कविताएँ ::
ज़ुबैर सैफ़ी

ज़ुबैर सैफ़ी

बकवास

मैं अपने मनुष्य होने के सारे दावों को ख़ारिज करता हूँ, झुठलाता हूँ—जैसे चमार के लौंडों के साथ एक बर्तन में खाना खाते हुए देखे जाने की शर्मिंदगी से मेरे ख़ुद के घर में मुझे ख़ारिज कर दिया गया, जैसे सरकार ने मेरे नवीन मृत्यु-प्रमाणपत्र की सभी याचिकाएँ ख़ारिज कर दीं; वह भी ऐसे समय में जब हर रोज़ कहीं न कहीं कोई ज़ुबैर, कोई सरमद, कोई सिफ़र अपने नाम और पहचान का बोझ उठाते हुए मर रहा था।

मैंने अपने रोज़नामचे में चुनाव के दिन को महत्त्वपूर्ण दिन के तौर पर अंकित किया, मगर ऐन चुनाव के दिन नोटा दबा देने की मजबूरी ने उस दर्ज किए गए को कालिख में बदल दिया; जैसे संसार को बदलने की तमाम क्रियाएँ-प्रक्रियाएँ परिवर्तित हो गईं, देश में परिवर्तन के अनवरत क्रम में सारे रंगों की जगह एक रंग ने ले ली—भगवा रोटियाँ, भगवा सिगरेट, भगवा आटा और भगवा साबुन बनाए जाने की फ़ैक्ट्रियों की बुनियाद इस परिवर्तन ने रंग-ग्रहण के राजतिलक की घटना के सफल समापन के बाद की।

मैं अपने मनुष्य होने के सारे दावों और मनुष्यता को ख़ारिज करने के क्रम में भूल गया कि मुझे मानवाधिकारों को भी ख़ारिज करना था। बलात्कार और मॉब लिंचिग के अतिरिक्त होने वाली हिंसाएँ भी हिंसा के दायरे में रखने का कार्य करने के क्रम में एमनेस्टी और सारी मानवाधिकार संस्थाओं के पेज मैंने अपने फ़ेसबुक पर ब्लॉक कर लिए और दिखाया कि मैंने मानवाधिकार बचाने का स्वाँग दिखाया।

मैं ख़ारिज करने की सभी सीमाओं में, सारी बनी-बनाई लीकों के पुनर्वास की गौरवमयी गाथा को सरकारी रिकॉर्डों से निकालकर आम जनता के समक्ष लाने और समाज सेवक की भूमिकाओं के परे सोचता था, जिससे मैं कुछ न बच सका। ख़ारिज होने की प्रत्येक प्रक्रिया के बाद, सारे उत्खनन-खनन के बाद मैं कुछ नहीं बचा। मुझे मेरे एक दोस्त ने बताया, जो गणित में मेरे अल्पसंख्यक संस्था वाले स्कूल में सबसे ज़्यादा अंक प्राप्त करता था—कि कुछ न बचने पर शून्य प्राप्त होता है, जिसे कोई ख़ारिज करने के बाद भी ख़ारिज नहीं कर सकता!

देश और शासन शून्य के ख़ारिज होने की सभी विभिन्नताओं को जीत चुके हैं।

आप इंतिज़ार कीजिए कि टीवी चैनल पर होने वाली गालगलाफ़ाड़ू डिबेट में आपका पसंदीदा वक्ता कब बैठेगा, कब युद्ध की सामग्री और उसकी आँच आपके घरों तक चली आएगी।

कवि महोदय! आपके शब्द और आशाएँ ख़ारिज हो चुकी हैं।

अब हर पाँच बरस बाद वोट दीजिए और ख़ामोश अपने घर में बैठकर ऐसी एक बकवास कविता सुनिए जिसे ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए!

अस्मिता

मेरे पैदा होने के समय से पहले से ही
मेरी पैंट उतारी जाती रही है
मेरी खाल के लिए

मैं पैदा हुआ तो
मेरी पैंट हज्जाम ने उतारी
खाल के बदले मुझे मज़हब अता कर दिया गया

मैं जब 1947 से बचकर 1964 की शरण में पहुँचा
तो वो बंगाल था—
टैगोर का शांतिनिकेतन,
नज़रूल की कविताएँ,
दुर्गा पूजा के मंडप थे,
कोलकाता था…
मेरी पैंट को उन्होंने फिर पकड़ लिया
मेरी पैंट उतारकर
उन्होनें मेरी ग़ायब खाल को देखा
और मेरी आँखों में सलाख़ें दे दीं

अब मैं भी अपनी खाल जो पहले से नहीं थी,
नहीं देख सकता था

मेरी फटी पैंट मेरी पहचान के साथ साल्टलेक में फेंक दी गई

1969 और 1970—
मैं अपनी जान बचाकर
गुजरात और भिवंडी दोनों जगह
अपनी पैंट को छिपाते फिरता रहा
मगर फिर भी न जाने कैसे उन्हें ख़बर मिल गई
मुझे फिर अपनी ग़ायब खाल अपनी जान से प्यारी लगी
मुझे भागना पड़ा

मैं जब देश के सबसे बड़े सूबे में पहुँचा तो
मैंने पीतल के बर्तन बनाना सीखने की कोशिश की
मगर मेरी खाल जो मेरी पैंट के नीचे थी
उससे एक डोरी बँधी थी
जो 1980 के मुरादाबाद तक भी उन्हें ले पहुँची
उन्होंने बर्तन की ठक-ठक को ठाँय-ठाँय में तब्दील कर दिया
मेरी पहचान—मेरी ग़ायब खाल फिर से मेरे पीछे थी
मेरी पैंट फिर उतरी
लेकिन मैं फिर बच गया
जान बचाकर भागना बहादुरी नहीं तो कायरता भी नहीं है
जान जाने का ख़दशा हो तो मेरे मज़हब में हराम हलाल हो जाता है

मैंने असम जाने का अहद किया
मैं नेल्ली पहुँचा इस भरोसे के साथ कि
वहाँ मेरी पैंट को कोई उतारकर नहीं देखेगा
कि मेरी पैंट के नीचे मेरा मज़हब है
लेकिन 1983 ने भी मेरे साथ वफ़ा नहीं की
मेरी पैंट के नीचे की ग़ायब खाल ख़तरे में पड़ गई
मेरी जान जाने से बाल-बाल बची
लेकिन मेरे लोग मारे गए
मैंने अपने माथे पे भगोड़े का लेबल चस्पाँ कर लिया

मैंने अपनी जान बचाने को दूसरी तरफ़ का रुख़ किया
मैं बिस्मिल अज़ीमाबादी की तरफ़ भागा
मैं बिहार पहुँचा
मगर ‘एक बिहारी सौ पर भारी’ की कहावत भी
मुझे बचाने में नाकाम रही
मैं 1989 के भागलपुर में था
मुझे फिर अपनी पैंट के नीचे की ग़ायब खाल की हिफ़ाज़त में
अपने भाई की कटी गर्दन छोड़कर भागना पड़ा
मैं ज़ोरों से भागा था
जबकि उस समय रेलों में उतनी भीड़ भी नहीं थी
मगर रेल ने भी मेरी ग़ायब खाल का वज़न
मेरी जान का वज़न उठाने से इनकार कर दिया
मैं ख़ुद अपनी नामौजूद खाल,
अपनी पहचान,
अपनी जान बचाकर भागते हुए भागता रहा

1987 में मैं मेरठ पहुँचा
मेरी पहचान के लिए
पीएसी के जवानों ने
हाशिमपुरा में
[हाशिमपुरा—पैग़म्बर के दादा की जगह है, पर पैग़म्बर वहाँ नहीं पैदा हुए; वह दूर एक रेतीले देश में पैदा हुए…]
मेरी पैंट उतार दी
मेरी पहचान
मेरी ग़ायब खाल के साथ ही
दफ़्न कर दी गई
सभी मारे गए मैं मज़हब को लेकर वहाँ से दौड़ आया

मैं दौड़कर सूबों की सरहदें फलाँग गया
मैं बम्बई में था
जहाँ सबसे ज़्यादा पैसा होता है
और पैसे के आगे इंसान भी अंधा होता है
मगर ये पैसा मेरी पहचान को अंधा नहीं कर पाया
1992 फिर एक बार मेरी पैंट मेरे कांधे पर पड़ी थी
मेरी पहचान गोश्त के लोथड़े की तरह
मेरे निचले हिस्से में
आगे की तरफ़ लटकी हुई
चाक़ुओं की ज़द में थी
मुझे ख़रोंचें आईं
मैं मेरे लोगों की हड्डियाँ कुत्तों को भभोड़ते हुए देखूँ
उससे पहले ही मैंने अपनी पैंट अपनी आँखों पर ढकी
और मैं वहाँ से चलता बना
अपनी जान बच जाए तो काम बनता है

बूढ़े शाइर
वली दकनी को जब 2002 में दुबारा मारा गया
मैं तब गुजरात में था
मैं अपनी बेल्ट कसे
पैंट को कमर से पकड़े
गोधरा की सड़कों पर दौड़ रहा था
मेरी माँ का पेट फाड़कर भी
उन्होंने मेरी पहचान की

अब मेरी पैंट की हालत एकदम ख़स्ता थी
उस पर जगह-जगह लहू के छींटे
और गोलियों के निशान बन गए थे
यह 2013 था—
मैं नई पैंट के बारे में सोच रहा था
मैं ख़ान ए जहाँ के बाप मुज़फ़्फ़र ख़ाँ के नाम की रियासत में था
जिसको मुज़फ़्फ़रनगर कहते हैं
लेकिन तभी वहाँ कुछ लोगों को मेरी पैंट के बारे में ख़बर पड़ गई
पैंट के साथ-साथ मेरी जान भी ख़तरे में थी
मेरे लोगों ने जान देने से पहले
नहर के पानी में आख़िरी हवा के बुलबुले छोड़े
मैं अपनी पैंट को लेकर सरपट दौड़ा
और छिपकर अपनी जान बचाई
मैंने महीनों बाद अपने घरों की तरफ़ देखा तो पाया
कि घर में लगा नलका ख़ून में लिथड़ी हुई हड्डियाँ देता है
मैंने झुरझुरी ली
और मैं अपनी जान बचाने के चक्कर में पड़ा
और फिर से क़दमों पर पहिए बाँधे निकल पड़ा

अब मैं लुटियन में था
जहाँ मेरे मुल्क के नेता थे—
मेरे मज़हब के मफ़ादपरस्त
जिनको मैं समझता था कि वे मेरी जान बचाने में जुटे रहते हैं
यह सन् 2020 था—
मैं ज़ाफ़राबाद,
सीलमपुर,
करावलनगर…
हर जगह छिपा
तब भी मेरी पैंट मेरे हाथ में थी
मेरी खाल वैसे ही मेरी टाँगों के बीच से ग़ायब थी
मेरे लोगों को नाले की गहराई में
मेरा मज़हब ले गया
और जैसे खाल ग़ायब थी
वैसे वे भी ग़ायब हो गए!

खोखली गिनतियाँ

एक—प्याला ज़हर सुकरात के लिए?
दो—बोल मुहब्बत किसी के वास्ते?
तीन—गोले लोहे के मीराजी की उँगलियों में?
चार—कंधों पर चला जाऊँगा मैं?
पाँच—तत्त्व से बना हुआ मानव?
छह—उँगली हैं नए बच्चे के हाथ में?
सात—नेकियाँ मिलने वाली हैं?
आठ—पहर होते हैं हिज्र की रात में?
नौ—दिन मानी जाएगी स्त्री देवी?

एक अंक बचता है शेष—
शून्य
जिसमें समा सकती है यह समूची पृथ्वी!
सुकरात के प्याले से लेकर
सारी देवियाँ तक!

शून्य की लीला विचित्र है
इसके अंदर विलीन हो जाएँगे इक दिन सब
और शून्य का मान सर्वोत्तम होगा
यद्यपि शून्य में जो भी मिलता है
शून्य हो जाता है।

विजेता

वे सारे मरनेवालों के मरने को नकार देंगे
घोषणा करेंगे कि कोई भी नहीं मरा है
मरनेवालों को अस्पताल की सीलनज़दा दीवारों ने खा लिया
कोई भी मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई
सारी मौतें जीवन की कमी से हुईं
वे कहेंगे जो भी मरे वे जीने के लिए उत्सुक नहीं थे
उन्होंने स्वयं अपनी जान दी
वे कहेंगे हमारे पास इतनी मात्रा में ऑक्सीजन मौजूद थी
कि हम भूतकाल में जितने भी लोग पानी में डूबकर मरे हैं
सबको ज़िंदा कर सकते हैं

वे चिल्ला-चिल्लाकर एलान करेंगे कि सब सही है
हमने देवदूतों की भाँति पृथ्वी का भार अपने काँधों पर उठा रखा है
वे बड़े-बड़े होर्डिंगों में सजे-धजे दिखेंगे कि मुफ़्त टीके लगवाएँ
और हमारे भजन गाएँ

कैमरा थामे हुए बिना रीढ़ के धनुर्धर
उनकी फैलाई गंदगी पर
तीर ताकेंगे और ढक देंगे

प्रेत एक दिन दाढ़ी बढ़ाए अचानक से प्रकट होगा
जैसे कि क़ब्र फाड़कर मुर्दा निकले
क़ब्र से एक घड़ियाल भी निकलेगा
जो आँसू बहाएगा माइक पर
लाल क़िले की प्राचीर से चिल्लाएगा—
हमें गर्व है कि हम इस युद्ध में विजयी रहे!

तीन प्रेम सूक्त

एक

मुझ पर प्रेम यूँ उतरा कि
जैसे कोई आसमानी किताब उतरती है
न पढ़ सकनेवाला भी पढ़ने लग जाता है

मुझ पर प्रेम उतरा तो
मैं सीख गया सब पढ़ना
मैंने होंठों के सहीफ़े पढ़े
सीने के श्वेत श्लोक पढ़े
नाभि के पुराणों को बाँचा
मैं साक्षर हुआ

प्रेम में निरक्षर होना साक्षर हो जाना है।

दो

प्रेम उतरा तो यूँ उतरा
जैसे उतरता है कोई देवदूत
पंख हिलाते हुए कोमलता से

प्रेम की ईशवाणियों में भार नहीं होता।

तीन

दुनिया रची गई,
ब्रह्मा के चार हिस्सों से चार वर्ग उगे,
मेरे प्रेम का ब्रह्मा जब समय ने बाँटा तो,
मैं क्षत्रिय के रूप में ढला,
मुझे उसके सीने के तिल से प्रेम था,
हालाँकि लोगों ने आशा की
कि मैं अपने प्रेम में
शूद्र रहा होऊँगा!


ज़ुबैर सैफ़ी की कविताओं के विधिवत् कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनकी शब्द-संहिता दशकों की हिंसा का कोलाहल समेटे हुए है। यहाँ कुछ है जो कविता होने से पहले बयान होना चाहता है—एक समकालीन और गंभीर बयान। इस प्रयत्न में इस प्रस्तुति का विन्यास इस क़दर कविता में हुआ जाता है कि चुभन उम्मीद को चीरकर रख देती है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में सृजन, अस्मितावाद, यातना, प्रतिरोध और प्रेम की चालू बढ़त नहीं है। ये कविताएँ समकालीन हिंदी कविता के बहुसंख्यावाद में कुछ क़दम आगे हैं। कवि से saifizubair173@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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