कविताएँ ::
ऐश्वर्य राज

ऐश्वर्य राज

मई की कविताएँ

एक

प्रेम में स्वयं को स्थगित करती सखी
नहीं है इस भ्रम में कि यह कहानी
इनफ़िनिटी के पार तक जाती है कहीं
हैली ज़ कॉमेट की धुन पर
रोते, रूठते, मनाते, मुस्कुराते, थिरकते,
किसी रिक्शे पर बैठकर…

प्रेम में स्वयं को स्थगित करती सखी को
समझा रहा है उसका ‘समझदार’ पुरुष प्रेमी :
‘तुम्हें मेरे बिना रहना है,
तुम्हें यह सीखना चाहिए…’

सखी केवल उसकी आँखों में देखती है
‘हाँ’ में सिर हिलाती है
प्रेमी को लगता है—उसका समझाना सफ़ल रहा,
तत्काल…
प्रेमी उसके सिर पर हाथ फेरता है

कई सारे पुरुषों ने
ऐसे ही उसे बताई हैं—
‘समझदार’ बातें उसी बारे में
(उसे हँसी आती है)

वे सभी जानते-बूझते ‘गिवर’ होने वाली स्त्री को
बेवक़ूफ़ समझते हैं

प्रेमियों को जब मिला
उसके हिस्से का समय
उन्हें लगा वह ‘ख़ाली’ है
जैसे ख़ाली समझी जाती हैं
घर में खटते-खटते खियाने वाली स्त्रियाँ
उन्हें लगा उसे उनकी ‘आदत’ है
जैसे माना जाता है कि आदतन ही तो
आख़िर में खाती हैं स्त्रियाँ

लेकिन इस बार प्रेमियों ने दरियादिली दिखाई
बताया कि कैसे स्त्री का ‘गिवर’ होना
प्रेमी के अंदर के पुरुष को मज़बूत करता है
लेकिन स्त्री के साथ स्त्री हो जाने के लिए
उन्होंने कुछ नहीं किया

कई पूर्व प्रेम कहानियों में/से थककर
या/और अपनी देह-स्वास्थ्य का ध्यान रखना
महीनों भूलने/टालने के बाद
जीवन के किसी पड़ाव पर
अगर बन जाती हैं स्त्रियाँ ‘गिवर’
उन्हें बख़्श दें नसीहतों से

सारे हिसाब-किताब जानते हुए उसने
इस महीने तंगी की हालत में भी
अपने लिए एक पाउडर का डिब्बा ख़रीदना चुना है
अगर आज भूकंप आ जाए
जगज़ाहिर है,
वह पाउडर का डिब्बा लेकर ही भागेगी।

दो

इस महीने मैंने कुछ ख़ास नहीं किया
नहीं उठी सुबह वक़्त पर
क्योंकि रात देर तक जगी
देर रात तक जगी
लेकिन नहीं पढ़ी कोई किताब
न देख पाई कोई फ़िल्म या वेब सीरीज़
पूरी-पूरी दुपहर सोई
सोई और देखा सपने में कई पुराने लोगों को
जिनसे अब कोई वास्ता नहीं
जिनसे आख़िरी बार बात इतने पहले हुई है
कि याद नहीं उनका नंबर है भी या नहीं मेरे पास
और इसकी पड़ताल करूँ
नहीं आया कभी ख़याल…

इन सारे सपनों का इस तरह
मेरे माथे पर आ चिपकने का कारण
मुझे नहीं पता
सभी सपनों में एक चेहरा कॉमन दिखता रहा…

एक महीने मैंने टाला
होना उन बातों पर परेशान
जिन पर हमेशा ख़र्च किया है
दिमाग़ और मन
दोनों के हिस्से की ऊर्जा
क्योंकि वे बातें मेरी जड़ों से लेकर
मेरी छत से दिखते मेरे संभव आकाश तक मौजूद हैं
मैं उनसे बनी हूँ
मैं उन तक लौट-लौटकर जाती हूँ
(जैसे आज जा रही हूँ)
वे बातें केवल बातें नहीं हैं
वे हैं जीते-जागते लोग, ज़िंदा लोग
जिन्हें दुनिया का एक बड़ा हिस्सा जीवित मानने से
जीवित नागरिकों को मिलने वाले अवसर और सम्मान देने से
अपनी सुविधानुसार चूकता रहता है

दिसंबर के महीने उकड़ूँ बैठकर
कढ़ाई में तेल गरम करते हुए
एक महिला ने मुझे पेट की पथरी के बारे में बताया था
जिसे गाँव में ‘एसटी महिला सीट’ पर मुखिया ‘बनाया’ गया था
बेटी की शादी अच्छे घर में होगी
बेटा चपरासी लग जाएगा…
इसका वादा दिलाया गया था

दिसंबर के महीने में एक बीस साल के लड़के ने
मुझे मुसहर टोली घुमाया था
लड़के को दसवीं पास करना था
फिर उसी साल उसे पुट्ठी का काम करने पंजाब जाना पड़ा
मैंने सोचा था : उसके लिए किताबें भेजूँगी

कई वादे थे
कई जगहें जाना था
कई जगह जाने के टिकट के पैसे नहीं हैं
सोचकर मन छोटा कर रह जाना था

मई के महीने में इन सारी घटनाओं पर
अगली क़िस्त में लगानी थी ऊर्जा

लेकिन इस महीने मैंने अपने अंदर
एक ख़ुदग़र्ज़ व्यक्ति को देखा
जो किसी ज़िद में लगा रहा
किसी दूसरे (एक) व्यक्ति के लिए
अपने अंदर बहुत जगह बनाने की ज़िद
इस क्रम में मैं स्वयं के अंदर से थोड़ा-थोड़ा
रोज़ खिसकने लगी
मेरे अंदर जो मेरा अपना था
उसके लिए मौजूद रहना
जानबूझकर टाल दिया
इतना लेवरेज एक महीने मैंने स्वयं को दिया

एक महीने मैंने सारी सहजता, भावनात्मक खींचातानी के
समय भी उपलब्ध रहने की सारी कोशिशें,
अमलतास के सारे पेड़,
पोस्टकार्ड पर लिखकर कामू के दर्शन
हर सपने में दिखने वाले उस एक व्यक्ति को देना चाहा

मुझसे पूछा जाना चाहिए—
मैं और कितनी वहमी हो सकती हूँ?

किसी के बारे में अवचेतन मन के हमेशा सोचने से
आते हैं ऐसे सपने—
मुझे एक सखी ने बताया…

इन सपनों को प्रेम का स्वयं पर होने वाला
कोई जादुई प्रभाव मान लूँ
इतनी नवसिखुआ भी नहीं थी
दर्शन-विज्ञान की किताबें पढ़ी थीं
इससे पहले कई बार प्रेम में रही थी
फिर भी, एक बार, एक महीने,
मैंने स्वयं के लिए कुछ नहीं किया

इस महीने दिल्ली की गर्म हवा की तरह
मन में साँय-साँय कर
कुछ बहता रहा, कुछ धिपता रहा

इस महीने मैं फिर से ख़ूब सोई
इस महीने मैं अपनी तरफ़ से अपने बारे में
सोचने की हालत में नहीं रही

इस महीने मैंने देखा स्वयं द्वारा चुना गया
स्वयं के लिए भविष्य की मेज़ पर रखा हुआ—
अकेलापन

पूर्व-प्रेमियों से मिलते, बिछड़ते, उनसे मिले, उन्हें देने के लिए रखे गए पोस्टर,
पेंटिंग, किताब, सस्ता कट पीस कपड़ा, सड़क से उठाई गयी लकड़ी/टहनी…
इन सारी बेकाम चीज़ों से भरा एक कमरा
जहाँ अब वे नहीं आते/आ सकते…

आख़िरकार मैं भी कितने महीने
इस महीने की तरह बिता सकती हूँ/थी…

मई की कविताएँ दिसंबर में देखकर

पूर्व-प्रेम पर लिखी कविता

एक

नहीं बचा सकती किसी को
स्मृतियों के आवेग से
यादें दख़ल देंगी
किसी भी समय
साधारण-असाधारण/महत्त्वपूर्ण/ग़ैरज़रूरी दिन की परवाह किए बग़ैर…

तुम्हारा अतीत तुम्हारी हड्डियाँ हैं।

दो

एक व्यक्ति ने स्वयं निकाल दीं
अपने शरीर की सभी हड्डियाँ
यह कहानी झूठी है
आख़िरी हड्डी निकालने के लिए
बची होनी चाहिए
शरीर में कुछ हड्डियाँ!


ऐश्वर्य राज की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह दूसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : बहुत ख़राब में से कुछ कामचलाऊ

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