कविताएँ ::
संदीप रावत

संदीप रावत

एक

कुछ कहते-कहते रुका हुआ हूँ
कुछ शब्द याद में कब से नहीं लौटे
दिल पर एक सफ़ेद पंख के भार के सिवा और क्या है
कुछ नहीं! यही दिल का सितारा है!

कुछ कहते-कहते
रुका हुआ हूँ न किसी याद पर न चोट पर
न फ़ासले न फ़ैसले न किसी संकेत पर
तुम कबसे सरल और बहुत पास की चीज़ों पर ध्यान दे रहे हो
इसीलिए कुछ कहते-कहते रुकने लगे हो—एक दोस्त ने कहा
तुमने एक बार अपने शब्दों को गिनकर देखा?
हाँ, मगर चोटों, सिक्कों और दुश्मनों की तरह नहीं
सितारों की तरह गिनते हुए जब वे बहुत कम रह गए तो मैंने
गिनना छोड़ दिया
जब कुछ कम-कम-सा रह जाता है तो असंख्य तारों-सा चमक उठता है
एक स्याह संगीत उसमें से झाँकता रहता है मौन विलम्बित लय में
फैलता रहता है कभी द्रुत लय में

देखो इस घर को कहा एक स्त्री ने
बाहर बग़ीचे को देखो और बताओ
कुछ शब्द याद न आने से ये कैसा नज़र आ रहा है—
ये बहुत ख़ाली नज़र आ रहा है
हर तरफ़ यही घर यही बग़ीचा नज़र आ रहा है
कितनी ख़ाली व्याख्याएँ हैं मेरी
सुरंगों और साज़ों की तरह
कुछ शब्द यहीं से निकलते हैं क्या

कुछ कहते-कहते जहाँ रुक गए वहीं हमने
एक रात
विश्राम करने का फ़ैसला किया
सब कुछ के बारे में कुछ कहते-कहते अचानक रुक जाने की ख़ामोशी अँधेरे में तारों के प्रकाश को देखते-देखते प्यार में बदल गई और उसने हमसे हमारे किसी भी शब्द का अर्थ नहीं पूछा
जैसे सब कुछ में कोई अर्थ न हो
अर्थ के भीतर बाहर
ख़ाली एक घर
या बग़ीचा हो

दो

न जाने वो तुमसे मिलने का रास्ता था या अलग होने का
पूरे रास्ते में
घने बादल
छाए रहे
कभी रास्ता, कभी दुनिया, कभी ख़ुद को बदलने के ख़याल भी
कड़कड़ाते रहे
दुनिया ने मुझे रुक जाने के लिए एक दरवाज़ा दिया था
जो मुझसे खो गया
कई बार बहुत दिनों तक जब आसमाँ साफ़ रहा
बिन बादलों के मुझे
अपने भीतर एक रेगिस्ताँ दिखाई दिया
न जाने वो तुमसे मिलने का रास्ता था या अलग होने का
रेतीले होने का एहसास मरीचिका-सा चमकता-बुझता रहा
क्या तुम्हें रेत के दरिया में घर जैसा महसूस होता है?
नहीं! ‘घर’ जैसा नहीं
‘सदियों पहले छूटे हुए घर’ जैसा

न जाने वो तुमसे मिलने का रास्ता था या अलग होने का
उस रास्ते में
एक तूफ़ान के उठने की चेतावनी भी दी गई मुझे
तूफ़ान आया?
हाँ, मगर वो तो किसी ख़ामोशी-ओ-ख़ालीपन के आईना-ख़ाने का पासबाँ है। उसे प्रार्थनाएँ, आहें जमा करने और दीवारों की तरह धारणाओं को गिराने का शौक़ है
जैसे शीशे के टुकड़ों और
ओस की बूँदों को
हर जगह में
हर जगह से
सूरज को इकट्ठा करने का शौक़ है

सारे सपने-साए-सरगोशियाँ-वहम और आकृतियाँ एक-दूजे में मिलकर किसी जंगली पगडंडी-सी दिखाई दे रही हैं जिस पर चलते हुए बहुत कुछ विस्मृति का शिकार हो जाता है
न जाने ये तुमसे मिलने का रास्ता है या अलग होने का
दूर चले जाने या पास आने की भटकती इच्छाओं के अरबी अश्वों के भी कभी पाँव नहीं पड़े जहाँ
छोड़ दिया मुझे कल की उम्मीदों ने अकारण यहाँ
पानी जैसे अचरज के साथ
मैं कहाँ रहूँगा समंदर के सिवा
सूरज, गुलाब, बादल और मुझमें अब फ़र्क़ नहीं कोई
सिर्फ़ एक पुरातन ख़ामोशी-ओ-ख़ालीपन है जिसे गर्मजोशी से जी रही है
आकृतियों, ध्वनियों, ख़ुशबुओं और दिलो-दिमाग़ के ज़र्रों-तरंगों से बनी एक नीरव आँधी एक नीरव नीलिमा

न तुमसे मिलने का रास्ता है कहीं न अलग होने का
मगर फिर भी
दूरी और समय के जादू से बनी इक जुस्तजू
उलझाएगी, सुलझाएगी, मिटाएगी ख़ुद को
विस्मृति और तुम्हारे सपनों के ज़ख़्म लिए हुए

तीन

क्या उड़ा जा रहा है
नहीं जानता कोई
जब कोई कुछ नहीं कह पाता तो ध्यान अपनी ही लिखावट आदत
देह, भय और स्वप्नों के ऊपर
उड़ने लगता है ख़ुद ही से पूछता हुआ—
क्या उड़ा जा रहा है
उड़ते हुए कहीं चमक उठता है मगर मुझको नहीं पहचानता
जैसे सब कुछ सब जगहों से उड़ा जा रहा है
अपनी ही खोज पर विस्मय से चीख़ता हुआ
‘उड़ने से प्रकाश प्रकट होता है!!! प्रकाश!!!’
नहीं जानता मगर कि क्या उड़ा जा रहा है
उड़ने के लिए उसे ज़रूरत नहीं मेरी

अँधेरे में से कहीं एक आवाज़ आती है
कोई नहीं पूछता ‘किसकी?’
ऐसा इसलिए नहीं कि लोगों की नींद पूरी नहीं हुई कब से
बल्कि कोई इसलिए नहीं पूछता
क्योंकि वो उन्हें जाग्रति के पेचीदा सपनों में डूबने से बचा लेती है
सपना टूटने की आवाज़ सपने से बाहर नहीं आती है
वो जो बग़ैर किसी कारण और शरीर के डूब रहा था
उसे सिर्फ़ टूटते सपने की आवाज़ ही जानती है
जो पहले ही उड़ चुकी है असंख्य किरणों के साथ जहाँ
‘न जानना’ उड़ा जा रहा है

बिजली की कौंध
सीते रहते हैं
हममें
अँधेरे के हाथ
एक गर्जना-क्षण में
सब आया गया
एक क्षण साथी
है हर तरफ़ छाया हुआ

कोई विदा
किसी से नहीं कह रहा
राख-मिट्टी बनकर भी नहीं
आबोहवा में मिलकर
कैसे कह सकता है विदा कोई
दुनिया को नहीं जाना कहीं
राख़ बनकर उड़ना है क्षण भर
आब बनकर बहना है क्षण भर
बग़ैर किसी से जुदा हुए
बग़ैर किसी से विदा लिए
राख़ का लम्हा उड़ रहा
आब का लम्हा उड़ रहा
उड़ रहा प्रकाश का लम्हा
न जानने का लम्हा उड़ रहा

चार

एकाकी!
इस परिवेश
के साथ लगा हुआ
एक विस्मयादिबोधक चिह्न हूँ

अचानक हो हर कहीं
मुझे घेरे हुए
अचानक ‘कहीं नहीं’ हो
केवल इतना ही जानता हूँ तुमको
ओ! बारिश
एकाकी
कितना कम जानता हूँ मैं ख़ुद को

‘एकाकी’ शब्द
हज़ारों भाषाओं से बना
हवा, रंगों, परछाइयों, पहाड़ों, आहटों भरा
एक असीमित परिवेश है—अनजान
एकाकी होने में नहीं लगता क्षण
एक साधारण स्थानीय परिवेश का अनजानापन
और स्वतंत्रता लगती है

किसी स्वामित्व को नहीं करती स्वीकार इसीलिए तो भाषा हूँ काव्य हूँ एकाकी
स्वामी तो एक स्वप्न है
स्वप्न कब किसका हुआ
इतने क़रीब और ख़ामोश हूँ कि दिखाई पड़ती हूँ दूर किन्हीं दूसरी चीज़ों के बारे में बात करती हुई
जबकि सदियों से मैं कर रही हूँ केवल स्वयं से बातें

कुछ भ्रम इतनी धीमी गति से टूट रहे हैं कि लाखों वर्ष गुज़र गए हैं
प्रेम एक ख़ाली-भरा असीमित परिवेश है जिसके बनने में
एक सूरज के बनने जितना अंधकार (अ-समय ) लगता है

कभी-कभी स्याह निःशब्दता बहते हुए
प्रकाश और ऊष्मा उत्सर्जित करती है इस दौरान
संसार से मेरा संबंध पूरी तरह बदल जाता है
यह कहा जा सकता है कि प्रेम के एकांत का विकास
दुख के एक विशाल घने बादल के रूप में
शुरू होता है

मैंने नदियों के किनारे तुम्हें इतना याद नहीं किया जितना समंदर यात्रा करते हुए
एक वक़्त बाद जब हम मिलेंगे तो बात करते हुए
शब्दों, आँखों, हाथों का प्रयोग कम से कम करेंगे और सागरीय परिवेश का अधिक से अधिक

गहराई के हाथ
ख़ुद पर से सारे विचार उतार चले
गहराई का अनुभव भी
गहराई एक विसर्जन है
आँसू गहराई की आकस्मिकता है
हँसी भी होती है एक आकस्मिक गहराई
एकाकी
आह! कितना एकाकी परिवेश है
हँसी आँसू के फूलों में

संदीप रावत हिंदी कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी रचनाओं के लिए यहाँ देखें : मेरे पास एक चरित्रहीनता के सिवाय और कुछ नहीं

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