कविताएँ ::
दीपक सिंह

दीपक सिंह

प्रस्तावना

सारे कवि
पहले एक बुरे प्रेमी थे—
मेरी तरह।

प्रत्येक कविता
पहले एक अच्छी लड़की थी—
तुम्हारी तरह।

प्रवेश

मेरे पास से उठकर
तुम तालाब की
सबसे अंतिम सीढ़ी पर बैठ गईं।

तुमने अपने दोनों पैर
जल में उतार दिए
गुलाबी धूप जल पर तिरने लगी।

तुम मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराईं
मुझसे आँखें बंद करने की
मिन्नतें कीं—

मैं दूर सीढ़ियों पर बैठा
देखता रहा
नग्न देह को जल में उतरते।

तुम्हारे बाएँ स्तन के नीचे
मेरे मुलायम सपनों के निशान हैं
जिसे तुम चुम्बन समझने की भूल करती हो।

मैं तुम्हारी देह के ताप से
अपनी आत्मा झुलसा आया हूँ—
वहाँ तुम अपने होंठ रखो!

प्रेम-कविता

मेरी प्रेम-कविता में
नदी पेड़ और पहाड़ नहीं हैं।

सौ वॉट की रौशनी में
एक लॉज का बेतरतीब-सा कमरा है

मैं फिर भी बुनता हूँ रूमान—
उस स्त्री की मादक याद से

तुम अब भी बिस्तर पर नग्न लेटी हो
तुम्हारी आँखों में आँसू हैं
मैं तुम्हारे क़रीब ही लेटा हूँ
अचानक उठता हूँ
एक सिगरेट सुलगाता हूँ
सोचता हूँ
मैं तुमको भूल जाऊँगा
और नहीं करूँगा
प्यार फिर।

प्रतीक्षा

मैं युवा था
और बिना कुछ जाने-समझे
अपरिचित रास्तों पर चलने का फ़ितूर
अंतस में साँस भरता था
फिर भी
मैं नहीं जान पाया था प्यार को
केवल इतना था मालूम—
जब तुम मेरे साथ बिस्तर में होतीं
तब सारी सत्ताएँ बेहद मामूली जान पड़तीं
और जब तुम चूमतीं मुझको
तब देवताओं को मुझ पर रश्क होता था

यह देवताओं की ही साज़िश थी
जिन्होंने ईर्ष्या में आकर
बतलाया था मुझे प्यार का मतलब
और उकेर दिया था तुम्हारा नाम
मेरी आत्मा पर

और अब
तुम्हारी प्रतीक्षा में
मेरी आत्मा के फूल झड़ते हैं।

प्रक्षिप्त

एक शाम वह मेरे साथ थी
अपने वजूद की रोशनी में
पहले मैंने उसकी आँखें देखीं
उसके होंठों को चूमा
मेरा हाथ उसके वक्ष पर था

वह चाहती थी—
मैं उसकी देह देखूँ
इसलिए उसने अपनी आत्मा दी मुझे देखने
और तब मैं करने लगा था प्यार
उस पागल लड़की से।

प्रतिज्ञा

जब तुमने कहा
अब से मत बनाना मुझे
अपनी कविता का विषय
तब लगा जैसे खो दूँगा
अपनी कविता भी
हालाँकि अगले ही पल
मैं तुमको भूल चुका था
एक दफ़्न हो चुके कवि की
बिसरा दी गई
कविता- पंक्ति की तरह!

भूल जाना—
मेरे सारे चुम्बन
मैं तुम्हारा प्यार
अब नहीं!

प्रकरण

प्रतीक्षा मत करो
अब उस लड़की की

वह नहीं लौटेगी तुम्हारे पास

प्रतीक्षा से बेहतर है—
कविता-पंक्तियों के बीच
ख़ुद को खो देना
मगर इसके लिए भी
तुम्हें सीखना होगा सब्र
जैसे कभी तुम इंतिज़ार करते थे
उस साँवली लड़की का
जैसे बारिश का
और फ़रवरी का।

प्रवाह

फ़रवरी के आख़िरी दिन—
सुबह उठूँगा
सूरज देखूँगा
पढ़ूँगा कविताएँ

पूरा कमरा साफ़ करूँगा
भोजन पकाऊँगा
चाय में थोड़ी कम शक्कर मिलाऊँगा
बच्चों के संग खेलूँगा
एक बूढ़े को पान खिलाऊँगा
और जब शाम गिरने लगेगी छत पर
प्रेमिका के केशों में कंघी करूँगा
उसके नाख़ूनों को रँग दूँगा
अपने दिल के लाल से।


दीपक सिंह [जन्म : 1995] की कविताओं के ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे deepaksingh03jan@yahoo.com पर संवाद संभव है।

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