प्रेमचंद के कुछ उद्धरण ::
चयन और प्रस्तुति : देवीलाल गोदारा

प्रेमचंद

जो अपने घर में ही सुधार न कर सका हो, उसका दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है।

अपमान को निगल जाना चरित्र पतन की अंतिम सीमा है।

कविता सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएँ चाहे वे दुःख की हो या सुख की, उसी समय संपन्न होती है जब हम दुःख या सुख का अनुभव करते हैं। कवि वह सपेरा है जिसकी पिटारी में सर्पों के स्थान पर हृदय बंद होते हैं।

जिस प्रकार बिरले ही दुराचारियों को अपने कुकर्मों का दंड मिलता है, उसी प्रकार सज्जनता का दंड पाना अनिवार्य है। उसका चेहरा, उसकी आँखें, उसके आकार-प्रकार सब जिह्वा बन-बनकर उसके प्रतिकूल साक्षी देते हैं। उसकी आत्मा स्वयं अपना न्यायाधीश बन जाती है।

डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूँगा हो जाता है।

स्पष्टवादिता मनुष्य का एक उच्च गुण है।

जनता क्रोध में अपने को भूल जाती है, मौत पर हँसती है।

जन-समूह विचार से नहीं, आवेश से काम करता है। समूह में ही अच्छे कामों का नाश होता है और बुरे कामों का भी।

किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणी मात्र का धर्म है।

क्रोध अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं, वह मौन को सहन नहीं कर सकता। उसकी शक्ति अपार है, ऐसा कोई घातक से घातक शस्त्र नहीं है, जिससे बढ़कर काट करने वाले यंत्र उसकी शस्त्रशाला में न हो, लेकिन मौन वह मंत्र है, जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है। मौन उसके लिए अजेय है।

किसानों को विडंबनाएँ इसलिए सहन करनी पड़ती हैं कि उनके लिए जीविका के और सभी द्वार बंद है निश्चय ही उनके लिए जीवन-निर्वाह के अन्य साधनों का अवतरण होना चाहिए, नहीं तो उनका पारस्परिक द्वेष और संघर्ष उन्हें हमेशा ज़मीदारों का ग़ुलाम बनाए रखेगा, चाहे क़ानून उसकी कितनी ही रक्षा और सहायता क्यों न करे; किंतु यह साधन ऐसे होने चाहिए, जो उनके अचार-व्यवहार को भ्रष्ट न करें। उन्हें घर से निर्वासित करके दुर्व्यसनों के जाल में न फँसाए, उनके आत्माभिमान का सर्वनाश न करे और यह उसी दशा में हो सकता है जब घरेलू शिल्प प्रचार किया जाए और वह अपने गाँव में कुल और बिरादरी की तीव्र दृष्टि के सम्मुख अपना-अपना काम करते रहें।

जी से जहान है। जब आबरू ही न रही, तो जीने पर धिक्कार है।

जिसे संसार दुःख कहता है, वही कवि के लिए सुख है। धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि, ये विभूतियाँ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ ज़रा भी आकर्षण नहीं है, उसके मोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएँ और मिटी हुई स्मृतियाँ और टूटे हुए हृदय के आँसू हैं। जिस दिन इन विभूतियों में उसका प्रेम न रहेगा, उस दिन वह कवि न रहेगा। दर्शन जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमें लय हो जाता है।

जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए, उससे जितनी जल्दी हम अपना गला छुड़ा लें उतना ही अच्छा है।

ईर्ष्या से उन्मत स्त्री कुछ भी कर सकती है, उसकी आप शायद कल्पना भी नहीं कर सकते।

आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है।

महिलाएँ रहस्य की बात करने में बहुत अभ्यस्त होती हैं।

परिहास में औरत अजेय होती है, ख़ासकर जब वह बूढ़ी हो।

स्त्री और पुरुष में मैं वही प्रेम चाहता हूँ, जो दो स्वाधीन व्यक्तियों में होता है। वह प्रेम नहीं, जिसका आधार पराधीनता है।

वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राण-पोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम वसंत समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को वसंत समीर महीनों में खिलाती है, उसे लू का एक झोंका जलाकर राख कर देता है।

प्रेम जितना ही सच्चा, जितना ही हार्दिक होता है, उतना ही कोमल होता है। वह विपत्ति के सागर में उन्मत्त ग़ोते खा सकता है, पर अवहेलना की एक चोट भी सहन नहीं कर सकता।

प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, ख़ूँख़ार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता।

जैसे ईख से रस निकाल लेने पर केवल सीठी रह जाती है, उसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय से प्रेम निकल गया, वह अस्थि चर्म का एक ढेर रह जाता है।

काम करके कुछ उपार्जन करना शर्म की बात नहीं, दूसरों का मुँह ताकना शर्म की बात है।

स्त्रियों की कोमलता पुरुषों की काव्य-कल्पना है। उनमें शारीरिक सामर्थ्य न हो, पर उनमें वह धैर्य और मिठास है जिस पर काल की दुश्चिंताओं का ज़रा भी असर नहीं होता।

वह ज़ेहन किस काम का, जो हमारे गौरव की हत्या कर डाले!

मन एक भीरु शत्रु है जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है।

दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और उनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं।

पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है, जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वह स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जाएगा।

मज़हब रूहाना तस्कीन और निजात का ज़रिया है, न कि दुनिया के कमाने का ढकोसला।

स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरुषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान-पत्ते तक ही समाप्त नहीं हो जाती।

लिपिबद्ध ऋण अमर होता है, वचनबद्ध ऋण निर्जीव और नश्वर। एक अरबी घोड़ा है जो एड नहीं सह सकता; या तो सवार का अंत कर देगा या अपना। दूसरा लद्दू टट्टू है जिसे उसके पैर नहीं, कोड़े चलाते हैं; कोड़ा टूटा या सवार का हाथ रुका और टट्टू बैठा, फिर नहीं उठ सकता।

आत्मा तर्क से परास्त हो सकती है। परिणाम का भय तर्क से नहीं होता, वह पर्दा चाहता है।

उदासीनता बहुधा अपराध से भी भयंकर होती है।

निर्लज्जता सब कष्ट से दुस्सह है। और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है।

अलंकार भावों के अभाव का आवरण है।

पसीने की कमाई खाने वालों का दिवाला नहीं निकलता, दिवाला उन्हीं का निकलता है जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे होते हैं।

संयम वह मित्र है, जो ज़रा देर के लिए चाहे आँखों से ओझल हो जाए, पर धारा के साथ बह नहीं सकता, संयम अजेय है, अमर है।

अश्रु-प्रवाह तर्क और शब्द-योजना के लिए निकलने का कोई मार्ग नहीं छोड़ता।

आशा निर्बलता से उत्पन्न होती है, पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है।

ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या बैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या या बैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले, तो उसके गले में उँगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनंद के लिए हैं।

रुपए का लोभ आदमी को शक्की बना देता है।

धर्म का मुख्य स्तंभ भय है। अनिष्ट की शंका को दूर कर दीजिए, फिर तीर्थ यात्रा, पूजा-पाठ, स्नान-ध्यान, रोज़ा-नमाज, किसी का निशान मात्र भी न रहेगा। मस्जिदें ख़ाली नजर आएगी और मंदिर वीरान।

ईमान का सबसे बड़ा शत्रु अवसर है।

प्रतिभा तो ग़रीबी ही में चमकती है, दीपक की भाँति जो अँधेरे में अपना प्रकाश दिखाता है।

धर्म ईश्वरीय कोप है, दैवीय वज्र है, जो मानव जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है।

यह ज़माना ख़ुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेट भी न पूछेगा।

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प्रेमचंद (1880–1936) महान भारतीय कथाकार-विचारक हैं। उनके यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनके विपुल साहित्य से चुने गए हैं। देवीलाल गोदारा से परिचय के लिए यहाँ देखें : तबीयत को रँगो जिस रंग में रँगती ही जाती है

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