सफर ::
अजंता देव

…बचपन से सुनती आई थी कि धन सिर चढ़कर बोलता है. कंबोडिया एक निर्धन देश है और यहां सुप्रसिद्ध आंगकोर वाट में लक्ष्मी की सिरकटी मूर्ति की पूजा होती है.

कंबोडिया निर्धन है, दरिद्र नहीं. उसमें लक्ष्मी है, मगर सिरचढ़ी नहीं. विनम्रता और स्त्रियों के सम्मान में कंबोडिया एक मिसाल है. जिस लक्ष्मी का मस्तक नहीं, वह लक्ष्मी अहंकार नहीं विनम्रता देती है. हालांकि इस बिना सिर की मूर्ति का एक इतिहास है. आंगकोर वाट जिस शहर में है उसका नाम सियामरिआप है. कंबोडिया और प्राचीन स्याम देश के बीच घनघोर युद्ध के बाद कंबोडिया की जीत का प्रतीक है, यह शहर सियामरिआप, यानी स्याम पर विजय.

इस युद्ध में आंगकोर वाट के शिल्प को भी नष्ट किया गया था. तभी लक्ष्मी का सिर भी तोड़ दिया गया था. आज भी, रोज किसी भी भारतीय मंदिर की तरह यहां विष्णु और लक्ष्मी की पूजा होती है. बेशक, लक्ष्मी का सिर नहीं है, मगर कंबोडिया में खंडित प्रतिमाएं भी पूजी जाती हैं.

यहां बौद्ध और हिंदू कथाओं के घालमेल से पैदा हुए शिल्प बिखरे हैं. समुद्र मंथन यहां का सर्वाधिक लोकप्रिय और चर्चित मिथ है. सड़कों के दोनों किनारे, मंदिरों की दीवार, चित्र, वास्तुशिल्प हर जगह समुद्र मंथन का दृश्य दिख जाएगा. देवता और दानव की शक्लों में एक भारतीय फर्क नहीं कर सकेगा, क्योंकि दुर्भाग्य से उस क्षेत्र जैसे नाक-नक्श भारत में दानवों के बनाए जाते हैं— चपटी नाक और मोटे होंठ वाले देवता और दानव में सिर्फ एक फर्क है. देवता मुस्कुराते हुए हैं और दानव क्रोध में. भारत के देवता और दानव में इतना (ज्यादा) फर्क रखा जाता है कि एक विदेशी भी तुरंत समझ ले.

यहां शायद यह मानते हैं कि देवत्व और दनुत्व दोनों ही मनुष्य के मन की स्थितियां हैं और इसीलिए बाहरी नाक-नक्श में भिन्नता संभव नहीं.

आंगकोर वाट में मृतकों का द्वार

आंगकोर वाट के बारे में कुछ लिखना, हर हाल में पहले कही गई किसी बात को ही दुहराना होगा. इसलिए मैं अपने और आंगकोर वाट के बीच एक तत्काल बन गए संबंध पर ही लिखूंगी. इस मंदिर (यहां मंदिर को वाट बोलते हैं) के कई प्रवेश द्वारों में से एक द्वार मृतकों के लिए भी है. हालांकि जीवितों के प्रवेश पर रोक नहीं है, लेकिन स्थानीय लोग इस द्वार से अमूमन प्रवेश नहीं करते. मेरे गाइड बॉब टीव ने मुझे जब यह बताया तो मैंने कहा कि मैं इसी द्वार से प्रवेश करूंगी. उन्होंने कहा आप जाइए, मैं दूसरे दरवाजे से आता हूं. मैंने जिस द्वार से प्रवेश किया वहां से कई मृतक स्वर्ग से लौटकर बाहर निकल रहे थे, लेकिन सीढ़ियों पर सिर्फ मेरे पैरों के निशान थे.

मुझे पहली बार लगा कि मैं कितनी जीवित हूं.

सियामरिआप का पब स्ट्रीट और टुकटुक यात्रा

अब तक लग रहा था कि मैं एक छोटे, स्वच्छ और विनम्र भारत में हूं, लेकिन सियामरिआप के पब स्ट्रीट में जाने पर वह एक छोटा-सा यूरोप प्रतीत हुआ. पतली सड़क, चौड़े टेबिलों पर वाइन— सस्ती, अच्छी और इफरात में कुछ नाचते-गाते लोग और पूरी रात खुला रहने वाला नाइट मार्केट.

पहले मुझे आशंका हुई कि अभी कुछ लौंडे-लपाटे शराब के नशे में गाली-गुफ्तार करते हुए निकलेंगे. बदतमीजी से औरतों को घूरेंगे और शायद पास की टेबिल हथिया कर हमारी तरफ देख कर हो-हो करेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. हम एक के बाद एक कैफे में चिकन, सी-फूड और वाइन खाते-पीते रहे. रात के दो बजे मैं और मेरी बेटी एक टुक-टुक (दिल्ली में पहले चलने वाला फटफटिया) में बैठकर चैन से होटल आ गए.

सिंहनुकवील और वह द्वीप जहां जा न सके

31 दिसंबर की शाम सिंहनुकवील के समुद्रतट पर एक प्राइवेट बीच पर पार्टी के साथ ढली, और बारह बजे उड़ती-जलती कंदीलों की लौ से आसमान जगमगा उठा. नीचे समुद्र का गहरा पानी और लोगों के कहकहे चट्टानों से टकराते रहे. मुझे लगा था कि शायद इस बार नया साल कुछ नया होगा, लेकिन ऐसा नहीं था.

अगले दिन 2017 का पहला दिन उगा. दौड़ते-भागते हम तट पर खड़े स्टीमरों में जगह तलाशते रहे, लेकिन कहीं भी खाली जगह नहीं थी. एक स्टीमर के आने की उम्मीद में टिकट भी खरीद लिए, पर दुपहर बीतने तक भी वह प्रकट नहीं हुआ.

नया साल भी पुराना ही निकला— वही उम्मीद और इंतजार से थका हुआ साल. शाम को होटल की खिड़की से समुद्र पर हिलती-डुलती रोशनी के चकत्तों से लगा कि शायद वह स्टीमर अब तट पर लौट रहा है. हमारे लौटने के कितने बाद.

नोमपेन्ह का मेकॉन्ग नदी-तट और चोरों का टहलना

यात्रा के अंतिम पड़ाव में हम नोमपेन्ह शहर और उसकी गलियों में घूमने निकले. मेकॉन्ग नदी के किनारे बैठने और निहारने के कई ठौर हैं. लेकिन एक टुक-टुक वाले ने चेतावनी दे दी कि अपना बैग कसकर थामे रखें, नदी-तट पर कोई भी झपट ले जाएगा. नदी इतनी खूबसूरत कि बैठे बिना रहा भी नहीं गया. अब हाल यह था कि कभी नदी को और कभी चोर को देखते-देखते आंखें दुखने लगीं. रात तक मैं नदी और चोर दोनों को देखती रही. न नदी मेरे पास आई और न ही चोर, हालांकि दोनों ही मेरे आस-पास बह रहे थे.

मुझे लौटकर थोड़ी निराशा हुई, काश! चोर आता, कुछ छीना-झपटी होती तो शायद मेकॉन्ग नदी को मेरी याद रह जाती.


अजंता देव हिंदी की सुपरिचित कवि-लेखक हैं. उनसे ajantadeo@gmail.com पर बात की जा सकती है. यहां प्रयुक्त तस्वीरें कवि-लेखक के ही सौजन्य से. यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के 17वें अंक में पूर्व-प्रकाशित.

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