कविताएँ ::
सुघोष मिश्र 

सुघोष मिश्र

अनुशासन

स्वतंत्रता की अधिकता से उपजती है उच्छृंखलता
यांत्रिकता लील जाती है स्वाभाविकता को
गतिशीलता क्षीण होकर जड़ता बन जाती है
अश्लीलता से पुष्ट होती है कुरूपता

जीवन सिर्फ़ आस्था और तर्क से नहीं चलता
कोई सिद्ध मंत्र और गणितीय सूत्र भी नहीं
जिससे हल हो जाएँ सारी समस्याएँ
विचारों की बौछार से सूख जाता है दर्शन
स्थापनाओं में कहीं पीछे छूट जाता है सत्य
दृष्टांतों के बोझ तले टूट जाती है प्रामाणिकता

क़ानून से अधिकारों की रक्षा होती है
क़ानून में ही उड़ाई जाती हैं उसकी धज्जियाँ
निर्णय से न्याय की उम्मीद होती है
निर्णय में ही होती है अन्याय की प्रबल संभावना
अतियों से बर्बाद हो जाता है सुख
अतियों में ही संगठित होते हैं दुःख

अनुशासन एक दुर्लभ फूल है काँटों से घिरा
मनुष्य मात्र धैर्यपूर्वक हो सकता है उसका संगी
वह एक सौंदर्य है–जीवन के लिए–एक गुण
आधिक्य से भटक जाती है उसकी यात्रा
आधिक्य में ही रूपांतरित हो जाता है वह कट्टरता में

द र अ स ल
‘कहीं से कहीं तक होकर’ भी वह ‘नहीं है’
यह सृष्टि कितनी अनुशासित है
और कितनी अनुशासनहीन

धर्म बहुत अनुशासित होकर
अधर्मियों का रक्षक बन जाता है
भक्ति बहुत अनुशासित होकर
बन जाती है करुणा की शत्रु
ज्ञान बहुत अनुशासित होकर
आतंकियों का संगी बन जाता है
चिकित्सा बहुत अनुशासित होकर
बन जाती है मरीज़ों के लिए विपदा
नेतृत्व बहुत अनुशासित होकर
हत्यारों का समूह बन जाता है
राष्ट्र बहुत अनुशासित होकर
बन जाता है असहमतों का वधस्थल

ऐसे समय में
जब संसार के सबसे ताक़तवर लोग
दिन का अधिकांश समय
बहुत अनुशासित होकर
शासितों की अपूर्व सेवा में गुज़ारते हैं
मैं तनिक अनुशासनहीनता करूँ
और कविता में कहूँ तो–

दुनिया बहुत अनुशासित होकर
घड़ी बन जाती है
और तंत्रों की आवाज़ें टिक-टिक
दुनिया के तमाम लोग
अपने-अपने देशों में
अपनों से ही पीछे छूटते जाते हैं
सड़कों पर पिटते हैं, भूख से लड़ते हैं
गोलियों और बमों के छर्रों के बीच
संयोगवश रह जाते हैं सकुशल
नफ़रत, अन्याय, विश्वासघातों से
यदि नष्ट नहीं होते हैं
सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हमलों से भी
बच निकलते हैं तो–
घरों, अस्पतालों, तंबुओं या शरणार्थी शिविरों के
अपने-अपने कमरों में क़ैद
बहुत अनुशासित तरीक़े से
मनुष्यता की रक्षा के लिए
मरते
जाते
हैं

बहिष्करण

मैं बाधा की तरह नहीं आया
किसी के पास
न ही बना किसी के गले की फाँस,
मैं भूखा भटकता था बदहवास
शब्दों की राह पर नंगे पाँव
तलाशता कोई रूप-रंग नंगी आँख।

जब वे भाषा की इज़्ज़त उतारते दिखे
मैंने उन्हें सिर्फ़ स्याही का मूल्य बताया—
उन्होंने कहा उनके पास इतनी स्याही है
जिससे शब्द क्या आदमी तक ऊब जाए!
इतना कीचड़ कि भाषा तक डूब जाए!
फिर शुभेच्छा क्या बधाई तक ख़ूब आए!

मैं उनसे डरा नहीं इस अर्थ में पहचाना गया
सिरफिरा शराबी हूँ ऐसे तो जाना गया
शब्दों की राह पर पहचान भी एक पड़ाव है :
अक्षरों के साथ वस्त्र तक छीन लेने वाले
लुटेरों ने मुझे यह हँसते हुए बताया—
वंचित के लिए रेखांकित होना भी एक उपलब्धि है,
मेरी देह पर पड़ी खरोंचे देखकर
कह उठे किनारे पड़े हुए अंधे और भिखारी दीन—
सिर्फ़ आँखों और हाथ के साथ ज़िंदा रहना है कठिन।

मैंने उनसे तमाशे दिखाने को नहीं कहा
फिर भी क्रांतिकारियों की कलाबाज़ियाँ
और कलावादियों की किलकारियाँ देख हैरान रह गया,
उनसे और न जाने किनसे भरसक बचता हुआ भागता रहा
एक गड्ढे के मटमैले पानी में अपना ही चेहरा न पहचान सका
फिर वे इस भ्रम में रहे कि मुझे मार दिया गया
मैं इस भ्रम में रहा कि मैं बाल-बाल बच गया
किंतु एक जासूस था मेरे पीछे धूल पर पदचिह्न तलाशता हुआ
एक सरकार थी जिसने मुझे पाँव काट लेने का सुझाव दिया।

मैं बच जाने के बाद भी सुरक्षित न रह सका
आदर्शों और श्रेष्ठताओं से सनी गंदगियों में
पक्षधरता न तय करने से
मुझे संदिग्ध बताया गया
दिशाहीन क्रांतियों और खोखली नारेबाज़ियों के शोर में
चुप रहने के अपराध में
मुझे नज़रबंद कर दिया गया,
एक मुरझाया फूल उठा कर सूँघ लेने पर
मेरी नाक काट दी गई
एक सूखे पत्ते को जेब में रख लेने पर
मुझ पर चोरी का आरोप तय हुआ
बेख़ुदी में प्रेम की गई एक स्त्री का नाम पुकार लेने पर
मुझे चरित्रहीन कहा गया—
किंतु मेरे हृदय से उसका तीन अक्षरों का नाम न मिट सका
उतने ही अक्षरों की क़लम और उँगली भी रह गई सही सलामत,
मेरे तीन अक्षरों के इस व्यर्थ नाम के लिए
दूर कुछ अकादमियों, संस्थाओं, और विश्वविद्यालयों में
पर्याप्त स्याही पहले ही मौजूद थी…

अफ़साने ज़रूरी हैं या अफ़सानानिगार
पत्रिकाएँ ज़रूरी हैं या पत्रकार
रास्ते ज़रूरी हैं या रोज़गार
यह मैं भटकते हुए खो जाने पर समझ पाया

जिन्होंने मुझे नफ़रत करना सिखाया
उन्हें मैंने कोई क्षति नहीं पहुँचाई
वे सिर्फ़ मेरे प्रेम से वंचित रहे।

बंद घड़ी

एक शहर के सरकारी अस्पताल के कमरे के भीतर
शीशे से लिपटा हुआ
उसका दम घुट रहा है

उसकी मिनट और घंटे की सुईयाँ
चींटियों के खाने से रहे शेष
किसी घायल पक्षी के पंजे जैसी शिथिल पड़ी हैं—
किसी दुविधा की तरह
एक विचार के मूल से बँधी किंतु
उसे दो दिशाओं में खींचती हुई,
उसकी सेकेंड की सुई
किसी बीत चुके समय की हथेली थाम
उठ–उठकर गिरती हुई
तड़फड़ा रही है।

सारा रक्त निचुड़ जाने के बीच
जैसे हलाल हुए मुर्ग़े की देह हिलती है
जैसे सशंकित व्यक्ति की आत्मा सिहरती है
एक अधजली स्त्री की छाती चिहुँकती है जैसे
और कातर दृष्टि से ताकता हुआ
उसका पति झटकता है हाथ
नीचे का पाँव खो देने के बाद
एक अचेत किशोर का घुटना थरथराता है जैसे
और लड़खड़ाती है उसकी बहादुर माँ की आवाज़—

वह अकेली
सेकेंड की
हल्की पतली सुई
काँपती हुई
अपने आस-पास उपस्थित सबकी
संयुक्त जिजीविषा की तरह
लड़ रही है जड़ता और मृत्यु से।

चीर-फाड़ की असीम यातना के बाद
तीन दिनों की मेरी असह्य पीड़ा को
चिकित्सकों, दर्द निवारकों और निश्चेतकों
ने नहीं सहलाया किया केवल
बल्कि उस ठहरती हुई घड़ी ने भी
जिलाए रखी यह उम्मीद
कि अब भी दस बजने में हैं पैंतीस मिनट शेष…

छूटी हुई जगहें

वे इतनी ख़ाली नहीं रहतीं
जितना हम उन्हें सोचते हैं
वे हमारी नसों में भरी रहती हैं
और हर धड़कन संग फैल जाती हैं
पूरी देह में
एक घना पेड़ उगता है
और जाने कितनी लताएँ लिपट जाती हैं
हमारी त्वचा ऐसे झनझनाती है
जैसे एक साथ कितने विद्युत तार छू गए हों।

न होने का होना
पीड़ा में ज्यों सुख का होना है
चाँद का न होना
आकाश में
तारों की टिमटिमाहट का भर जाना है।

रिक्तताएँ अपने बराबर की जगहें बनाती हैं
हम सहमे हुए-से प्रवेश करते हैं उनमें
वहाँ एक स्थायी सूनेपन का गहन सन्नाटा सुनाई देता है
आँख खुलने से पहले एक खिड़की खुल जाती है
और निपट अँधेरी राहें जगमग हो जाती हैं बत्तियों से।

पानी की स्मृति भी प्यास बुझाती है
भीगने की स्मृति से भी तर हो जाती है देह
मुझे प्रेम की स्मृति से भी होता है प्रेम
ख़ाली जगहें स्मृतियों में ख़ाली नहीं रहतीं
स्मृतियाँ ख़ालीपन का विलोम हैं—
ऊँचाइयों और गहराइयों के असीम में विस्तृत
अपने न दिखने में जितनी दिखाई देतीं
उतनी ही छिपी हुईं।

ख़ाली जगहों की आत्मा विभाजित होती है
उनका हृदय चीरकर एक पेड़ निकलता है
और दो तनों में बँट जाता है
सूखने के बाद भी वह करबद्ध ताकता है आसमान
और आँधियों में काँपती अपनी जर्जर उँगलियों से
बादलों से थम जाने की प्रार्थना किया करता है।

उनकी आँखें सूखे तालाबों-सी होती हैं
कुदालों और खंतियों से
और-और गहरी होती हुईं,
उनके चारों ओर रुदाली बँसवारियाँ
रिसते हुए घावों पर मरहम लगाती हैं
और पछाड़ें खाकर लोटती हैं
अपने सुदीर्घ हाथों से उनका अस्तित्व सँभालती हुईं।

ख़ाली कुएँ में रहट की चरमराहट गूँजती है
ख़ाली आसमान में उठती है नीलकंठ की नीली उड़ान
ख़ाली फ्रेम में एक युगल की असंभव तस्वीर रहती है
ख़ाली आलमारी में पसरता रहता है कोई दूसरा ख़ालीपन
ख़ाली डायरी में अनलिखी कहानियाँ अनलिखी रह जाती हैं
ख़ाली सड़कों पर अनहुई दुर्घटनाएँ होती ही रहती हैं
ख़ाली बस्तियों में उजड़े हुए लोगों की पीड़ाएँ सिसकती हैं
ख़ाली गोदों में अनसुनी किलकारियाँ खनकती हैं
ख़ाली खेत हल की खरोंच और किसान की नोक-झोंक को भूलता रहता है
ख़ाली मूठ याद करती रहती है—कुदाल—याद करती रहती है धार
ख़ाली नदी में नावों के तिरने का अतीत तिरता है
ख़ाली पोखरे से वर्षा की कामना की सूखी हुई गंध आती है
ख़ाली डाल से बिछुड़ी पत्तियों की हरी खड़खड़ाहट सुनाई देती है।

पकी बेरों से लदे
पेड़ों के बीच में
विस्मृत संगीत बजाता हुआ
एक कच्चा रास्ता
नंगे पाँवों में काँटे-सा चुभता है,
झुकी हुई छत पर झुका बेल का पेड़
अकनता है
सूर्योदय की स्त्री-पदचाप,
प्राचीन मंदिर का प्रांगण सुना करता है
अनुच्चरित मंत्रोच्चार।

शांतचित्त हत्यारों की तरह मुस्तैद
लैंपपोस्ट्स देखते हैं
चिकनी काली सड़कों पर घिसटता एक भूरा साँप,
प्रेतों जैसे उड़ती हुई मेट्रोज
पहुँचाती रहती हैं नासमझ सवारियों को
ग़लत और ग़ैरज़रूरी जगहों पर,
चारमंज़िला मकानों की छतें अपराधमुक्त रहती हैं—
उनसे छलाँग लगाए हुए
परकतरे कबूतरों का ख़ून
पोंछ डालती है गलियों की भीड़।

कई ख़ाली जगहों के बीच
मैं नहीं पाता हुआ खोजता रहता हूँ
धरती के नक़्शे पर एक खोया हुआ अधिवास
दस हाथ जिसकी सुरक्षा करते थे
जिन्हें थामकर हम पहुँचते थे
उसके हृदय तक,
वह ‘कहीं नहीं’ दीखता अब!
वहां ‘कोई नहीं’ रहता अब!
उसे किसने नष्ट किया, कब?

वे सारी संज्ञाएँ, क्रियाएँ, विशेषण, भाषाएँ
स्वप्न, दृश्य, संगीत, छायाएँ
उपलब्धियाँ, अनुपलब्धियाँ, तृप्तियाँ, अतृप्तियाँ
तमाम-तमाम चमकीली और धुँधली
स्मृतियाँ
अनंत काल तक
सूर्योदयों-सूर्यास्तों के साथ
लुका-छिपी करती रहेंगी
और वे सारी जगहें
जो हमने ख़ाली छोड़ दी हैं
मृत्यु उन्हें अपने कुशल हाथों से भर देगी।

चौराहे पर लड़की

ठेले पर लादे कबाड़
चला जा रहा था एक कबाड़ी
अनुत्सुक निर्विकार
जैसे दुःख जीवन को ठेलता जाता है
किसी गंतव्यहीन पथिक-सा गुमसुम
वह सिर्फ़ चला जा रहा था

पीछे कबाड़ पर लेटी थी एक लड़की
बादलों के टुकड़ों पर चील ज्यों चिपकी
या दुर्गा जैसे कालरथ पर सवार
देखने निकली हो लीला जग की
किंतु वह तो बेटी थी कबाड़ी की
फटे सलवार से झाँकते
अपने उघरे हुए नितंब से बेख़बर

पूरे चौराहे से गुज़रती हुई वह
कभी लंबी पीक बन बिखरी
कभी कसैले धुएँ-सी उड़ी
कभी मोटे हाथों तले आटे में गुँथी
कभी दाल के तड़के में छौंक दी गई
कभी समोसे-सी गई तली
कभी सीरे में डूबी मिठाई बनकर
कभी चाटी गई आइसक्रीम की तरह
कभी चुइंगम-सी चबा ली गई

वह छोटी-सी लड़की
मैं उसका पिता नहीं पर मेरी वह बच्ची
करुणाहीन आँखों में वासना-सी जली
और सबसे विकृत हँसी से बुझाई गई

वह इन्हीं अर्थों में नष्ट हो रही थी
उसे इन्हीं अर्थों में विस्तार मिल रहा था
कि वह आगे बढ़ गई

और फिर इस दृश्य में
पीछे किसी स्त्री का प्रवेश हुआ

साथ

‘मैं
सिर्फ़
तुम्हारा
हूँ’
यह मैं किसी अन्य से न कह सका।

एक तनी हुई चादर—
तुम्हारी सौतन
टूटती हुई यह पंक्ति
सुनती है पूरी रात
और मुझे ढँकी हुई ऊँघती रहती है मेरे साथ।

अनुपस्थिति

कितनी स्त्रियों के निशान पड़े और मिटते रहे
प्रेम का घाव देह से भरता है भला!
रक्त से सींचकर भी काँटों में कोमलता लाई जा सकती है क्या!
हर रात के साथ नींद की सौग़ात तो नहीं आती।

तुम जो कहीं नहीं हो अब
अपनी स्मृति से कहो वह भी मुझे छोड़ दे
कल रात जब एक नई स्त्री आएगी मेरे सुनसान में
वह गुम न हो जाए कहीं!

तुम्हारे जाते हुए चले जाने के पथ में
अस्पष्ट से अस्पष्टतर होते
उस दृश्य के अदृश्य हो जाने के बीच में
न जाने कितने चेहरे हैं—

जीवन एक बहुत बड़ा कोलाज है
जिसमें एक वर्ग ख़ाली है—
प्रेम की तरह।

ब्लैकबोर्ड

वह देह थी
या कि ब्लैकबोर्ड
उस पर कितने विषय अंकित हुए
और मिटा दिए गए।

सबसे पीछे बैठा हुआ
मैं, किसी गुस्ताख़ विद्यार्थी की तरह
घूरता हुआ नहीं, खिड़की से आती
मद्धम रोशनी की तरह निहारा किया
बहुत देर तक
चाक की सफ़ेदी झड़ने तक
उसे पढ़ता रहा।

पहला घूँट

शाम से ही डगमगाने लगते हैं मेरे पाँव
चार तश्तरियों में टिके होते हैं मेरे हाथ
एक आदिम कुएँ की जगत पर रख देता हूँ
दहकते पलाश के फूल
कामनाएँ धावती हैं अनगिनत पशुओं-सी
मन चरवाहे-सा भटकता है
उसी परिचित सुनसान में
आँख में डूबती है आँख
रात काले अंगूरों के गुच्छों-सी
बिखरती है ज़मीन पर
उसे एक-एक कर
चखते हुए
पीता हूँ
प्यार का
पहला
घूँट!

सुघोष मिश्र हिंदी के उल्लेखनीय कवि-लेखक हैं। हिंदी की नई नस्ल में उनकी उपस्थिति और स्वर अलग से पहचानने-योग्य है। यहाँ प्रस्तुत कविताओं में से कुछ कविताएँ ‘भवन्ति’ और ‘सदानीरा’ के 23वें अंक में पूर्व-प्रकाशित। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : क्रूर शासक के अपकीर्ति-स्तंभ-सा उपेक्षितकविता थीं वे पंक्तियाँ जो लिखी नहीं गईं

1 Comments

  1. Akhilesh अप्रैल 2, 2020 at 2:23 अपराह्न

    “छूटी हुई जगहें” मेरी पसंदीदा कविता रही है। लेकिन “अनुशासन” पढ़कर भी आश्वस्ति मिल रही है। कविता की डिटेलिंग अपने केंद्रीय भाव से नहीं भटक रही है, यह कवि का प्रवाहपूर्ण सामर्थ्य भी है, और छूटी… के बरक्स उसकी सीमा भी। सभ्यता को जिस तरह के निरीक्षक-काव्य की ज़रूरत है, वह कवि सुघोष अपनी इन दोनों कविताओं से कर रहे हैं। कुछ बातें लेखन में, चलन से भी आती हैं, हालाँकि इससे बचना सकारात्मक व नकारात्मक दोनों हो सकता है। “बहिष्करण” एक यात्रा के बाद धूल चढ़ी हुई शक्ल को मिल जाने वाले आईने की तरह है। हिंदी समाज को भी यह आईना देखना चाहिए और कवि के प्रथम पुरुष को भी।

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