा आख़िरी स्पर्श याद आता है सड़क पार करते हुए
मैंने यहीं तुम्हें अलविदा कहा था और तुमने अपनी उँगलियों को मेरी उँगलियों से बीनकर अपने सभी जज़्बात मेरी हथेली की रेखाओं में भर दिए
आशा की कि अपने शहर की सारी हवा तत्काल ठहर जाए मेरी रगों में और धीरे-धीरे नसों में छूटते रहें वो तमाम एहसास जो दूसरे शहर की सर्द हवा को भरते वक़्त मेरे देह के लिए गरमाहट का कवच बनती रहे

दो

छोड़ने से पहले जो आख़िरी स्पर्श मिला तुम सभी से
मेरी हथेलियों, मेरे कंधे, मेरी पीठ और मेरी छाती को
क़ैद करता गया मेरी विह्वलता को मेरे ही शरीर में कहीं

जिसका अंदाज़ा मेरे मन को, देह का स्वामित्व प्राप्त होने के बाद भी,
नहीं है
रातों में भरी गई उबासियों के दौरान मेरे गालों पर छहलती बूँदों का आशय जब तक समझ सका दूसरे शहर की सड़क मेरे क़दमों के नीचे आ गई
रो लेने की आज़ादी भी किसी बंद कमरे के अँधेरे में ही मिल पाती है
कि अपनी अश्रुधारा के लिए क्या दलीलें दूँ
चंद हज़ार रुपयों के लिए अपना तन और मन अपने आत्मसम्मान को ताक पर रख कर
मैंने ख़ुद ही नीलाम कर दिया
सड़क के उस पार से मेरी मुस्कान ने तुमसे विदा ली
और पूरा शहर तुम्हारे साथ उसी छोर पर छूट गया
मेरी आत्मा के साथ
जिसे मैं तुम्हारी हथेली, अपनी माँ की छाती और अपनी बहन के कंधों पर छोड़ आया हूँ
हिफ़ाज़त के लिए
ताकि क़तरा-क़तरा देह नीलाम कर लेने के बाद जब भी मैं लौटूँ
अपने चित्त को तुम सभी के प्रेम से पोषित पाऊँ।

मृत्युंजय

संदर्भ : कुछ मुँह फेर लेते हैं और कुछ अपनी आत्मा पर बोझ बनने देते हैं। क्या नहीं देखा है हमने सशक्त लोगों की तरस का फल! आख़िरी क्षण ये एक कैंसर पीड़ित के ज़रूर हैं, लेकिन इसके पीछे छिपा सत्य केवल इसी घटना से बँधा नहीं है।

Pity me that the heart is slow to learn
What the swift mind beholds at every turn.

— Edna St. Vincent Millay

अमृता

फुसफुसाहटों से ही गला उसका तर होता रहा
और बीड़ी की तलब से मेरा सूखता रहा
निश्चित ही दुरूह रहा होगा सब
कि अटक रहीं नहीं साँसें इसकी
अब तक जहाँ भी साँस ली होगी मैंने
इसे यक़ीन है तेज़ाब ही भरा था उन हवाओं में

बेचैन संतान

मुस्कुराहटों के सिवा कुछ न दिखा मुझे उसकी आँखों में
जीवन की कुछ अवस्थाओं का स्वर्णिम कहा जाना
हर उम्र में एक-से संशय का भागी बना—तीव्र

ये कैसी अवस्था हुई…
सामने तिल-तिल कर घिसी जा रही
और मुस्कान ही दिखे जबकि
क़दम-दर-क़दम दूर जा रही हो

कैसा सुनहरा समय…
अपने ही ख़ून से ऐसा दूर हुआ

लाल धब्बे रह गए
बस जमे हुए चादर पर
गंध तक नहीं बची
केवल आँखों से छलकती मुस्कान
सुबह के दु:स्वप्नों में रिसती रही
वसंत ख़ैरात देता है—गर्मियों में पसीना पोंछने के लिए—
एक स्वर्णरंजित काल।
क्या तेज है इसमें…
जनक है प्रकाश अंधकार का।
वर्तमान है दृष्टिहीनता।

शक्ति

अंश है प्रभात का प्रकाश सर्वश्रेष्ठ और
श्रेष्ठता है उपासना ऐसी शक्ति की

अँजुली भर तीन बार—नमस्ते सूर्याय
आँगन में साष्टांग पश्चात्
तुलसी को लोटे का संपूर्ण जल प्रवाहित—ओम्।
चार निवाले भर का देह, बाक़ी बालकों के पेट में…
पुण्य है किसी भविष्य की उज्ज्वलता में अपना हाथ
कि बूँद-बूँद को तरसे पौधे के भाग्य मूसलाधार आ जाए
और राम नाम का गुण मेरी आत्मा में घर कर जाए

लेकिन धीरे-धीरे ही

किसी प्यासे को घोंट देना ध्येय नहीं है मेरा।
विकास है सिर्फ़…
मेरी छत्रछाया में आए सभी के लिए—जीवन—
श्रेष्ठ और श्रेष्ठतम।

बेचैन संतान

सिर्फ़ आप के लिए ज़रूरी होता है वर्तमान।
आप—भविष्य का रचयिता—ऐसा हरामी है
कि हर पल अपना अतीत दफ़नाए देता है
प्रमाण भर के लिए। रचना (ख़ुद आप ही)
वैधता की पुचकार गालों पर,
चाहती है थपथपी पीठ पर रीतिबद्धता की।
सर्वश्रेष्ठ रचना—मेरा आप।

अमृता

ग़ैरज़रूरी वो प्रकरण हैं जो नसों में उबाल रहे लहू की आँच मद्धिम करे। उफनता दूध पतीले से अक्सर गिर जाता है।

बहुत बार ऐसी बर्बादी मेरे हाथों ही हुई है लेकिन
धीमी आँच से हुई बर्बादी
मिट्टी पर मलाई सड़ने से बेहतर नहीं हो सकती।
विलास भोगने वालों की हर तबाही से हूँ अवगत।
ऐसा ज़रूर है कि दो वक़्त की रोटी में ख़ुशी नहीं
किसी को भी, लेकिन नसीब को कोसना
हँसी-ठहाकों में ही पसंद आया है अब तक।
कई लकीरें उभर आई हैं माथे पर।
रात नींद में खींच गया होगा कोई।
माथे पर शिकन नसीब कोसने वाली
मुझ गदहियों के मज़ाक़ पर अंकुश लगा जाता है।
शायद इसीलिए मेरी बातों से
अब बच्चे-बुच्चियों की आँखें मुस्काती नहीं।
तलब भी बड़ी चीज़ है लेकिन।
पूरी ना होने पर कितनी-कितनी यादों से भर जाती है।
मुझे लग रहा है मानो
एक रात भर में ही ये निशान नहीं खिंचे हैं।

बेचैन संतान

हीन दृष्टि बस अतीत के लिए,
नहीं… स्वप्न में भी…
नहीं… ग्लानि… सिर्फ़ ग्लानि में।

अधूरा शहर, रास्ते अधूरे।
बेमंज़िल शहर, अगणित दूरियाँ।

भागते भागने के लिए लोगों में एक मैं
केवल मैं जिसके पाँव चलते नहीं
दाहिना आगे, बायाँ पीछे

और पीछे थम रहा है दाहिना
आगे बायाँ।

या तो कड़ी धूप है, या साया है बादलों का।
मैं जानता हूँ आँसू थम नहीं रहे
आश्वस्त हूँ बंद कर दिया है मेरी नाक ने साँस लेना
ना आज ना किसी आज कभी
कुछ छिना है मुझसे
कोई नहीं… मरा कोई भी नहीं
ये शोक उस ज़िंदगी के लिए है
जो ख़त्म हुई भी और तत्काल रुलाकर नहीं गई।

अमृता

अकेले मरने भी नहीं देता कोई।
अंत तक जीवित रखना—
मानवता की सबसे बड़ी उपलब्धि।

कितना आसान है!
इतनी डिग्रियाँ लेकर बैठे हैं, लेकिन
पल्ले पड़ती नहीं किसी के।

एक, सिर्फ़ एक।
रात सोने से पहले।
या नींद में ही।

ख़ून उफनने देना कैसी मानवता है?
नसीब तड़प उपजाने के फेर में थी अगर
मेरे नशे को अपना खाद तो न बनाती।
ख़ैर देर-सवेर ही
मानवता के इन संरक्षकों को
सदबुद्धि यदि मिल जाए
शायद
मेरे नसीब को
मुझसे छुटकारा मिल जाएगा।

एक
इनके लिए
सिर्फ़ एक सुई का सवाल है बस।
देर रात नींद में ही सही।

शक्ति

जिजीविषा है अपने केश सुरक्षित रखने की ज़िद।
और देख पाना असंभव है।
आँखों देखी पीड़ा असहनीय है इन आँखों के लिए।

यहाँ गंगा बसती है—सिसकियाँ टूटने से पहले ही बाँध टूट जाते हैं।

जीवन भर का कष्ट और मौत भी कुंभीपाक से बदतर।
आसान नहीं देखना
अपने ही लहू में ऐसा उबाल।
जाहिलों के साथ बियाबाँ में त्याग दिया
बच्चे हो जाने के बाद पति ने ही।

असफल अंकुर की अपाहिज उपज
अब बड़े हो गए
लेकिन पिता के कर्म पुश्तों मिटाए नहीं मिटते।
पोतों की आवाज़ भी
उसी भयावह गूँज में डूबी निकलती है।

अहो दुर्भाग्य!
कि शक्तिहीन रही नारी।
कैसा सत्य रहा जीवन! कैसा कटु सत्य!
कहाँ-कहाँ पी रही है अपनी पीड़ा!
ये कैसी चक्षुस्मिता
कि ख़त्म हो जाए सारा यथार्थबोध।

ऐसा हनन!
तुम्हारी किसी भी पीड़ा को माफ़ करने की शक्ति मुझ में नहीं। सबसे
बड़ी—तुम्हारी संतानों को भी नहीं।

अमृता

मेरी दुधमुँही बेटी!

यूँ निकल जाना अपना दुःख छिपाना नहीं हो सकता।
बरसात में रोने वालों के आँसू सबसे प्रत्यक्ष होते हैं।
नहीं जानती मुझे किस बात पर ग़ौर करना चाहिए।
एक ऐसे संसार की आदत है जिसमें
सभी अपना दर्द ख़ुद ही महसूस करते हैं
मिसाल ये कि कुछ साल पहले

गीदड़ों ने मेरी बकरी को घायल कर दिया था।

घाटा मैंने महसूस किया लेकिन
कोसों दूर रही उसकी पीड़ा से,
कि गीदड़ों ने न मेरी देह थोड़े नोची
न वो मेरा बच्चा उठा ले गए।

अगली कुछ रातों तक
आक्रोश का कारण बना उसका मिमियाना।
क़साई को बेच देने की सोच
ज़हन में हफ़्ते भर रही लेकिन ऐसी ही किसी शाम
गीदड़ों के लिए मैंने उसे आज़ाद कर दिया।

यही मेरा संसार है। बेबूझ लोगों का। क्रूरता का।

चैन से लेटने आई थी यहाँ।
आई थी कि खाने के लिए अपनी रोटियाँ ख़ुद न बेलनी पड़ें। बेचैन मेरी संतानें आश्वस्त रहें।

इलाज मेरा ध्येय शायद ही था।
इस छत्रछाया में रहना मेरा ध्येय नहीं ही था।
अपने ख़ून से लिपटने आई थी लेकिन अब और नहीं
मैं गीदड़ों के पास ही ठीक हूँ।
बेफ़िक्र हूँ,
अपनी निश्चितता के सहारे।

किनारे

दूर,
बहुत दूर
जहाँ किनारे कुछ बसा न हो
न बहती नदी, न हरे पर्वत,
न सरसों के खेत,
और न चाँदी-सी मिट्टी पर हरी-पियरी घास,

न पीरों की क़ब्र हो,
न हो सुलगते श्मशान

दूर,
बहुत दूर चल लेने के बाद भी
न हो
गालों पर जहाँ आँसुओं के निशान।

मैंने दूर
वहाँ,
देह नोच खाने वाले
सगों और संबंधियों से,
बहुत दूर,
नारियल की छाँव में,
समंदर किनारे रेत पर,
आसरा बनाया है;
तुम्हारे लिए।

ऐसी कितनी पंक्तियाँ
गर्मियों की धूप में सूखती रेत निगल गई।
जो सुर सँजोए
सितारों को भेज
अमावस्या की रात ने,
वो गीत मल्हार का गड़गड़ाता आलाप
निगल गया।

मेरे,
तुम्हारे,

बहुत पास
जो नदी बहती है—
इस शहर के नालों से—
उसके किनारे कितने-कितने घरों में,
हथेलियों से झाँपे गए मुँहों में,
कितनी-कितनी चीख़ें बंद हैं।

मैंने गीतों में
हथेलियों के बीच
सुंदर संसार उभरते देखा है।
मैंने जीवन भर
कई सुंदर संसारों को
हथेलियों के बीच
मसले जाते भी देखा है।

पास,
बहुत पास,
तपिश से निकल रहे पसीने पर,
प्याज़ के रस से धुल रहे रक्त पर,
चर्म पर खिंच रहे नून की लीक पर,
अंत:करण की आख़िरी साँसों पर,
जो लिखे जा रहे हैं गीत,
मेरे, और तुम्हारे, जीवन पर। पड़ते हैं
उनके स्वर मेरे कानों में
अट्टहास की तरह

वीभत्स!

दूर, बहुत दूर,
यहाँ से
आसरा
अगर
असल
हो जाए,
तुम्हारे सहारे
मेरा देह वहीं बस जाएगी

लेकिन मेरे गीतों से धूसर हुई रेत
इसी नदी के किनारे धुल रही होगी।


उपांशु हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध अत्यंत उल्लेखनीय कवि-लेखक हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : वह सब जो छूट गयाजो अब देखना भूल चुके हैं

4 Comments

  1. अंचित अक्टूबर 18, 2021 at 2:07 अपराह्न

    बहुत सुंदर कविताएँ हैं। उपांशु को बहुत बधाई ।

    Reply
  2. वसु अक्टूबर 18, 2021 at 4:09 अपराह्न

    बहुत अच्छी कविताएं।
    उपांशु की कवि दृष्टि बहुत बृहद है और हर कविता अपने आयतन में बहुत कुछ समेटे हुए है। विचार की गहनता और अपने कथ्य की बौद्धिक विपुलता से अधिक इन कविताओं में एक विरल भावनात्मक आवेग और करुणा है जो कविताओं की शिल्पगत क्लिष्टत के बावजूद इन्हें बेहद पठनीय बनाती है।

    Reply
  3. डॉ.विश्वेश चौधरी अक्टूबर 18, 2021 at 5:38 अपराह्न

    शब्द को नए संस्कार में ढालता
    जीवन को नए दृष्टिकोण से देखने की
    ललक है इन कविताओं में।
    नए प्रतिमान गढ़ता हुआ
    एक नई लकीर खींचने का आयाम
    शब्दों की जिजीविषा में संबलित है।

    Reply
  4. मधुरिमा अक्टूबर 19, 2021 at 7:51 पूर्वाह्न

    यहाँ गंगा बसती है—सिसकियाँ टूटने से पहले ही बाँध टूट जाते हैं।

    एक एक शब्द अनमोल। भावों और शब्दों की अद्भुत गाथा।बधाई!

    Reply

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