कविताएँ ::
प्रिया वर्मा
पूरी तरह प्रेम नहीं
कहीं एकटक अकेले में
गुडुप की आवाज़ सुनते हुए याद कर रही हूँ
अर्धरात्रि की प्रतीक्षा में वह संशय
जब तुम में डूबते हुए
मैं अपना अर्थ टटोलती हूँ
जानती हूँ कि अनुभूति की भाषा में व्याकरण है ही नहीं
यहाँ प्रेम में कोई नियम नहीं
केवल उद्दंड अपवादों से भरी एक सूची है
जिसमें नामकरण के लिए कोई समय नहीं है
न ही एक भी प्रथा है
जहाँ तय कर सकूँ अपना और तुम्हारा न्याय
इस अनुभव को मैं पूरी तरह प्रेम भी नहीं कह सकती
न ही कर सकती हूँ तुम्हारी दृष्टि को मेरे प्रति सावधान
बस तुम्हें सोचते हुए मैं
नींद से भरे तालाब में उतर सकती हूँ
प्रार्थना करते हुए कि
मेरे दिन की प्रतीक्षा का कोई पाप
तुम्हारी किसी रात को न लगे
और इस प्रार्थना के साथ यह भी
कि मैं इतनी साधारण बनी रहूँ
जितना भीड़ का कोई भी आम चेहरा
जो याद न रह जाता हो
बना रहे मेरे भीतर अवसाद
बनी रहे कुछ शिकायतें
जिनके साथ होने से पनपता रहे दुःख
बाहर के छिछले अंधकार को मैं देती रहूँ धन्यवाद
कि भीतर के घटाटोप से कम हो तुम—
इतने कम कि बाहर कहीं तो तुम्हें छू भी सकती हूँ
पर अपने भीतर इन दो आँखों से
मैं देख भी नहीं सकती।
निष्ठुरता
वह निष्ठुरता थी—वापसी में पिघलती हुई
जो हमसे कभी निबाही न गई
बस एक मोह था जो आवरण बनता
लपेट लाता दूसरी नस्ल की निर्मोही आँखें
जब हम पर अँधेरा उतरता
हमें ढक लेता था
तब उतरते थे हम
एक दूसरे में
इतना गहन तल था
जहाँ रंग तो दूर परछाई तक का
आभास नहीं मिलता था
मिलते थे बस हम दो
और मिलते भी कहाँ थे
क्योंकि हम कभी खोए ही नहीं
हर बार विवर्ण धब्बे हम पर छूटते
हर बार देह उतरती
हर बार एक क़तरा आत्मा
जाने कहाँ छूट जाती
हम मर चुके थे
बस हमारी देहों को पता नहीं थी—
हमारी मृत्यु
बेसलीक़ा प्यार था
जो हमने अनजाने में चुना था
आजन्म—मृत्युदंड की तरह…
मीठी कविता
मीठी कविता लिखने के लिए रखना होता होगा कितनी बार अँधेरे में पाँव
कितनी बार भूलना पड़ता होगा अपने बिना तले के जूते को
कितनी बार बचपन में हुए किसी शोषण की अनकही बड़बड़ को चुप कराना पड़ता होगा
भूलना पड़ता होगा दुनिया की ग़रीब झोपड़पट्टियों को
कम होती जाती तनख़्वाहों को
और बढ़ते हुए कुनबे में सिमटती हुई ज़मीन के दर्द को
एक मीठी कविता कितने कड़वेपन को चूस जाने के बाद भी कड़वाहट को छुपा नहीं पाती
इसीलिए लिख पाई हूँ यह
प्रकट कर पाई हूँ इतनी जिज्ञासाएँ
प्रश्न जिनके उत्तर पहले से मौज़ूद होते हैं,
क़ायदे से उनकी रूपरेखा नहीं बनानी चाहिए
पर मैं कर रही हूँ ऐसा
पूछ रही हूँ असंख्य प्रश्न एक मीठी कविता पढ़ने के बाद
कि इसे लिखते हुए तुमने आँखें तो बंद रखी हुईं थी न कवि!
फिर कैसे लिपिबद्ध कर पाए तुम इतनी मिठास?
जो सारे जीवन की संतृप्ति के भी बाहर है
तुम अपने पाँव दिखाओ
मुझे देखना है उस धरातल की धूल मिट्टी का रंग कैसा होता है
जहाँ कोई आदमी दर्द में नहीं रहता।
खुली हुई
कितना खुल सकते हो मेरे साथ
उसके पहले मैं बता दूँ कि मैं कितना खुल सकती हूँ
मैं चमड़ी के पीछे के अस्थि-मज्जा-मांस के बीच बहते रक्त के चाप तक को उतार सकती हूँ
चिकित्सा में कोई नाम रखें इसका
पर पारा मेरी ज़बान पर रखकर मैं अल्फ़ाज़ उतार सकती हूँ
मेरा नाम जो तुमने अभी लिया है—
इसकी केंचुल के बाहर निकल सकती हूँ
जैसे लखनऊ की मेट्रो चलती है ख़ाली-ख़ाली एकदम
ऐसे मैं अपनी उम्मीद उतार सकती हूँ
अँधेरे में उतर सकती हूँ
घटे-बढ़े चाहे जो हो मैं ख़ुद में पानी
और पानी में ख़ुद को डुबा सकती हूँ
मेरी आत्मा तक पहुँचने की एक सुरंग है
मेरे वक्ष पर निवासी हैं मेरे सौंदर्य प्रतिमान
मेरी कौड़ी जैसी आँखें
मेरी घ्राणशक्ति और स्वाद
सब उतारकर तुमसे मिल सकती हूँ
तुम्हें भी तुममें उतारना जानती हूँ मगर
मैं कहना चाहती हूँ कि भू-गर्भ की हुआ करे पर
मेरे उतरने की कोई हद नहीं है
यह जो ख़ालीपन देखते हो आस-पास
ये सब मेरा ही उतारा हुआ सामान है
शायद तुमने मुझसे मिलने के पहले अपनी दृष्टि कहीं उतार कर रख दी
इससे ही मुझे पहचान नहीं पाए तुम
मैं खुलकर कली से पूर्ण विकसित फूल हो सकती हूँ
इस एक शर्त पर
कि मुझे विसर्जित न किया जाए
मैं खंडित शिलाओं में बंद मौन के टूटने की दिशा में
खुली हुई खिड़की हो सकती हूँ
हाँ तुम्हीं नहीं चल सकोगे फिर
मेरे खुलेपन के साथ
खुले हुए।
मैं चाहूँगी
अंततः मैं प्रयासरत हूँ
तुम्हारे सुखों के सारंग के लिए
मैं ख़ुद-ब-ख़ुद उतर रही हूँ तुम्हारे घोषित गर्त में
मैं कर रही हूँ उल्लंघन कानूनी दाँव-पेंचों के पार के कँटीले बाड़े का
मैं देश से बाहर निकल अखिल विश्व की ओर बढ़ रही हूँ
अनुदैर्ध्य तरंग हूँ
दिखूँगी नहीं
पर दिखाई दे जाऊँगी
स्थान छोड़ने के बाद
मैं नहीं तराशूँगी अपनी तरह का बुत जिसको सरग़ोशियों की दरकार हो
मैं नक़्क़ाशीदार इमारत भी नहीं बनवाऊँगी
कि मेरा नाम रह जाए मेरे पीछे
मेरी पीठ के पीछे एक अत्यल्पता आएगी
मुझे वही चूमेगी
और समझ जाएगी पीढ़ियों के अंतर से उठती कराहों की आवाज़
वे आहें जो बक़ौल ग़ालिब उम्र चाहती रहीं
मेरी पीठ पर उगेंगीं मीठी बेल बनकर
मेरी पीठ उनके लिए दीवाल बन जाएगी
मैं चाहूँगी कि मेरे तुम्हारे संसर्ग की बात तक भूल जाओ तुम।
प्रिया वर्मा हिंदी की सुपरिचित कवयित्री हैं। उनसे itspriyaverma@gmail.com पर बात की जा सकती है।
स्त्रियों ने अपनी भाषा ईजाद की है इन कविताओं को पढ़कर यह जाना जा सकता है । खुली हुई कविता अपने तेवर में स्त्री की स्वतंत्र चेतना की प्रमाणिकता की तरह उद्भूत होती है और चुनौती की तरह तन जाती है । बहुत अच्छी कविताएं । इन्हें बार बार पढा जाएगा।
अच्छी और सुथरे अर्थों की कविताएं।
भाषा के एक नए भूगोल में ले जाती
कविताएं।
बधाई ।