कविताएँ ::
विहाग वैभव
प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी
एक
कोई ऐसा शब्द कहो
जिसका सचमुच कोई अर्थ हो
कोई ऐसी नदी दिखाओ
जिसमें न बह रहा हो हमारी आँख का पानी
कोई ऐसा फूल उपहार में दो
जिसकी गंध बाज़ार में न बिकती हो
अपने प्रेम और घृणा के लिए दलीलें देना बंद करो
ताकि मैं भरोसे पर पुनः भरोसा कर सकूँ
अर्थ, रस, गंध और स्पर्श
सब अपनी सवारियों से पलायन कर रहे हैं
और यही इस दौर की सबसे विकराल महामारी है
अगर नहीं तो
एक ऐसे मनुष्य से मिलाओ
जिसे मनुष्य कहकर पुकारूँ और वह पलटकर जवाब भी दे।
दो
महामारी के दिनों में
सब लौट जाते हैं अपने-अपने घरों की ओर
अन्न गोदामों में लौट जाते हैं
और अधिक काले दिनों की प्रतीक्षा में
मनुष्य आत्मा के सभी पाट पर कुंडी देकर
लौट जाता है अपनी देह, अपनी हड्डियों में
पानी आँख से उतरने लगता है और जमा होता है भूख के आदिम अँधियारे कुंड के तलहट
फूल अपनी पंखुड़ियों में सिमटने की तैयारी करते हैं
और गंध से कहते हैं—विदा
देह की आसक्ति अपना निर्मम रहस्य खोलती है
और स्खलित उबकाई की भेंट चढ़ती है
जब सब के सब लौट रहे होते हैं उत्स, अपनी जड़ों में
तब यह मुमकिन नहीं कि चूहे न लौटें अपने खंदकों की ओर
इसी बीच संवेदना की परीक्षा के प्रश्न-पत्र जैसी ख़बर आती कि
मुसहरों ने भूख से आकुल घास खाना शुरू कर दिया है
ठीक इसी समय
मनुष्यता के मरघट की राख से सना मेरा अधमरा मन चीख़ना चाहता है—
जिसे आप मुसहर कहते हैं,
दरअसल वे मनुष्य हैं।
तीन
कुछ भूख से मरे, कुछ भय से
जो आस्तिक थे वे ईश्वर की कृपा से मरे
कुछ ख़ुशी से मरे की छोटी होंगी अब बैंक की क़तारें
जो हड्डियों के आख़िरी हिलोर तक सरकार से सवाल करते हुए लड़ सकते थे
वे मरे सरकार की बेशर्म हिंसक हँसी से
महामारी से बचाव का घिनौना तर्क देते हुए पुलिस ने
जिनकी जर्जर पीठ पर लाठियों के काले-लाल फूल रोपे थे
उनके प्रियजन उस फूल की गंध से मारे गए
कुछ अपनी अश्लील आरामकुर्सी पर
लालच और लिप्साओं का ज़हर खाकर मरे पड़े मिले
कुछ तो सिर्फ़ यह देखकर मर गए कि
इस क़ब्रिस्तान में उनके लिए कोई जगह नहीं बची है
कुछ को घर लौटने के रास्तों ने मारा
इस तरह से वे उन मुठ्ठी भर लोगों में हुए
जो किसी मुहावरे के बाहर अब भी
प्रेम के लिए चुपचाप मर सकते थे
कुछ को घृणा ने मारा, कुछ को शक्ति ने
कुछ को ऐश्वर्य ने मारा, कुछ को भक्ति ने
महामारी में मरने वाले सब के सब लोग
महामारी से नहीं मरे थे।
चार
सभ्यता के दक्खिन में चारों दिशाओं से जिस रात धू धू धुँआ उठा
और देखते ही देखते मनुष्य से मवेशी तक
सब के सब राख में बदल गए
कहते हैं तब जसोदा चाची आठ माह पेट से थीं
यह रहस्य उस अजन्मे के साथ गया कि
घृणा की आग से उठते धुएँ से दम घुटने लगे तो
करुणा का गर्भ हमें कब तक ज़िंदा रख सकता है
निरपत हरिजन का पूरा का पूरा गाँव सिर्फ़ इसलिए जला दिया जाता है कि
उन्होंने अपने मनुष्य होने के पक्ष में गवाही दी थी
यदि आपके गणित और समाजशास्त्र को जाति का गेंहुअन न डसा हो तो
सोचकर बताइए कि पिछली सदी की कोइलारी में
कोयला खोदते खदान में दफ़्न होकर आपकी कार का ईंधन हो गए लोग कौन हैं
बताइए तो ज़रा
वे लोग कौन हैं जो भरी जवानी में दिहाड़ी करने सूरत, बंबई, कलकत्ता, गुजरात गए
जिन्होंने आपके शहर की चिमनियों और मिलों को बंद नहीं होने दिया
और जो दुर्दिन में घर लौटते हुए सरकारी निर्देशों से मारे गए
क्या आप बता सकते हैं कि
जमींदार के भय की बेगारी करती हुई
हड्डियों की हवस के अँधेरे गोदामों तले
कितनी अवर्ण स्त्रियों के लिए बलात्कार दिनचर्या में शामिल कर दिया गया
क्या आप बता सकते हैं कि कितने भुइधर धोबी के पीठों पर
ब्याज के कोड़ों के निशान कभी नहीं धुले
खदानों में, मिलों में, मशीनों में समा गए लोग
कौन थे, कहाँ से आए थे
आपने कभी नहीं सोचा कि वे किस महामारी के शिकार हुए
यदि आपने भाषा पर डाका नहीं डाला होता तो वे बोलते—
जाति वह भीषण महामारी है
जो न गला पकड़ती है
न साँस जकड़ती है
न फेफड़ों को रोक देती है काम पर जाने से
यह आदमी के गुप्तांग में पेचकस घुसेड़ देती है
यह औरत के यौनांग में पत्थर घुसेड़ देती है
यदि आपका इतिहास चाँदी के चम्मच से घृणा की खीर खाकर नहीं जवान हुआ है तो
आप सोच पाएँगे कि
जाति की महामारी से मारे गए लोगों की तुलना में
जैविक महामारी में मारे गए लोगों की संख्या कुछ नहीं है।
पाँच
जब भूखे जिस्म की आख़िरी अँजुरी ख़ून में डूबी रोटियाँ
सड़कों और रेल पटरियों पर लिथड़ी पड़ी हों
ऐसे में स्वाद के पक्ष में किया गया हर प्रदर्शन
सभ्यता की क्रूरतम अभिव्यक्ति है
स्वाद के अनंत संस्करणों का दिखावा
भूखे मनुष्य के साथ किया गया सबसे वीभत्स मज़ाक़ है
वे कोई और प्रजाति से नहीं थे जिन्होंने अपनी कोठियों और महलों की अश्लील भव्यता के लिए
दीवार पर हिरनों-हिरनियों के हड्डियाँ टाँगी
और नींव में किसी ग़रीब-ग़ुरबे को दफ़नाकर हत्यारी शुभता से ढँक दिया
वे कहीं नहीं गए
आधुनिकता उनके लिए व्यवधान थी पर वे उससे भी पार हुए
हमारे-आपके बीच फैल गए हमारे-आपसे दिखते हुए
और मज़लूमों की रक्त की सिंचाई पाकर वे फिर-फिर उभर आए
इस बार उन्होंने हिरण मारकर दीवाल पर नहीं लटकाया
उन्होंने बस हड़पी हुई भाषा में भीषण दुर्दिन को सबसे शांत समय घोषित किया
वे सबसे भूखे दिनों में अपनी अय्याश संपन्नता का प्रदर्शन करते रहे
आज मेरी थाली मुझे गाली देती है कि मैं उनके साथ नहीं चला सरकार ने भूखे रहने के अपराध में जिनका क़त्ल किया
मेरी एक दोस्त का व्यंजन-प्रदर्शन मुझे ताल मारकर मेरी देह से बाहर करता है कि
मैंने किनके बीच रहने का चुनाव किया
मैं एक भयंकर अँधेरी रौशनी की दुनिया में फँस गया हूँ
मेरे पुरखो, मुझे इस दुनिया से बाहर निकालो
आवश्यकता और ऐश्वर्य की संभावित हिंसक लड़ाई में आवश्यकता का क्रूर सैनिक होने के पहले
मैं ख़ुद को इस दुनिया का नागरिक होने से ख़ारिज करता हूँ
इनकी भूख मेरी आत्मा की हड्डियाँ चबा जाएगी
इनकी प्यास मेरी करुणा का सागर सोख लेगी
यह वह दुनिया नहीं जिसका नक़्शा मेरे हृदय की जेब में सदियों से पड़ा हुआ है
मेरे पुरखों मुझे इस दुनिया से बाहर निकालो।
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ
यहाँ से आगे
अतिरिक्त नींद के स्वप्न में तितली का अमलतास को न चूम पाने का कपासी दुख नहीं होना है
यहाँ से आगे
महुआ के गंध से देस के विस्थापन का घाव भर लेना नामुमकिन होगा
यहाँ से आगे
ठुमरी पर बजता पखावज सदियों दूर से आती मानुष-चीख़ में बदल जाएगा
यहाँ से आगे
कत्थक करते कमल-दल से पाँव मानुष-लोहू में डूबने लगते हैं
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ
यहाँ से आगे
घृणा की आग में जली बस्तियाँ आएँगी
मध्यकालीन मर्द के मस्तिष्क के मवाद से मरी बच्चियाँ आएँगी
परिवार के कोल्हू में कच्ची तीसी-सी पेर दी गई स्त्रियाँ आएँगी
बीमार मनुष्यता के लिए जंगल से सन्नाटे की औषधि बटोरते हुए पहाड़ो में ज़िंदा दफ़नाए गए मुंडा और टोप्पो आएँगे
अवर्णों की हड्डियाँ उनके लहू में घिसकर चंदन लगाने वाली संस्कृतियाँ आएँगी
मज़लूमों का रक्त पीकर जवान हुई सभ्यताएँ आएँगी
वध की भाषा में क़त्ल की कथाएँ आएँगी
यहाँ से आगे ऐसा बहुत कुछ आएगा
जिससे निबटने के लिए यहाँ से बहुत-बहुत पीछे जाना होगा
यहाँ से आगे
लाशों से पटे धर्मस्थलों के गर्भगृह में बर्बरता की करुणा से तर्कयुद्द लड़े जाएँगे
यहाँ से दुःख नहीं, दुःख के कारण आएँगे
यहाँ से आगे बहसों का अंधड़ आएगा
यहाँ से आगे पुनर्व्याख्याओं की लू चलेगी
जिनकी चेतना के गुणसूत्र अनुकूल नहीं हैं ऐसे मौसम के लिए
वे लौट जाएँ
बहुत भीषण है यहाँ से आगे कलाओं की दुनिया
बहुत दुर्गम है यहाँ से आगे संवेदनाओं के रास्ते
यहाँ से बदलते हैं कहानी के पात्र
यहाँ से बदलती है कविता की भाषा
यह इस नई सदी और सभ्यता का आख़िरी मोड़ है
इस मोड़ से जो लौटना चाहते हैं, लौट जाएँ।
सूर्य के नदी में डूबने की भाषा में विदा
मैं जौनपुर में जन्मा और तुम सिमडेगा में
हम एक ही झंडे तले दो देश में जन्मे
एक दिन नदी पार की धकधक वीरानी पर बैठे हुए
मेरी गोद से दूर होती हुई जब तुमने कहा—
जिसे तुम जंगल कह रहे हो वो मेरा घर है
तुम्हारी उस अर्थगर्भित रहस्यमय मुस्कान से
मेरी आत्मा का आईना ताउम्र लड़ता रहेगा हंसदा
तुमने जिस महान करुणा से मुझे माफ़ किया था वह मुझे उम्र भर मुलायम रखेगी
अपने घर की याद में गिरा तुम्हारा एक चुप क़तरा आँसू
मेरी ज़िंदगी भर की चीख़ पर भारी रहेगा हंसदा
पैरों में मेमने की उछल बाँधकर
कल परसों तक तुम चली जाओगी अपने घर की ओर
तब पिछले बरस की एक रात उँगलियों से छूकर मेरी पीठ पर
तुम्हारे हाथों उगाए हुए जंगलों में तुम्हारा घर गुम हो जाएगा
तुमने कहा सिमडेगा में प्रेम कोई फल नहीं
जिसे खाया जाता हो
वहाँ यह एक फूल होता है
जिसे रोपना पड़ता है
अब जब कल परसों तक तुम अपने इतने बड़े घर में गुम हो जाओगी
तब नहीं देख पाओगी कि
तुम्हारी एक छुवन भर से लहलहा उठने वाला ये मन
न फल रहा न फूल
तुम कभी नहीं जान पाओगी कि सिमडेगा के पहाड़ी पर उतरी पूर्णिमा की ओट में
मेरे साथ तुम्हारी रति-केली की तमन्ना
मेरी कामेच्छा को उम्र भर सताती रहेगी
और बरसों बाद भी स्खलित घुप्प अकेले में उठती
मेरी सिसकियों के ऐन बीच-बीच तुम्हारे नाम की पुकार आती रहेगी हंसदा
हंसदा तुम मुझे इस निगाह से मत देखो जैसे देखा जाता है किसी को आख़िरी बार
जैसे निश्चित हार की लड़ाई में जाता हुआ सिपाही देखता है अपनी बीमार बच्ची को
हंसदा, हमारा प्रेम दो देश की लड़ाई में क़ुर्बान नहीं जाएगा
वह सिमडेगा के जंगलों में फूलता रहेगा
जिसकी गंध बीच की दीवार पार कर एक दिन मेरे जौनपुर तक ज़रूर आएगी
तुमसे प्रेम के अपराध में मेरा देश लामबंद होगा और अपनी पुरातन घृणा से मार देगा
देश की सुरक्षा के मद्देनजर हुई मेरी हत्या की ख़बर सुनकर
तुम अपना हृदय जले हिरण की राख लपेटकर बिलख मत पड़ना
मेरी मृत्यु मेरे जंगल और तुम्हारे घर के फूल जितनी स्वाभाविक होगी
उस खोती हुई दिशा की बेला में आकाश को मृदंग बना लेना
और पहाड़ से उतरते हुए मद्धम आवाज़ में गाना अपने बाबा से सुना वही लोकगीत
जिसमें एक फूल पहाड़ बनता है
पहाड़ जंगल बनता है
जंगल घर बनता है
घर को कुछ नहीं बनना होता है
क्यों कि घर घृणा के विरुद्ध होता है।
मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानता हूँ
अचानक मिलता हूँ किसी से तो याद करता हूँ
किस सदी, किस पहर में देखा था इसे
समय चेहरे पर नई लकीरें खींच देता है
नाम याद करने की कोशिश करता हूँ
तो उस नाम से मिलने वाले सारे संभावित चेहरे गदर कर देते हैं
एक शब्द में नहीं अट पाता समूचा मनुष्य
नाम भूल जाता हूँ
चेहरे बदल जाते हैं
मैं मनुष्य को उसकी प्राथमिकताओं से पहचानता हूँ।
बहुत मामूली चीज़ है
अगर मैंने जन्नत देखी होती
तो दावे के साथ कह पाता कि
तुम्हारे साथ बिताए हुए दिनों के आगे
जन्नत बहुत मामूली चीज़ है।
अब चूँकि मैंने नर्क देखा है
तब दावे के साथ कह सकता हूँ कि
तुम्हारे बिछोह के आगे
नर्क बहुत मामूली चीज़ है।
विहाग वैभव हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : इतिहास हत्यारों के दलाल की तरह सच छुपाने का आदी है