कविताएँ ::
गौरव सिंह
एक ख़ास तापमान पर
उनकी खाने की प्लेटों में
सजने वाला हरेक पकवान
एक ख़ास तापमान पर
एक ख़ास समय में
एक ख़ास प्रविधि से पकाया जाता है।
कुछ ख़ास किस्म की भेड़ें
उनकी सर्दियों के लिए ऊन ढोती हैं
एक विशेष जानवर की चमड़ी से बनते हैं
उनके चमड़े के जूते
एक ख़ास तरह की कपास से उनके कुर्ते
एक ख़ास नाई काटता है उनके बाल
ख़ास तरह के इत्र, घड़ियों और क़मीज़ों के बीच
दमकता है उनका चेहरा…
पेट को भाड़े में देकर
अधकचा बेस्वाद खाना
जब कुछ लोग सड़कों पर
ग़रीबी, रोज़गार, भूख और इंसाफ़ के नारे लगाते हैं
मानवाधिकार की बातें करते हैं
उन लोगों को
जिनकी हर अदा में कुछ ख़ास है
विरोध का यह तरीक़ा ठीक नहीं लगता है
वे टेलीविजन पर आकर चिल्लाते हैं :
प्रदर्शन का यह तरीक़ा ठीक नहीं
विरोध करने का एक ख़ास तरीक़ा होता है
मेरे कुनबे का सबसे अनुभवी बुज़ुर्ग समझाता है—
लोकतंत्र एक ख़ास तापमान पर पकता है!
प्रिय केदार
ध्वनियों के विराट संसार से
हमने उधार ली है भाषा
आकाशगंगाओं की गति से लिया है चलना
किसी जीवाश्म के गर्भ से पाया है जीवन
पत्थरों के अनायास घर्षण से मिल गई आग
धोखे से छिटक गए किसी लवण से मिला स्वाद
बीमारी, बुढ़ापा और मृत्यु से पाया है जीवन का अर्थ
प्रेमासक्त क्रौंच की मृत्यु से मिली है सृष्टि की पहली कविता
जब भी मेरे गाँव में बनती है सड़क
समकोण पर कटी हड़प्पा की सड़कों में होती है हरकत
जब भी घर में पकना होता है भोजन
माँ आदिम आग के ढेर से उधार लाती हैं आग
पिता ने जब जाने दिया था मुझे शहर
रोती थीं घर की अलमारी में रखी मानस की चौपाइयाँ
पति के लिए बोझ ढोती एक मज़दूरन का पसीना
फ़रहाद की उसी अधूरी रह गई दूध की नहर में गिरता है!
प्रिय केदार!
आज कुछ लिखते हुए
मैंने महसूस की है आपकी बात…
कि कैसे घटित हुई थी वह अप्रत्याशित घटना…?
जब तुमने उठाया था किसी एक शब्द को
और पिछली सदी का समूचा वाक्य-विन्यास विचलित हो उठा था!
छूटता मैं
रेलयात्रा के दौरान
सामने की बर्थ पर किलकते
उस बच्चे के मुलायम गाल पर
मैं एक अघटित चुम्बन की इच्छा की तरह छूट गया
पति से मार खाकर
सुबकती एक औरत की
आँसुओं से भरी आँखों के नीचे
मेरी हथेलियाँ आँसू पोछती हुईं
एक विवश विकलता की तरह छूट गई।
ब्रांडेड दुकानों की
महँगी चीज़ों पर लगे दाम बताते टैग के पास
एक अपमानित संकोच की तरह भी कई बार छूटा हूँ।
औक़ात से बाहर के होटल में चप्पल पहन
अपनी अक्खड़ और बेपरवाह हँसी के साथ घुसा
और चीज़ों के दाम देख नज़रें झुकाए बाहर निकल आया
मैं बहुत-सी जगहों पर छूटा
अनगिनत अधूरी इच्छाओं की तरह
सुंदर जगह पर हमेशा रह पाने की इच्छा की तरह
मैं सुंदर लोगों के छूट जाने की टीस की तरह छूटा।
अन्याय के प्रतिरोध में हाथ उठाने की इच्छा की तरह
असहमति में हाथ तक न उठा पाने की विवशता की तरह भी छूटा।
मैं जिन लोगों से मिला
उनका एक हिस्सा अपने साथ ले आया
और जितनी जगहों पर गया
मेरा एक हिस्सा वहीं पर छूट गया
कल तुम्हारी स्मृति में निकली
मेरी आँसू की बूँद पहाड़ की चट्टान पर गिरी
इस तरह मैं करोड़ों साल पुरानी अरावली का हिस्सा बन गया!
तुम्हें लौट आना चाहिए
प्रेम में कई बार धोखा खाई एक लड़की
हॉस्टल की बालकनी से झाँकते हुए
रोज़ हमारी अक्खड़ उपस्थिति को निहारती थी
व्यवस्था की विसंगतियों से युद्धरत एक लड़का
तुमको मेरे कमज़ोर कंधों पर लदकर
आधी रात में सड़कों पर खेलते देखता था
भूख से रोज़ जंग लड़ती एक गिलहरी
ढाबे पर हम दोनों के साथ-साथ
कॉफ़ी और पराठे का इंतजार करती थी
जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा
एक दूसरे के साथ गुज़ार चुका एक वृद्ध युगल
हमें साथ देख मुस्कुराते हुए अपने अतीत में लौटा था
अब जब तुम यहाँ नहीं हो
मैं हर जगह अकेले जाता हूँ
और मुझे इनकी सवाल पूछती आँखें चुभती हैं
मैंने हरेक को तुम्हारे आने का आश्वासन दे दिया है
यक़ीन मानो,
अब बहुत देर हो रही है
इंतिज़ार करती आँखें तक़ाज़ा करने लगी हैं
मैं और अधिक दिनों तक इनको टाल नहीं सकता
इस दुनिया में
बची हर सुंदरता का उधार है हम पर
और हर उम्मीद के प्रति हमारी जवाबदेही
चिड़ियों की आँख में आँसू अच्छे नहीं होते
मैंने सबसे मशवरा किया है
एक बूढ़ी चट्टान ने कहा है
और मेरा भी यही मानना है—
तुमको लौट आना चाहिए…
तुम्हारा होना
तुम्हारा होना
एक आश्वस्ति है
कि भीषण ताप से दग्ध
इस पृथ्वी के सुदूर किसी पठार की
किसी चट्टान के नीचे कुछ दूब अब तक शेष है
मेरा होना
एक अट्टहास है
किसी अज्ञात बुद्ध का
जो सुवास की अमरता का भ्रम लिए
बोधहीना कुमुदिनी पर अनायास फूट पड़ता है
उनका होना
एक क्रूर आशंका है
कि चकवा-चकई की महान विरह-गाथा को
एक रोज़ मिथक या कोई कपोल-कल्पना
कहकर हास्यास्पद घोषित कर दिया जाएगा
जो सभ्यताओं के लिए नितांत अप्रासंगिक है
हमारी उपस्थिति
एक संभावना थी
कि भाषाएँ
किसी रोज़ अपने व्याकरण से
प्रेम की बर्ख़ास्तगी को रद्द कर देंगी
और सैकड़ों लहूलुहान जोड़े
भाषा के ख़ाली कोटरों में निर्बाध लौट आएँगे!
मेरी सभ्यता के लोगो,
चूँकि हमारा होना
एक महान संभावना थी
इसलिए हमारे न बच पाने को
इस शताब्दी की बड़ी त्रासदी की तरह देखा जाए
—हास्यास्पद—
किंतु मेरी यही इच्छा है!
मरुस्थलों का दुःख
धरती की अनगढ़ गोद में
अनादि से प्रवाहित एक नदी
अगले कुछ क्षणों में सूख जाएगी—
वैदिक ऋचाओं में
अपने होने के पुख़्ता साक्ष्य छोड़कर।
नदी के विलुप्त होने का दुःख
सभ्यता की असंख्य राग-रागिनियों से चिपट जाएगा।
हज़ारों साल बाद
दो नदियों के संगम पर डुबकी लगाते हुए
हम तीसरी की अदृश्य धारा के प्रति कृतज्ञ होंगे।
लेकिन किसी का ध्यान नहीं जाता
जल की स्निग्ध स्मृति लिए
एक करुण मुस्कान के साथ
धूप की तीक्ष्ण मार झेलते रेगिस्तान को ओर
क्या विडम्बना है
कि कविता की उर्वर ज़मीन से
रेगिस्तान का दुःख लगभग गायब है!
विलुप्त नदियों का
शोक मनाती सभ्यताएँ
मरुस्थलों के प्रति इतनी उदासीन क्यों हैं?
आख़िर क्यों?
यह सोचकर
यह सोचकर
कि तुम्हारी उपस्थिति को लिए
कोई रेल न जाने कब आ जाए
और दुनियावी कामों में मशग़ूल रहते हुए
मैं तुम्हारे मिलने की अंतिम उम्मीद खो बैठूँ
मैंने ख़ुद को ताउम्र प्लेटफ़ॉर्म पर छोड़ देने का इरादा किया।
यह जानते हुए भी
कि मज़दूरी दरअसल मजबूरी है
मुझे सारे कुली किसी की प्रतीक्षा करते प्रतीत हुए।
दर्ज़ी मुझे कपडों पर बटन की जगह
विरह के आँसू टाँकते हुए दिखे
मज़दूरनें ईंट से कहीं अधिक
किसी प्रेम की स्मृतियाँ ढोती हुईं मालूम पड़ीं
कपड़े बेचने वाला एक बुज़ुर्ग
जब रेशम की गुणवत्ता की क़समें खा रहा था
एक क्षण को मुझे लगा—
कि यह जीवन में
किसी की रेशमी उपस्थिति के प्रति
गहरी आश्वस्ति है
वरना कपड़े कितने भी अच्छे हों
और ज़रूरत भी कितनी ही बड़ी क्यों न हों
इस तरह से बच्चों की क़समें खाना सामान्य बात नहीं।
उन लोगों के जीवन में
जहाँ प्रेम की संभावनाएँ शून्य दिखीं
लोग किसी अरुचिकर काम में घिसटते हुए से मालूम हुए
उन लोगों को काम करते देख मैंने जाना
कि ज़िम्मेदारियाँ बेशक प्रेम को निगल जाएँ
लेकिन हर पेशे का एक सिरा हमेशा प्रेम से रँगा रहता है
यह जानकर भी
कि कविता से अधिक यातनादायी कुछ भी नहीं
मैंने फिर-फिर तुम्हारी स्मृति में कविताएँ लिखीं
क्योंकि यह यातना कमतर थी इस दुःख से
कि मुझसे प्रेम तो किया गया
पर मज़दूरन की तरह ईंटें नहीं ढोई गईं!
घिरना
हम सब कई घेरों के भीतर रहते हैं
भूगोल कहता है—
अपनी पृथ्वी को घेरे हुए हैं—
ग्रह-उपग्रह-तारे
अपने देश को घेरे हुए हैं—
सागर और हिमालय
कहते हैं उत्तर प्रदेश मैदानों से घिरा है
और मेरे गाँव को घेरे हुए हैं—
मंदिर, सड़कें, तालाब और अनंत खेत।
शरीर-विज्ञानी बताते हैं—
हमारा शरीर घिरा हुआ है
कई अस्थि-पंजरों, कोशिकाओं, मांसपेशियों और त्वचा से!
शरीर के सबसे ऊपरी भाग त्वचा की भी तीन परतें हैं
हर परत घेरे हुए है
दूसरी परत को!
वायुमंडल के जानकार बताते हैं
कि हम जिस हवा में लेते हैं साँस
उसकी परतें होती हैं पाँच—
क्षोभ, समताप, मध्य, ताप और बाह्य
कहना न होगा!
कि प्रत्येक वायुमंडल की परत
घेरे हुए हैं दूसरी परत को…
ऐसे ही अन्य परिभाषित करते हैं—
हमारे घिरने को
बुद्ध कहते हैं—
हम दुःख से घिरे हैं।
धर्म कहता है—
हम ईश्वर से, स्वर्ग-नर्क से, जन्म-मृत्यु से घिरे हैं!
कोई दार्शनिक चीख़ता है—
तुम आकांक्षाओं से घिरे हो!
अध्यात्म कहता है—
तुम चक्र-नाड़ियों से घिरे हो।
चार्वाक कहते हैं—
हम भौतिकताओं से घिरे हैं।
एक प्रेमी विलाप कर रहा है—
वह प्रेमिका की यादों से घिरा है।
हरिया की लाश देखकर
चीख़ी थी उसकी जवान बेटी मुनिया,
पछाड़ खाकर गिरी थी उसकी पत्नी।
बाजरे की रोटी लिए लाश के पास
बैठी थी सबसे छोटी अबोध गुड़िया।
गाँव के बुज़ुर्ग बताते हैं—
रात दिन की मेहनत के बावजूद
हरिया चारों ओर से क़र्ज़ से घिरा था
मैं सारे विद्वानों की बातें सुनकर
अपने घिरे होने के चिह्न खोजता हूँ
मेरे बदन पर एक भी निशान नहीं मिला
न ईश्वर का, न अध्यात्म का, न प्रेमिका की यादों का
और न ही…
जबकि पूरे गाँव ने देखा था—
हरिया के गले पर
रस्सी से घिरे होने के निशान थे!
मुझे सही जगहों पर तलाशना
मेरी खोज में निकले लोगों ने
हमेशा मुझे ग़लत जगहों पर खोजा
मैं दुर्घटनाबहुल जगहों पर तलाशा गया
जबकि मैं क्यारी में फूल बनकर खिल रहा था
जब मुझे राजमहलों में खोजा जा रहा था
तब मैं किसी तहख़ाने की दीवार में चुना जा चुका था
वे मुझे किसी चौराहे की भीड़ में खोज रहे थे
मैं पगडंडी के किनारे कुएँ की पाट पर लेटा हुआ था
उन्होंने कुटिल मुस्कानों और अट्टहासों के बीच तलाशा
और मैं झाँ… झाँ… करके खेलते बच्चों की हँसी में गुम रहा
मैं जानता हूँ :
आने वाले वक़्त में
जब ये लोग मुझे किताब के पन्नों में खोजेंगे
किताब पर जमी धूल की ओर उनका ध्यान नहीं जाएगा
वे कविता के शब्दों में मेरी उपस्थिति के छीटें तलाशेंगे
शब्दों के बीच की अश्रव्य पीड़ा उनसे अनदेखी छूट जाएगी
हाथ में तस्वीर लिए कुछ लोग राहगीरों से मेरे बारे में पूछेंगे
सड़क के दूसरी ओर काम करते मेहतरों की ओर
उनका ध्यान नहीं जाएगा
दुनिया की तमाम खोजों के इतिहास
मिलने के अभिलिखित वृत्तांत
और सभी कोलम्बसों के अनुभवी बयानात
मुझे तुमसे यह कहने पर विवश कर रहे हैं—
मुझे सही जगहों पर तलाशना!
अनुरोध
ध्वनियो,
अपने भीतर असंख्य हृदयों का चीत्कार समेट लो
यह सदी चीख़ना भूलकर
सहमकर दुबकी बैठी है!
शब्दो,
डरपोक तानाशाहों के चंगुल से फ़रार हो जाओ
तसले उठाए मज़दूरों की जिह्वा पर
अर्थ की बची-खुची संभावनाएँ तलाशो!
वाक्यो,
विन्यास से अनर्थ की आशंकाओं को जाने दो
मुझे दो टूक कहना है—
यह बेहद अँधेरा समय है!
भाषाओ,
आदिम अर्थवत्ता में लौट आओ
मुझे कुछ लोगों को बताना है—
मैं उन्हें खोने से डरता हूँ!
गौरव सिंह (जन्म : 1998) की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वाविद्यालय से एमए करने के बाद अब हैदराबाद विश्वाविद्यालय में पीएचडी शोधार्थी हैं। उनसे rajgauneeshrav121298@gmail.com पर बात की जा सकती है।
अच्छा लिख रहे हैं । इनकी और रचनाओं का इंतज़ार रहेगा।
गौरव सिंह की कविताएं विधिवत इससे पूर्व भी ‘बनास जन’ पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी हैं।
शुक्रिया, प्रस्तुति में सुधार कर लिया गया है। इस चूक के लिए खेद है।
बहुत सुन्दर, आपकी रचनाएँ पढ़ते वक़्त लगता आप सामने बैठ कर सुना रशे और मैं उन्हें जी रहा हूँ
शानदार कविताएं🌸