कविताएं ::
सुधांशु फ़िरदौस
दुआगोई
कुछ औरतें चली आई हैं जिंदगी भर मुझे करते हुए माफ
उनका हमेशा रहता हूं शुक्रगुजार
कोई एक चूक को भी ता-जिंदगी नहीं कर पाई माफ
चाहे दिल्ली रहूं या पंजाब
जान गया हूं आशिक होना नेमत है
महबूब होना अजाब
क्या अलमिया है दुआ के लिए जब भी उठाता हूं हाथ
कमबख्त माफी के लिए दिल से आती है आवाज
यादगोई
ग्रीष्म की दिलफरेब रात्रि
क्या होड़ लगाकर खिले हैं अमलतास और मधुमालती
रंग और सुगंध आज ढो रहे हैं तुम्हारी यादों की पालकी
इस सड़क से इतनी बार गुजरा हूं कि आहट को पहचानने लगे हैं कुत्ते
मुझे अपने इतने करीब देखकर भी इनमें कोई हरकत कोई सुगबुगाहट नहीं
गालिबन अब इन्हें भी मुझसे कोई तवक्को कोई राह नहीं रही
बहुत सघन है तुम्हारी प्रतीक्षा
मेरा विकल्प आवारगी
दाखिल-खारिज
हिजरत होती है सबकी एक ही जैसी
मंजिल नहीं मिलती सबको एक-सी
सारे लगाव एक-सा ही दुःख देते हैं
खुशियां दीगर होती हैं सबकी
जो
‘तुम अपना रंजो-गम
अपनी परेशानी मुझे दे दो…’
सुनाते हुए जिंदगी में आए
वे
‘मेरा कुछ सामान
तुम्हारे पास पड़ा है वो लौटा दो…’
सुनाते हुए चले गए
एक तन्हा शख्स
जब फिर से तन्हा होता है
तब किसी शाइर का
खारिज किया हुआ
मिसरा हो जाता है
समझा जाना
मन को समझना
आसान नहीं रहा तथागत के लिए
न ही इच्छाओं को जानना वात्स्यायन के लिए
संबंध में होना नहीं
समझा जाना नियति है मनुष्य की
सबसे सहज है कह देना किसी से
कि तुमने मुझे समझा ही नहीं
त्रासदियां महानायकों के जीवन में ही नहीं
हमारे आपके जीवन में भी हैं
बस उन पर लिखे नहीं जाते
महाकाव्य!
उलझन
सुलझाते-सुलझाते आखिरकार
इतने उलझ गए हैं सारे समीकरण
कि जिंदगी गोया मूंज की रस्सी हो गई है
उसके जीवन में न कोई प्रेम बचा है न प्रतीक्षा
वह खुद ही महसूस करने लगा है खुद की व्यर्थता
जब भी सुनाना शुरू करता है कोई किस्सा
केंद्र से परिधि तक खुद को कहीं भी नहीं पाता
इन दिनों उदासी कोई हीर है
जो गाती रहती है भीतर
आठों पहर
बेरुखी
रात
बारिश
फूल और इंतिजार
मेरी भाषा में स्त्रियों के नाम हैं
क्या फर्क पड़ता है जो कही भी रहूं
तुम्हारी सारी मुस्कुराहटें
तस्वीरों में कैद हों
पहुंच रही हैं मेरे पास
ऐसा लग रहा धरती पर दो ही लोग बेरोजगार हैं
एक मैं और दूसरा शायद वो आईना
जिसमें आजकल
तुम कम देखा करती हो!
ज्यामिति
जीवन भी ज्यामिति की तरह
पूरक और अनुपूरक कोणों से होता है संचालित
कुछ पकड़ते हैं तो छूट जाता है बहुत कुछ
कुछ छूटता है तो मिल जाता है कुछ
अपने हिस्से का मान ही नहीं मिलता
यहां पाना होता है अपमान भी
जो खाता है कटहल का कोआ
उसे ही पचाना होता है बीज और मूसल भी
केवल देवताओं के हिस्से आए
विष का पान करते हैं शिव
मनुष्य को खुद ही पीना होता है
अपने हिस्से का विष
***
सुधांशु फ़िरदौस का वास्ता इस सदी में सामने आई हिंदी कविता की उस पीढ़ी से है जो इन दिनों एक साथ अपनी उर्वरता और निर्लज्जता को जी रही है. कवि होने के दायित्व को जानने और वक्त में अपने किरदार की शिनाख्त करने की बजाय आज बहुत सारे कवि आईनों से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. यह आत्मग्रस्तता आत्मप्रचार के संसाधनों के सहज हो जाने का निष्कर्ष है. यह पीढ़ी अपने सीनियर कवियों को असुरक्षाबोध से आकुल, उनकी कविता को बहुत उपलब्ध और एक सार्वजनिक स्वीकार का मोहताज देख रही है. उनकी हरकतें नवांकुरों से भी गई-गुजरी हैं. इस स्थिति में सुधांशु ही नहीं किसी भी वास्तविक कवि का काम करना बहुत मुश्किल है. बहरहाल, यहां प्रस्तुत कविताएं बताती हैं कि इनका कवि इस दृश्य में हाथ का काम छोड़कर बैठ नहीं गया है. वह उसे बेहद सलीके और धैर्य से बता-सुना रहा है, जो उस पर बीता है. सुधांशु फ़िरदौस से sudhansufirdaus@gmail.com पर बात की जा सकती है. कवि की तस्वीर सुघोष मिश्र के सौजन्य से.
सुधांशु की कविताएँ पढ़ना एक बहुत ही विरल सुख को अपने भीतर महसूस करना है। ये कविताएँ भीतर जाकर कई कई दिशाओं में खुलती हैं और बची हुई उम्र की तरह हमेशा साथ बनी रहती हैं। सुधांशु और सदानीरा को साथ बने रहने के लिए बहुत बहुत बधाई।
बहुत ही सुंदर रचनाए हैं पढ़ कर आनंद आ गया।
“सुलझाते-सुलझाते आखिरकार
इतने उलझ गए हैं सारे समीकरण
कि जिंदगी गोया मूज की रस्सी हो गई है”
कया खूब लिखा है ☺
♥️♥️♥️
बेहतरीन । सुधांशु और सदानीरा दोनों को बधाई
संबंध में होना नहीं
समझा जाना नियति है मनुष्य की!
सुधांशु मेरे लिए निजता के कवि है। उनके हर निजी बात को कहने का सलीका, सार्वजिनक समझ के कई आयामो को खोलने-खंगालने का आभास देता है।
शुक्रिया, ये कविताएँ पढ़ाने के लिए..
Trasdiyan mahanaykon k jiwan me hi nhi . Hamare aapke jiwan me bhi hain.bas un par likhe nhi jate mahakavya..
Jiwan ki sachchai ka behatareen chitran