कविताएं ::
प्रीति सिंह परिहार

preeti singh parihar
प्रीति सिंह परिहार

लौटने की कोई जगह नहीं

एक

अपनी जगह
अपना शहर
अपना घर
घर में अपना कमरा,
जिसे छोड़कर निकले थे कभी—
लौटने की तसल्ली ले-देकर,
सब डायरी के पन्नों में लिखकर भुला दिए गए शब्द हो गए हैं,
घर की ओर जानेवाले रास्ते में उग आए हैं सरकंडे,
एक खब्ती नेता ने बदल दी है शहर के नाम की तख्ती,
वापसी की रेल का पुल पिछली बाढ़ के बाद से टूटा पड़ा है,
परिचितों के घर, जहां ट्रेन से उतर कर
आधी रात को भी चले जाने का अघोषित अधिकार था,
उनके पते बदल गए हैं और चेहरे भी,
दोस्त, जिनके यहां बेतकल्लुफी से रात काटी जा सकती थी,
भूले-बिसरे गीतों की तरह बस दूर से सुनाई देते हैं कभी-कभार,
मां-बाबूजी ने पहले तो तुम्हारे बिना जीना सीखा,
फिर धीरे-धीरे तुम्हारे होने से खुद को मुक्त कर लिया होगा,
भाई-बहन तुम्हारे होने के भार को छोड़
बढ़ गए हैं अपनी-अपनी जिंदगी में आगे,
तुम जब अब अरसे बाद लौटना चाहते हो,
तब
लौटने की कोई जगह नहीं…

दो

किसी बीते हुए दिन में हो लौटना तो
मैं लौटूं माघ में हो रही बारिश के दिनों में
दुबका हो सूरज भखार में
और लगी हो कई दिनों से झड़ी
मां ने सुलगा दी हो गोरसी में आग,
ताकि सेंक सकें हम ठिठुरी हुई हथेलियां
उभर आए उनमें फिर भाग की रेखा
मां इन रेखाओं को पढ़ तो नहीं पाती
पर चाहती है इनमें लिखा हो सुख
मैं लौटूं उस एक दिन में
जब ठंड और धुंध से भरे उदास दिन में स्वाद घोलने को
मां ने बनाए हों गरम-गरम आलू बंडे
सब गोरसी के अगल-बगल बैठ कर खाएं
और करें घर-गांव, आज-कल, अलाने-फलाने की
कुबेर के खजाने-सी मन में भरी बातें
गोरसी के दहकते अंगारों का ताप
एक उजली-सी उम्मीद की तरह
झांके हमारे भीतर से
बूंदों की झड़ी को सुनते
साथ होने के सुख को बरतते
हम हों, मां हो, घर हो,
और गोरसी में दहकते अंगारे हों

तीन

लौटने की कोई जगह नहीं
अपनी कोई जगह
जहां मुस्कुराते हुए लौटा जा सके
खुशी की उम्मीद के साथ
किसी के इंतजार का भरोसा लेकर
जहां चूल्हे से उठ रहे धुएं का रास्ता
आसमान के अनंत में जाता हो
और एक सुर में खदबदा रहा हो
आपके पेट में कूद रहे चूहों की बाट जोहता
दाल-भात का अदहन
आपकी आहट में
बार-बार खटराग के साथ
खोलता उढ़काता हो कोई दरवाजा
दरवाजा जिस पर आपकी उंगलियों की थाप हो
बिस्तर पर सिकुड़ी पड़ी रजाई की गरमाहट हो
आपके लिए
आपकी गंध में डूबे कपड़े
सूख रहे हों अलगनी में
आप लौट सकें
जहां अपने होने के भरोसे के साथ
तब तक
जब तक कि इस दुनिया में हैं आप
पर लौटने की जगहें
मिटाई जा रही हैं लगातार

घर

एक

सुबह तुम जागती हो
और देखती हो कि तुम घर पर हो
घर जिसमें थोड़ी-सी धूप रहती है
और छाता भर छांव भी
कुर्सी पर बैठे पिता अखबार पढ़ रहे हैं
मां मटर छील रही है
दीदी मटर की पूड़ियां बनाने की तैयारी में है
ये तैयारी ससुराल में नाम कमाने की भी है,
भाई पढ़ने की अदाकरी करता हुआ
गुलाब के पास फुदक रही
चिरई को देख कर खुश हो रहा है
तुम बोरे पर बैठकर घड़ी के पेंडुलम-सी हिलती हुई
सोलह का पहाड़ा याद कर रही हो
तभी वक्त तुम्हारे कंधे पर हाथ रखकर
तुम्हें हिलने से रोक देता है
अब घर है और नहीं भी,
घर के दृश्य से मिटा दी गई
तुम हो और नहीं भी
जो है, वह सिर्फ धुंध है
लेकिन कितनी, तुम्हारे किराए के कमरे से
ठीक-ठीक अंदाजा लगाना मुश्किल है
इमारत की बगल में बिजली के उलझे हुए तार हैं,
दीवारों पर कबूतर की बीट की छींट है
घड़ी में सुबह का दस बज कर बीत चुका है
गली में पुराने कपड़े के बदले बर्तन देने वाला टेर लगा रहा है
अब जब दफ्तर जाने का वक्त,
वक्त से आगे बढ़ा जा रहा है,
तब यह सोचना फिजूल है
कि घर पर रह गए तुम्हारे कपड़ों के बदले
क्या मां ने बर्तन ले लिए होंगे!
फिर भी यह ख्याल खराश की तरह आ ही जाता है
अचानक तुम्हारे पैर घर की दहलीज से नहीं
दफ्तर की सीढ़ी से टकराते हैं
घर कहीं नहीं है
कम से कम कुछ लोगों के लिए तो कहीं भी नहीं.

दो

बचपन में सुनते थे
महानगर में ऊंची-ऊंची इमारतें होती हैं
इमारतों के सिर पर इमारतें
बड़ी और खूबसूरत इमारतें
इतनी सारी के गांव के गांव समा जाएं
महानगर की बात कुछ इस तरह आगे बढ़ती कि
फलां फलां आदमी महानगर चला गया है
कमाने-खाने
वहां काम खूब है और पैसा भी
हमारे गांव से महानगर जानेवाला पहला
आदमी महंगू जब चैत की फसल काटने लौटा तो
सबने कहा कि अब तो तुम्हारे पास महानगर में घर होगा
तुम तो अपने बच्चों और मेहरारू को भी वहां ले जाओगे,
पर महंगू जाने क्यों उदास था,
हमने उसकी उदासी को अनदेखा कर
महानगर के बारे में पाल रखे अपने बेसब्र सपने
और उसके घर के बारे में अपने कौतूहल से भरे सवाल बिखेर दिए
महंगू भाई वहां तो बड़ी-बड़ी इमारते हैं
तुम तो उसी में से किसी में रहते होगे
तुम्हारा घर कैसा है
और उसकी दीवारें किस रंग की हैं
तुमने क्या किसी दीवार पर
सुआ पाखी का चित्र गढ़ा है?
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद महंगू बोला
वहां इमारतें तो हैं
पर महानगर सबको घर नहीं देता
वहां सीलन से सिहरती आत्मा की
ठिठुरन और सिकुड़न
हर रोज बढ़ती जाती है
कमाने-खाने गए लोगों का
घर कहीं पीछे छूट जाता है
फुटपाथ पर, फ्लाइओवरों के नीचे बसेरे होते हैं,
टीन के शेड वाले रैन बसेरे होते हैं
झुग्गी होती है, खोली होती है
बहुत हुआ तो किराए का कमरा हो जाता है
बदनसीब बेघर हो जाते हैं
घर कहीं पीछे छूट जाता है

***

प्रीति सिंह परिहार मूलतः मध्य प्रदेश के जबलपुर से हैं. वह लंबे वक्त से दिल्ली और उसके आस-पास के नगरों में पत्रकारिता कर रही हैं. वह कभी-कभार ही कुछ लिखती हैं और उसे प्रकाशित करने से भरसक बचती हैं. इस दौर में इस गति और संकोच ने उन्हें मानवीय और रचनाशील बनाए रखा है, यहां प्रस्तुत कविताएं पढ़कर यह महसूस किया जा सकता है. उनसे preetisinghparihar@gmail.com पर बात की जा सकती है. कवयित्री की तस्वीर प्रीति मान के सौजन्य से.

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