कविता ::
सुघोष मिश्र
वह
एक
वृक्ष
का
अवशेष
है—
अपनी संरचना में ऊर्ध्वाकार
पृथ्वी के वक्ष में बेहयाई से गड़ा हुआ
वक्त के साथ बिसरा दिए गए
क्रूर शासक के अपकीर्ति-स्तंभ-सा उपेक्षित
वह दर्शनीय नहीं है
लेकिन मेरी आंखों से उसका दृश्य-अनुबंधन है
मैं ध्यान से देखता हूं उसे—
क्षतिग्रस्त इतिहास के जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों में
जंजीरों से बंधा वह कोई योद्धा है—
मृत्युदंड से अधिक अपनी पराजय से शोकग्रस्त
उससे लिपटी जंगली लताओं में आए पीले फूल
स्त्री-केशों में गुंथे पुष्पाभूषण-से हैं—
बिखरे हुए प्रेयस् के वक्ष पर
कामातुर पुरुष-अंश-सा वह उत्तेजित है
नीले वस्त्रों में उस पर छाई प्रेयसी के लिए
इस दृश्य में गहरे डूबा मैं
सहसा एक स्त्री-स्वर से चौंक उठता हूं
देखता हूं सड़क किनारे खाट पर पसरी
—अपने दाएं हाथ से अपना बायां स्तन खुजलाती—
एक अधेड़ स्त्री को
वह कहती है : यह जामुन का पेड़ है
यह फलता था कभी रस-रंग से
चींटे-चीटियां आज भी इसकी जड़ों में हैं
जबकि अब मधुरता से रिक्त है यह
तरलता से भी…
उसकी सूखी आंखें
मुझमें एक अंतरंग-अमूर्त को स्पर्श कर रही हैं
सहमकर मुड़ा हूं मैं
पाता हूं खुद को चींटे-चींटियों की कतार पर खड़ा
वह कतार जड़ों की ओर जाना छोड़ मुझ पर चढ़ रही है
मैं झटकता हूं पांव
अब वृक्ष वह नया बिंब ग्रहण कर चुका है—
वासना के तंतुओं से लिपटा सूखा हुआ अंतःकरण
***
सुघोष मिश्र हिंदी के उल्लेखनीय कवियों में से एक हैं. अपनी कविता के ‘पूरेपन’ को लेकर वैसे ही संशय में रहते हैं, जैसे एक जागरूक कवि को रहना चाहिए. यहां प्रस्तुत कविता पर, अपने तमाम जीवन-संघर्षों के बीच, वह एक अरसे से काम कर रहे थे. नीचे दिए गए लिंक पर इस कविता का कवि-कृत पाठ भी सुना जा सकता है. सुघोष से sughosh0990@gmail.com पर बात की जा सकती है :
बहुत ही सुंदर और अर्थपूर्ण कविता। समझ में नहीं आता कि इधर के युवा कवियों को हो क्या गया है। सब इतनी सुंदर कविताएँ लिख रहे हैं कि कई बार तो उन्हें पढ़कर मुँह से बोल ही नहीं फूटते। बस चुप रह जाना ही कविता पढ़ने की उपलब्धि होती है। यह चुप्पी बहुत देर तक भीतर बनी रहती है। सुघोष को बधाई ।
पढ़ते हुए न जाने क्यों मुक्तिबोध की याद आई।