कविताएँ ::
प्रतिभा किरण
एक नहीं
माँ
हम-तुम एक नहीं हैं
एक जैसे भी नहीं
कहती हूँ तुमसे
मत पारो
मेरे अजन्मे बच्चे के लिंग-परीक्षण के नाम पर
अमावस का काजल
न जाने कितनों की गालियों में
हम-तुम एक होते हुए भी
एक नहीं
इसलिए
मत खोसा करो
मेरी कमर में
अपनी उम्मीदों की चाबी का गुच्छा
मेरी साड़ी बहुत ढीली बँधी है
पिता
हम-तुम एक नहीं
इसलिए
मत मापो
मेरे जाँघिये की लंबाई से औरों की सोच
वह पहले से ही छोटी थी
सरापो मत
स्वाँग करो
मुझे स्वीकारने का
तर्पण मत करो
भीतर-भीतर विलगाओ
दृष्टि से दूर
टेर दो।
दृश्यों का पानी
घर के कोने में पड़े-पड़े लात खाता
एक फुटहा लोटा
आज भौचक्क पड़ा है
आज फिर महरी नहीं माँजेगी उसे
आज फिर माँ नहीं करेगी उसे इस्तेमाल
पिता भूल जाएँगे उसे कबाड़ी में देना
पेंदी की वेल्डिंग सहता वह
अब बूढ़ा हो चुका था
बाबा उसके पहले मित्र थे
आते ही कराया था उसने
सुबह का कुल्ला
सर्दियों में नमक-पानी का गरारा
घर भर की ज़िम्मेदारियाँ उठाते हुए
वह पहले पीला पड़ा
फिर लुढ़कने लगा
यहाँ भी उसे आराम न मिला
अब उसने पक्षियों की प्यास बुझाई
बच्चों ने पुकारा—‘चिड़िया का बर्तन’
आज वह फूटा है और
एक-एक करके सबकी पकड़
उसे छोड़ रही है
वह मुँह फाड़े सारे स्पर्शों को
अब समेटता-गिरा रहा है
दृश्यों का पानी।
अलिखित सभ्यताएँ
आज छत पर एक कौआ
छोड़ गया है
बंदर की कटी पूँछ
जिसके रोम-रोम में सन्नाटे भरे हैं
बंदरों ने
कोई समझौता नहीं किया था कौओं से
न ही कहा कि मत खाना हमें
अगर सड़क पार करते हुए
कुचले जाएँ हम
एक कौए ने
आह्वान किया अन्य कौओं का
सबने मिलकर पूरी की
अंतिम क्रिया
किसी ने चुना चौकन्ना कान
किसी ने विक्षिप्त हाथ
सबने मिलकर
सदी का महान कार्य पूरा किया
सुबह आँख मलते हुए ठिठकती हूँ
खिंच जाती हूँ दुर्गंध से
बचाती हूँ नाक
और बचाती हूँ आँख में वह दृश्य
आते-जाते लोगों में
स्थानांतरित करती हूँ
बंदरों-कौओं की
अलिखित सभ्यता
सभ्यता बचाने वाले हम लोगों के बीच से
बचा ले जाते हैं कौए कहीं ज़्यादा
बंदरों के निष्क्रिय मुग्दरक
और कुछ चोट करती कटी पूँछें।
लीलावती
पिता के साथ
अपने नन्हे हाथों से
आसमान के तारों को जोड़ती
मैं नन्ही लीलावती
मेरे लिए
भाग्य के कटोरे में
कोई सूराख़ नहीं तय था
न उसे अपने अंक में समाने वाला
आग में तपता घड़ा
समय का एक निर्मम अंतराल
लील गया एक तारे को
मुझे बस याद रहा
पिता का एक बार पलटकर देखना
और वह मेरा अधूरा नक्षत्र
मेरे दु:ख हरने के लिए
नहीं रचे उन्होंने कोई ग्रंथ
मानी नहीं कोई मनौती
छुआ मेरा माथा
और जला लिया हाथ अपना
मेरे संताप से
देखा उन्होंने जाते हुए
बस आख़िरी बार
तपते घड़े जैसी मेरी देह को
भाग्य के कटोरे जैसा
मेरा हाथ
जिसके सूराख़ में
आँखों से गिरते
टप-टप
मोती…
स्मृति से बह गया उनके
मेरा हाथ पकड़कर
पूरा करवाया एक नक्षत्र।
मिट्टी में सोए लोग
वे जो सो गए थे
मिट्टी की चादर तानकर
अपने हिस्से की ज़मीन पर
उनकी बैलें आकर सूँघती रहीं
और चाटती रहीं मुरझाए फूल
अपनी घंटियाँ बजाकर
जगाती रहीं मिट्टी में सोए लोगों को
वे जो सो गए थे
मिट्टी की चादर तानकर
उन्हें पता था कि एक दिन
उनका शरीर मुट्ठी में समा जाएगा
इसीलिए उन्होंने माँगा बस मुट्ठी भर चावल
वे जिन्होंने आसमान की ओर देखने से पहले
छुड़ाए थे सिर्फ़ आँखों के जाले
उनके घरों की मकड़ियों ने
जिया अपना नैसर्गिक जीवन
वे जो सो गए थे
मिट्टी की चादर तानकर
उनके बच्चों ने अपने खिलौने ख़ुद बनाए
अपनी हँसी को मिट्टी में उभारकर बेचते रहे
और सिक्कों की खन-खन फाँकते रहे
ओ मिट्टी में सोए लोगो!
तुमने माँगा था सिर्फ़ एक मुट्ठी चावल
तुम्हारे इतिहास में मुट्ठी भर मिट्टी के लिए
माँगती हूँ दो पापी खुले हाथों से क्षमा।
गुरुत्व में लानत
छत पर टहलते हुए मन में आया कि
आसमान की ओर एक पत्थर दे मारूँ
देखूँ तो ज़रा बदले में वह क्या फेंकता है
क्या पता वह फेंक दे उधर से एक गुम्मा—
अरे वही, जिसके ग़ायब हो जाने पर
दादी चिल्लाई थी
फिर सोचा रहने देती हूँ
नहीं, घेर लेंगे तीन-चार लोग शौक़िया
और पढ़ाने लगेंगे मुझे गुरुत्व का पाठ
मेरे कंधे पर अपने हाथ लादकर
ये वही लोग होंगे जिन्होंने थूका होगा
आसमान की ओर
तब वापस मुँह पर गिरी होगी
लानतों की गीली पोटली
और लौटे होंगे अपने घरों की ओर
चिल्लाते हुए घरवालियों पर—
‘छत से कपड़े उठा लो
बूँदा-बाँदी हो रही’
कौन कितना अधूरा
अनजान जगहों पर
टूटी चप्पल अकेली छोड़
लौटकर आना काट खाते घरों में
लौटने पर पूरा कहाँ लौट पाते हैं
जब रास्ते भर गिराते चलते हैं
खटारी हो चली आदतें
आधी बटी बाती भी
तेल में नहीं भीगती
उड़ जाती है हवा में
आधा सुना हुआ ही
व्याकुलता बढ़ाता है
पूरे का भेद भयानक नहीं
उजाले में जीवन और
अँधेरे में टटोलना मृत्यु—
किसने कहा, दिनचर्या पूरी नहीं
दस तक की गिनती
पढ़ता हुआ बच्चा भी
आगे पढ़ना बेतुका मानता है
अपनी संभाव्य सीमाओं में
अपना पूरा होना
हम ही तय करते हैं
अधूरा तो एक पूरे का
उपसमुच्चय है
जोकि पूरा भी हो सकता है।
बेघर
इतनी-सी तो धरती है मेरी
इतने में ही सुनी
झींगुरों की झीं-झीं
लोगों के करवासन
इतने में सीखा रंग पहचानना
कपड़ों के और लोगों के—
प्रकृति तो बाद में आती है
बेघर होने के लिए
घर से निकलना नहीं पड़ता
मन को लगना होता है
पहले दीवारों की पपड़ियाँ छूटती हैं
फिर परिवारों के नक़ाब उतरते हैं
चूहों की लेड़ियाँ मिलती हैं
और रिश्तों से मैल छूटती है
बेघर होने के लिए
घर से निकलना नहीं पड़ता
मन को लगना होता है
टीवी में बहुएँ रोती हैं
घरों में बेटियाँ
मर्द निरादर के मौक़े तलाशते हैं
घरों में और टीवी में भी
बेघर होने के बाद भी
देखने को मिलती है आवाजाही
क़रीबियों की आड़ में छिपे दुराचारी की
पति से मार खाकर लौटी बुआ बेचारी की
तीज-त्यौहार मनते हैं
सीखे हुए रंगों पर कोहरे की धुंध से
नए रंग चढ़ते हैं
आप बेघर होते हैं
सिर पर आसमान होता है
चारों ओर दीवारें होती हैं
बस आपके पाँवों तले से
छोटी-सी धरती खींच ली जाती है।
प्रतिभा किरण (जन्म : 1995) हिंदी की नई पीढ़ी की कवयित्री हैं। उनकी कविताएँ प्रतिष्ठित प्रकाशन-स्थलों पर प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताओं के प्रकाशन का यह पहला अवसर है। उनसे yournthdiary@gmail.com पर बात की जा सकती है।