कविताएँ ::
गार्गी मिश्र

गार्गी मिश्र

पागल जिन्न

कितनी मामूली है यह दुनिया
और कितने गहरे हैं इसके रहस्य

रहस्य—
इसी मामूली-सी दुनिया के
और इसमें रहने वाले
बेहद मामूली-से इंसान के

एक ख़याल अभी आँखों से उतर कर
सीने तक पहुँचने की कोशिश कर ही रहा था
कि दाँतों तले किसी जिन्न ने खींच लिया उस ख़याल को
और एक इंसान के मुँह से बह रही
एक धुँधली नदी में डुबो दिया

कभी हवा में उड़ता है वह ख़याल
छू लेती है ज़बान इक दाँत और फिर मुड़ जाती है

जब तक सोचती हूँ कि
क्यूँ फ़िज़ूल उदास हुई
उतनी ही देर में दिखाई देने लगती है
जिन्न की दरी

मुझे ज़ोरों की खाँसी आने लगती है
खाँसी जो थी बेहद
ज़िद्दी और बेचैन।

अभिनय दर्पण

इस पार प्रिय तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा…
गुनगुनाते हुए उदास नहीं हूँ

यह वर्तमान है
यह बिछुड़ जाने के बहुत पहले का स्वाद है
जिसे चख कर हम
भूल जाने का अभिनय कर रहे हैं

इसी अभिनय में तो बनाना है यह घर
दीवार पर एक बहुत बड़ी पेंटिंग लगानी है
उसे निहारने के पार्श्व में बीतना है

बीच-बीच में हँस कर छुपाना है अपना आश्चर्य
खुले आसमान के नीचे लकड़ी के बिस्तर पर सोना है
और उठनी है पीठ से पहली लपट
जिसमें हज़ारों प्रकाशवर्ष की स्मृतियाँ
चट-चट कर जल जाएँगी

देव मंद-मंद मुस्कुराएँगे
नाटक के मंचन के बाद!

कुछ भी नहीं बदलता

जिस भी ओर से देखो
वह अपनी जगह पर कभी नहीं मिलता

बेला रूठ कर अपनी पंखुड़ी बिसरा देती है
कि वह एक निर्धारित स्थान को अपना घर बना ले

कुछ भी नहीं बदलता
न दृश्य, न चंद्रमा, न जीवन

मैं इन सबको एक स्मृति में टाँक कर
समेट लेती हूँ अपनी चादर

कोई पूछता है क्या बटोर रही हो?

मैं हाथ पर बँधी घड़ी को देख कर कहती हूँ
रात बहुत हो गई।

उम्र एक जादुई पत्थर है

उम्र एक जादुई पत्थर है
जो हमारे सिरहाने रखा हुआ है
इसी पत्थर के जादू से सबसे पहले कोई भी बात
हमारी शक्लों पर दिखाई देने लगती है

जबकि उन बातों की असली जगह गुम हो चुकी चाबियों
इस दुनिया से जा चुके लोगों की स्मृतियों और
हमारे पालतू जानवर की रुलाई में छुपी हुई थी

ये इस जादुई पत्थर की ही बात है
कि हम में से कुछ लोग इसके घिसने के साथ-साथ
इतने घिस जाते हैं कि
उनमें और पानी में कोई फ़र्क़ नहीं रह जाता
वे नदियों के किनारों की कसक नहीं रखते
वे बहुत ही आसानी से रो पड़ते हैं
और बहुत मुश्किल से कोई बात
उन्हें किसी अचरज में डाल पाती है
मालूम होता है उन्होंने देख लिया हो
एक बेशक़ीमती पत्थर का लुढ़क कर
किसी खाई में गिर जाना

मुझे महसूस होता है
घर की सबसे वृद्ध स्त्री ने
इस पत्थर को चाट लिया है
वह बार-बार कहती है—
‘किसी भी चीज़ में कोई स्वाद नहीं है
थोड़ा और नमक डालो।’

वह भूल चुकी है कि उसे
सिर्फ़ नमक का स्वाद याद है

कुछ लोग थे झुंड में
जिन्हें मैंने बारी-बारी से पुकारा
और उन्हें अपना दोस्त कहा
मैंने देखा कि उन्होंने उस पत्थर से
अपने सीने पर एक चीरे का निशान उकेर लिया है
और उस जगह ख़ून जम चुका है
उस झुंड में अब मेरा कोई दोस्त नहीं

मैं कुछ दिनों पहले पहाड़ों के बीच में थी
मैंने उस पत्थर को पहाड़ी मिट्टी के नीचे दबा कर
बारिश की प्रार्थना की थी

बारिश की उस रात
सपने में मैं मौन की मुद्रा में खड़े लोगों से
विदा कह रही थी
मेरी शक्ल पर मुझसे बिछुड़ चुके
मेरे कुत्ते का शोकगीत
उभर कर दिखाई दे रहा था
स्याही जिसकी अदृश्य थी
पर मिटती नहीं थी।

आग के दो कमरे और एक खुरदुरी ज़मीन

देखा है कभी टोस्टर में ब्रेड को
सिंकते हुए?

जेलनुमा आग के दो कमरे और
कुछ ही पलों में नर्म से सख़्त और खुरदुरी एक ज़मीन

वह ज़मीन कुछ भी सोखती नहीं
अपनी बनावट में हर चीज़ को
खुरदुरेपन की एक हिदायत देती है

जब तक तुम उसकी हिदायत को सुन कर
उसे छूने के लिए आगे बढ़ रहे होते हो
आती है खट्ट से एक आवाज़

यही जादू है टोस्ट किए हुए ब्रेड का
यही जादू मन का भी है
कुछ भी रिस कर भीतर नहीं जा सकता
साठ सेकेंड की दुनिया है
और टूटना है एक भरम का।


गार्गी मिश्र से परिचय के लिए यहाँ देखिए : इतनी सारी नई बातें कहाँ रखूँगी

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