कविताएँ ::
सौरभ राय
दिशाबोध
हे पृथ्वी!
हे माता!
तुम सबसे अधिक सिद्ध हो
ब्रह्मांड में सबसे सुघढ़
मगर ऐसा क्यों
कि मैं उत्तर दिशा में बढ़ता जाऊँ
तो ध्रुवांत पार कर दक्षिण की ओर लौटता दीखता हूँ
मगर पूरब या पश्चिम की ओर चलता चला जाऊँ
तो चाहे लाख परिक्रमा कर लूँ तुम्हारी
बढ़ता हूँ एक ही दिशा में
घर लौटने के रास्ते बहुत हैं
दिशा मगर सिर्फ़ एक
मैंने छेक रक्खी है गठरी भर ज़मीन
मगर लौटूँगा एक दिन
पूरी पृथ्वी का चक्कर काट
तुम मेरा इंतज़ार करना।
किताब
कमरा बंद था
कमरा ख़ाली था
हमने सोचा वहाँ कोई नहीं था?
कमरे में एक किताब थी
किताब में एक आदमी
आदमी में एक बच्चा
बच्चे में एक नदी थी
नदी अपने ही पानी में नहा रही थी
जैसे पेड़ अपनी ही छाँह में खड़ा था
जैसे अपनी ही लपट में जल रही थी आग
किताब के अंदर
किताब में जो आदमी था
स्मृतियों के भार से झुक आया था उसका माथा
जैसे आख़री पन्ने तक आते-आते
ठस हो गई थी किताब
किताब में जन्मा आदमी
मारा गया था किताब में ही
किताब में टकराई थीं कामुक आँखें
और चूँकि आँखें किताब में टकराई थीं
उनका बिछड़ना तय था
एक भीषण युद्ध हुआ था
और किताब ख़त्म होने के बाद भी कई पन्नों तक
मृतकों के भूत लड़ते दिखाई देते थे
एक औरत जो खेत जोतती थी
और जिसका किताब से कोई लेना-देना नहीं था
उसे मिट्टी में भसी एक टूटी खोपड़ी मिली थी
जिसके बारे में उसके अलावा
सिर्फ़ किताब को पता था
और दोनों चुप थे
किताब बंद थी और कमरा भी
मगर इतना सब कुछ घट रहा था किताब में
जब कमरे में कुछ नहीं घट रहा था।
मृत्युबोध
सुबह का सूरज
डूबते सूरज-सा मालूम पड़ा
और ब्रश करता हुआ हँसता रहा
नहाते हुए पानी गरम ठंडा करता रहा
और सोचने लगा
कि देह का तापमान गड़बड़ा न रहा हो
घर से निकला—
पीले सिग्नल पर बाइक धीमी की
और रुका
भीख माँगती बुढ़िया को देख इच्छा हुई—
बटुआ पकड़ा सिर झुकाए चल दूँ
और ताकता रहा
अगल-बग़ल के लोगों का मुँह
सामने से आता ट्रक
आकार से बड़ा दिखलाई पड़ा
पीछे कार की चीख़
डराकर निकल गई पास से
झुका हुआ पेड़
धरती का निकला हाथ लगा
माँग रहा था जो मुझसे
अपने हिस्से की हवा का हिसाब
दफ़्तर के सहकर्मियों से मिला
जैसे आख़री बार सहकर्मियों से मिल रहा था
चाय को चाय की तरह पिया
बिजली का बिल भरने गया
एटीएम से पैसे निकाले
और गाँव फ़ोन कर सुनता रहा
छोटी बहन के स्कूल के क़िस्से
पैदल चला गया
किसी पुराने दोस्त से मिलने
और साथ बैठकर विचार किया
भविष्य पर
घर लौटता भटक गया अपने ही शहर में
और अपनी मूर्खता पर मुग्ध हुआ
शाम को शर्ट उतारते हुए कल्पना की
कि किसी तवायफ़ के कमरे का दरवाज़ा खोल रहा था
पत्नी से प्रेम करते इच्छा जागी
कि इसी क्षण मर जाऊँ
मृत्यु को मात देता
और उसके कान में फुसफुसाता रहा—
तुम मुक्त हो
तुम मुक्त हो
रात आधी लिखी कविता आधी छोड़ गया
उपन्यास के नायक का थोड़ी देर पीछा किया
और बहुत गहरी नींद सोया
जैसे सो रहा था
अपनी आख़री नींद।
आत्मदया
सड़क पर पिचका प्लास्टिक
मरी चिड़िया-सा दिखलाई पड़ा
बहुत देर तक मुझे प्लास्टिक पर
दया आती रही
कीचड़ घंघोलती चिड़िया
बादल-सी दिखलाई पड़ी
बहुत देर तक चिड़िया के नीचे खड़ा
मैं भीगता रहा
धीरे-धीरे खिसकता बादल
आकाश-सा जान पड़ा
अपने सिमटते क्षितिज पर
रोया।
सौरभ राय हिंदी कवि-लेखक-संपादक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : मेरी गोद में समुद्र भर आया है │डुबुक │ कहानी से एक कवि की शिकायतें │ शब्दों के साथ वैसा ही जैसा मनुष्यों के साथ │ कहानियों का आकार