व्यंग्य ::
इब्न-ए-इंशा
लिप्यंतरण : निशांत कौशिक
फ़ैज़ और मैं
बड़े लोगों के दोस्तों और हमजलीसों (हमजोली, गहरे मित्र) में दो तरह के लोग होते हैं। एक वो जो इस दोस्ती और हमजलीसी का इश्तेहार दे कर ख़ुद भी नामवरी हासिल करने की कोशिश करते हैं। दूसरे वो इज्ज़-ओ-फ़रोतनी (विनम्रता और सज्जनता) के पुतले जो शोहरत से भागते हैं। कम-अज़-कम अपने ममदूह (प्रशंसकों) की ज़िंदगी में। हाँ इसके बाद रिसालों (पत्रिकाओं) के एडिटरों के पुरज़ोर इसरार (अनुनय-विनय) पर उन्हें अपने तअल्लुक़ात को अलम-नशरह (व्याख्यायित) करना पड़े तो दूसरी बात है।
डॉक्टर लकीरुद्दीन फ़क़ीर को लीजिए। जैसे और प्रोफ़ेसर होते हैं, वैसे ही ये थे। लोग फ़क़त इतना जानते थे कि अल्लामा इक़बाल के हाँ (यहाँ) उठते-बैठते थे सो यह भी ख़ुसूसियत (विशेष, विशिष्टता) की कोई बात नहीं। यह इंकिशाफ़ (ख़ुलासा) अल्लामा के इंतिक़ाल के बाद हुआ कि जब कोई फ़लसफ़े का दक़ीक़ (जटिल) मसला उनको समझ में न आता तो इनसे ही रजुअ (सलाह लेना, संपर्क करना) करते थे। डॉक्टर लकीरुद्दीन फ़क़ीर ने एक वाक़आ लिखा है कि एक रोज़ आधी रात को मैं चौंक कर उठा और खिड़की में से झाँका तो क्या देखता हूँ कि अल्लामा मरहूम का ख़ादिमे-ख़ास अली बख़्श है, मैंने पूछा, ‘‘खैरियत?’’ जवाब मिला, ‘‘अल्लामा साहब ने याद फ़रमाया है…’’
‘‘इस वक़्त?’’ बोला, ‘‘जी हाँ, इस वक़्त और ताकीद (ज़ोर डालना) की है कि डॉक्टर साहब को लेकर आना।’’ मैं हाज़िर हुआ तो अपने लिहाफ़ में जगह दी और फ़रमाया :
‘‘आज एक साहब ने गुफ़्तगू में राज़ी (एक कवि) का ज़िक्र किया। तुम जानते हो मैं तो शाइर आदमी हूँ, आख़िर क्या-क्या पढ़ूँ? इस वक़्त यह पूछने को तकलीफ़ दी है कि यह राज़ी कौन साहब थे और उनका फ़लसफ़ा क्या था?’’ मैं दिल ही दिल में हँसा कि देखो अल्लाह वाले लोग ऐसे होते हैं! बहरहाल, तामील इरशाद (आज्ञापालन) में मैंने इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी और उनके मकतबे-फ़िक्र (चिंतन की विषयवस्तु) का सैर हासिले-इहाता (साफ़-साफ़, स्पष्ट तरीके से पढ़ना, समझाना) किया और इजाज़त चाही। अल्लामा साहब दरवाज़े तक आए, आबदीदा (अश्रुपूर्ण) होकर रुख़सत किया और कहा, ‘‘तुमने मेरी मुश्किल आसान कर दी। अब शहर में और कौन रह गया है जिससे कुछ पूछ सकूँ?’’
अगली इतवार ‘ज़मींदार’ का परचा खोला तो सफ़्हा-ए-अव्वल (प्रथम पृष्ठ) पर अल्लामा मौसूफ़ की नज़्म थी जिसमें वो मिसरा है :
‘‘ग़रीब अगरचे हैं राज़ी के नुक्तःहा-ए दक़ीक़’’
हरचंद (यद्यपि) मैंने वाज़ेह (स्पष्ट) कर दिया था कि राज़ी का फ़लसफ़ा (दर्शन, दृष्टिकोण) ख़ासा पेशपा उफ़तादा (दुःख और विषाद में डूबा हुआ) है दक़ीक़ (जटिल और मुश्किल) हरगिज़ नहीं, लेकिन मालूम होता है अल्लामा मरहूम को ऐसा ही लगा।
मदरसा-ए-इल्मिया शर्तिया मोची दरवाज़े के प्रिंसिपल मिर्ज़ा अल्लाह दित्ता ‘ख़्याल’ ने जो छह माह में मैट्रिक और दो साल में बीए पास करने की गारंटी लेते हैं, माहनामा (मासिक पत्रिका) ‘तस्वीरे बुतां’ में पहली बार इस बात का एतराफ़ किया कि अल्लामा मरहूम को मसनवी-ए-मौलाना रूम (मौलाना रूमी) के बाज़ (कुछ, कुछेक) मक़ामात (हिस्सों) में उलझन होती तो मुझे याद फ़रमाते थे। एक बार मैंने अर्ज़ किया कि आप मुंशी फ़ाज़िल (मुंशी की डिग्री) क्यों नहीं कर लेते। तमाम उलूम (शास्त्र, विद्याएँ) आपके लिए पानी हो जाएँगे। बोले, ‘‘इस उम्र में इतनी मेहनत शाक़ेह नहीं कर सकता। बाद में, मैंने सोचा कि वाक़ई शोअरा तुलामीजुर्रहमान (हदीस-ए-क़ुदसी की एक हदीस जिसका अर्थ है कि सारे कवि अल्लाह के शिष्य हैं) होते हैं। इनको इल्म और रिसर्च के झमेलों में नहीं पड़ना चाहिए यह तो हम जैसे सरफिरों का काम है। अल्लामा के एक जिगरी दोस्त रंजूर फ़िरोज़पुरी को भी लोग गोशा-ए-गुमनामी से निकाल लाए। एक बसीरत-अफ़रोज़ मज़मून (बुद्धिमत्तापूर्ण निबंध) में आपने लिखा, ‘‘ख़ाकसार ने अपने लिए शाइरी को कभी ज़रिया-ए-इज़्ज़त (सम्मान का स्रोत) नहीं जाना। बुज़ुर्ग हमेशा नेचाबंदी (हुक़्क़े की नली बनाने का काम) करते आए थे इसमें ख़ुदा ने मुझे बरकत दी। जो छोटा-मोटा कलाम बसबीले-इर्तजाल (बग़ैर बहुत सोच-समझ और संकोच के) कहता था, अल्लामा साहब की नज़्र (भेंट) कर देता था। अब भी देखता हूँ कि अर्मगांने-हिजाज़ (हिजाज़ की भेंट : अल्लामा इक़बाल का एक कविता-संग्रह) वग़ैरह किताबों में सैकड़ों मिसरे जो इस हेच मदां (निरक्षर, अज्ञानी, नादान, नावाक़िफ़) कुज-मुज ज़ुबान ने अल्लामा के गोशगुज़ार (सुनाना, कहना) किए थे, नगीनों की तरह चमक रहे हैं।
फ़ैज़ साहब के मुताल्लिक़ कुछ लिखते हुए मुझे ताम्मुल (संकोच) होता है कि दुनिया हासदाने-बद (बदनीयत) से ख़ाली नहीं। अगर किसी ने कह दिया कि हमने तो इस शख़्स को कभी फ़ैज़ साहब के पास उठते-बैठते नहीं देखा तो कौन इनका क़लम पकड़ सकता है। अहबाब (मित्र) पुरज़ोर इसरार (अनुनय-विनय) न करते तो यह बंदा भी अपनी गोशा-ए-गुमनामी में मस्त रहता। फिर बाज़ (कुछ) बातें ऐसी भी हैं कि लिखते हुए ख़याल होता है कि अया यह लिखने की हैं भी या नहीं। मसलन यही कि फ़ैज़ साहब जिस ज़माने में पाकिस्तान टाइम्स के एडिटर थे, कोई इदारिया (संपादकीय) उस वक़्त तक प्रेस में न देते थे, जब तक मुझे दिखा न लेते। कई बार अर्ज़ किया कि माशाअल्लाह आप ख़ुद अच्छी अँग्रेज़ी लिख लेते हैं, लेकिन वह न मानते और अगर मैं कोई नुक़्ता (बिंदु) या फ़िक़रा (विचार) बदल देता तो ऐसे ममनून (प्रसन्न) हो जाते कि ख़ुद मुझे शर्मिंदगी होने लगती।
फिर फ़ैज़ साहब के ताल्लुक़ वह बातें याद आती हैं, जब फ़ैज़ ही नहीं, बुख़ारी, सालिक, ख़लीफ़ा अब्दुलहकीम वग़ैरह हम सभी हमप्याला-ओ-हमनिवाला दोस्त रावी के किनारे टहलते रहते और साथ ही साथ इल्म-ओ-अदब (ज्ञान और साहित्य) की बातें भी होती रहतीं। यह हज़रात मुख़्तलिफ़ ज़ावियों (विभिन्न विषयों और कोणों) से सवाल करते और यह बंदा अपनी फ़हम के मुताबिक़ जवाब देकर उनको मुतमईन (निश्चिंत) कर देता और यह बात निस्बतन हाल की है कि एक रोज़ फ़ैज़ साहब ने सुबह-सुबह मुझे आन पकड़ा और कहा, ‘‘एक काम से आया हूँ, एक तो यह जानना चाहता हूँ कि यूरोप में आज-कल आर्ट के क्या रुजहानात (रुझान) हैं और आर्ट पेपर क्या चीज़ होती है, दूसरे मैं वाटर कलर और ऑइल पेंटिंग का फ़र्क़ मालूम करना चाहता हूँ। ठुमरी और दादरा का फ़र्क़ भी चंद लफ़्ज़ों में बयान कर दें तो अच्छा है।’’ मैंने चाय पीते-पीते सब कुछ अर्ज़ कर दिया, उठते-उठते पूछने लगे, ‘‘एक और सवाल है, ग़ालिब किस ज़माने का शाइर था और किस ज़बान में लिखता था?’’ वह भी मैंने बताया। इसके कई माह बाद तक मुलाक़ात न हुई। हाँ, अख़बार में पढ़ा के लाहौर में आर्ट-काउंसिल के डायरेक्टर हो गए हैं। ग़ालिबन (संभवतः) उस नौकरी के इंटरव्यू में इस क़िस्म के सवाल पूछे जाते होंगे।
अक्सर लोगों को ताज्जुब होता है कि ‘नक़्शे फरियादी’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक कविता-संग्रह) का रंगे-कलाम (लेखन-शैली, प्रभाव) और है और फ़ैज़ साहब के बाद के मजमुओं ‘दस्ते-सबा’ ((फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक और कविता-संग्रह) और ‘ज़िंदां-नामा’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का एक और कविता-संग्रह) का और। अब चूँकि इसका पसे-मंज़र (बैकग्राउंड, पृष्ठभूमि) राज़ नहीं रहा और बाज़ हल्क़ों (कुछ जगहों, इलाक़ों) में बात फैल गई है, लिहाज़ा इसे छुपाने का कोई फ़ायदा नहीं। फ़ैज़ साहब जब जेल गए हैं तो वैसे तो उनको ज़्यादा तकलीफ़ नहीं हुई, लेकिन काग़ज़-क़लम उनको नहीं देते थे और न श’अर लिखने की इजाज़त थी। मक़सद इसका यह था कि उनकी आतिश-नवाई (तेज़-तर्रार लेखन) पर क़दग़न (प्रतिबंध) रहे और लोग उन्हें भूल-भाल जाएँ। लेकिन वह जो कहते हैं तदबीर कुनद बंदा, तक़दीर कुनद खंदा (जुगत भिड़ाए बंदा, तक़दीर फेरे डंडा : एक फ़ारसी कहावत)। फ़ैज़ साहब जेल से बाहर आए तो सालिम ताँगा लेकर सीधे मेरे पास तशरीफ़ लाए और इधर-उधर की बातों के बाद कहने लगे, ‘‘और तो सब ठीक है, लेकिन सोचता हूँ, मेरे अदबी मुस्तक़बिल (साहित्यिक भविष्य) का अब क्या होगा?’’
मैंने मुस्कुराते हुए मेज़ की दराज़ में से कुछ मुसव्विदे (ड्राफ़्ट, कच्चा-कार्य) निकाले और कहा यह मेरी तरफ़ से नज़्र (भेंट) हैं। पढ़ते जाते थे और हैरान होते जाते थे, फ़रमाया, ‘‘बिल्कुल यही जज़्बात मेरे दिल में आते थे, लेकिन इनको क़लमबंद (लिख पाना) न कर कर सकता था। आपने इस ख़ूबसूरती से नाले को पाबंदे-नय (ग़ालिब की पंक्ति ‘नालाः पाबंदे नय नहीं है’ की ओर व्यंग्यपूर्ण संकेत, यहाँ अर्थ : वेदना को संगीत में बदलना) किया है कि मुझे अपना ही कलाम मालूम होता है।’’ मैंने कहा, ‘‘बिरादरे अज़ीज़! बनी-आदम एज़ाए यक-दीगर अंद (शेख़ सादी के गुलिस्तां की प्रसिद्ध उक्ति जिसका अर्थ है कि समस्त मानव-जाति एक दूसरे का हिस्सा हैं और सबके साथ ही संपूर्ण हैं)। तुम पर जेल में जो गुज़रती थी, उसे मैं यहाँ बैठे-बैठे महसूस कर लेता था, वरना मन आनम कि मन दानम (विनम्रता में कहा जाने वाला एक फ़ारसी पद, अर्थ : मैं ख़ूब जानता हूँ कि मैं क्या हूँ)। बहरहाल अब इस कलाम को अपना ही समझो, बल्कि इसमें मैंने तख़ल्लुस (उपनाम) भी तुम्हारा ही बाँधा है और हाँ नाम भी मैं तजवीज़ (प्रस्ताव देना), किए देता हूँ। आधे कलाम को ‘दस्ते-सबा’ के नाम से शाए (प्रकाशित) करो और आधे को ‘ज़िंदां-नामा’ का नाम दो।’’ इस पर भी उनको ताम्मुल (संकोच) रहा, बोले, ‘‘यह बुरा-सा लगता है कि ऐसा कलाम जिस पर एक मुहबे-सादिक़ (निष्ठावान मित्र) ने अपना ख़ूने-जिगर टपकाया हो, अपने नाम से मंसूब कर दूँ।’’
मैंने कहा, ‘‘फ़ैज़ मियाँ, दुनिया में चिराग़ से चिराग़ जलता आया है, शेक्सपीयर भी तो किसी से लिखवाया करता था, इससे उसकी अज़मत (प्रतिष्ठा) में क्या फ़र्क़ आया?’’ इस पर लाजवाब हो गए और रिक़्क़त तारी (नमी, रुदन की स्थिति) हो गई।
फ़ैज़ साहब में एक और बात मैंने देखी। वह बड़े ज़र्फ़ (सहनशीलता, सामर्थ्य) के आदमी हैं। एक तरफ़ तो उन्होंने किसी पर कभी यह राज़ अफ़शा (ख़ुलासा) न किया कि ये मजमुए (कविता-संग्रह) उनका नतीजा-ए-फ़िक्र नहीं। दूसरी तरफ़ जब लेनिन इनाम लेकर आए तो तमग़ा (चिह्न, अवार्ड, मुहर) और आधे रूबल मेरे सामने ढेर कर दिए कि इसके असल हक़दार आप हैं। इस तरह के और बहुत से वाक़्यात हैं। बयान करने लगूँ तो किताब हो जाए, लेकिन जैसा कि मैंने अर्ज़ किया कि नमूद-ओ-नुमायश (दिखावा, बनावट) से इस बंदे की तबियत हमेशा नफ़ूर (नफ़रत, घृणा करना) रही है, वमा तौफ़ीक़ी इलाबिल्लाह। (क़ुरान की एक आयत, अर्थ : मेरी सारी सफलताएँ और प्रतिष्ठा अल्लाह से है। इब्ने इंशा ने बात को ख़त्म करने के लिए इसे व्यंग्यात्मक लहज़े में उद्धृत किया।)
इब्न-ए-इंशा (1927-1978) उर्दू के प्रसिद्धकार व्यंग्यकार और ग़ज़लगो हैं। वह अपनी ग़ज़लों में देशज प्रतीकों और सहल उर्दू के प्रयोग के लिए जाने जाते हैं। हिंदी के समादृत कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा अनूदित इब्न-ए-इंशा की पुस्तक ‘उर्दू की आख़िरी किताब’ हिंदी जगत में ख़ासी लोकप्रिय रही है। यह प्रस्तुति मूल उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरण के लिए rekhta.org से ली गई है। निशांत कौशिक से परिचय के लिए यहाँ देखें : पत्ते बच्चों की तरह मासूम हैं