आश्लेषा महाजन की कविताएँ ::
मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा

आश्लेषा महाजन

डूब कर गहराई में

जब ख़ुद को ही निहारती हूँ गहराई में भीतर
सारा विश्व लगे जैसे समा गया है मेरे अंदर

धरा बसती है मुझमें जड़ पार्थिव देह में
बहे जल देह के ही रसीले जलाशय में

तीव्र अनुभूतियों के अंतरंग का स्नेही
पंच-प्राणों से वायु रोम-रोम में प्रवाही

ज्ञात न होता विस्तार मन-स्वरूप आकाश का
घनघोर आदि-अंत उसकी गूढ़तम खोह का

मैं ही ख़ुद को बाँट कर विस्मय से निहारती हूँ
उँगली आंतरिक विश्व की हाथ विराट के सौपती हूँ

कई-कई बिंब मेरे विराट के दर्पण में
ठिठक गया हो समय जैसे उन्हें जोड़ने में

विश्व प्रतीत होता निरंजन निस्पंद इस पल में
सम्मोहन कविता का उसकी अक्षर-कक्षा में

स्थूल से सूक्ष्म से विलास युगांतर का
अपर्याप्त पटल मन-प्रवास हेतु विश्व-ब्रह्मांड का

क़द बढ़ता जाता है

क़द बढ़ता जाता है कुछ लोगों का
पर नहीं दिखाई देता है कुछ आँखों को
देखा नहीं जाता
क़बूला नहीं जाता
या जान कर भी अनजान बनते हैं वे?

पुरानी ही किसी फ़ुटपट्टी से
नापते रहते हैं वे
आदतन
फिर पहुँचते हैं नतीजे पर
और लगा देते हैं अपनी मुहर

बढ़ता जाता है क़द कुछ लोगों का
साथ में छीजती जाती है पुरानी पट्टियाँ
होते जाते हैं ठप्पे भी जीर्ण और भोथरे

क्या समय के साथ बदलना न होगा पट्टियों को?
और मुहर लगाने की क्यों हो ऐसी जल्दबाज़ी?
पट्टियाँ और ठप्पे भी तो
बदलते है समय के साथ-साथ
समकालीन यथार्थ की तरह
क्या जाँचना न होगा
उनकी भी ऊँचाई या गहराई को?

जलाशय काला

किनारे पर खड़े होकर
देखते हैं हम काला जलाशय
निर्लिप्त हमारे समझौते और
औपचारिक हमारी मुहिम

एक-दूजे से कतराती हैं
परस्पर नज़र चुराती आँखें
जो मिला सो पाया
वही घिसे-पिटे ढोंग पुराने

तिरछी चौखट को सहेजना बेमतलब
बेमतलब के मुखौटे बेमतलब का रंजन
फिर पीड़ा-शमन के वास्ते
त्याग का वह अमृत अंजन

क्या कभी भेद पाएँगे भी या नहीं हम
कुरूपता अपने भीतर की?
क्या कभी ढूँढ़ पाएँगे भी या नहीं
लिप्त ध्वनि शब्दों के पीछे की?

उतार फेंकेगे भी या नहीं मुखौटा झूठा
भिड़ते हुए कठोर सत्य से?
उड़ गया पारा फिर भी
देख पाएँगे कभी अनावृत्त को?

जलाशय की कालिमा में गहरे
डूब जाएँगे या तैर लेंगे
दुर्बल कश्ती को फेंक कर क्या
एकबार कभी सत्य में नहाएँगे?

परछाई-आख्यान

तुम्हारी ऊँची-पूरी देह ने
मुझे आलिंगन में भरा
और क्षण भर के लिए खिल कर
अगले ही पल मिट गई मैं

तुम्हारे कंधों के पार
मुझे नज़र आई
मेरी छोटी-सी परछाई
तुम्हारी सशक्त परछाई की बाह्य-रेखा में
विलुप्त होती हुई

निशंक सुख में डूब
मैंने सतर्कता के साथ
शीघ्रता से बढ़ाए अपने क़दम
बदला कोण
देह पर पड़ते प्रकाश का
और तुम्हारा भी
और पाया अपनी परछाई को
तुम्हारी परछाई के साथ

कोण और दृष्टिकोण को
समय-समय पर अपने अनुकूल
मोड़ना आ गया
तब शायद रोका जा सकता है
आलिंगन को शृंखला में तब्दील होते हुए!

इति परछाई-आख्यान संपूर्ण!

युगों की अपरिमित तृष्णा लिए

कई युगों की अपरिमित तृष्णा लिए
उगती चली आ रही है उत्कट लालसा
उदयाचल की बरौनियों के बीच
चमकती बिंदी की तरह झिलमिलाती…
जगन्नियंता की आरेखीय कक्षा में
तालबद्ध स्वराघात में पदन्यास के साथ
गंधवती के आँगन में
दिव्य उषासूक्त का
निनाद करती

प्राचीनता को नित्य नूतन करती
अंग-प्रत्यंग में अद्भुत सम्मोहन से भरी
मानो सुंदरता की प्रतिसृष्टि
उसके कालचक्रांकित ऋतु-नर्तन में

परिवर्तन के मंथन से
क़रीने से अलग हटाती
समय का चिरंतन नवनीत
वत्सल माटी में रोपती संचित सुडौल
युगधर्म का प्रसव करती पुनर्नवा खोह में
पीढ़ियों को पिलाती
निरंतर ममता
और भरती पाथेय
चराचर की क्षुधा के मुख में

युगों के संभ्रमित तिराहे के समीप
सभ्यता के ढीठ कोलाहल में
विज्ञान से रिसते संक्रमण से
हाथ मिलाते हुए
शिक्षा का उजाला लिए
जीवटता के साथ खड़ी वह दुर्दम्य जिजीविषा

शोषण के ग्रहण को
दृढ़ता से दूर करते हुए
उपेक्षाओं को
चिलचिलाती धूप देती
और रूढ़ियों-परंपराओं के विनाश की कगार पर
पैर जमाए
संविधान के तत्त्वों को घुमाती
कब से खड़ी है वह उत्सुक संपूर्णा…
मनुष्य होने का मन्वंतर देखने को आतुर।


आश्लेषा महाजन (जन्म : 1969) मराठी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, कथाकार और बाल सहित्यकार हैं। ‘शब्दपल्लवी’, ‘स्वसंवेद्य’, ‘मनभावन’ और ‘रक्तचंदन’ उनके प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उनसे ashlesha27mahajan@gmail.com पर बात की जा सकती है। सुनीता डागा मराठी-हिंदी लेखिका-अनुवादक हैं। उन्होंने समकालीन मराठी स्त्री कविता पर एकाग्र ‘सदानीरा’ के 22वें अंक के लिए मराठी की 18 प्रमुख कवयित्रियों की कविताओं को हिंदी में एक जिल्द में संकलित और अनूदित किया है। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 22वें अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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